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सन्देश

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और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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गुरुवार, 10 जनवरी 2013

राजीव आनंद के मुक्तक


सफल होने की हवस में
नैतिक मर्यादा छोड़ दी
सूंदर काया का फायदा उठाया
सफलता के कई कृतिमान तोड़ दी




शरीर एक धर्मशाला
आत्मा एक मुसाफिर
अन्तर्यात्रा एक तैयारी
चल देना किस्मत हमारी




कर्म में वासना न रहे तो
जीवन साधना बन जाती है
जनकल्याण में अपना कल्याण
परम उपलब्धि जीवन की कहलाती है




बछड़े ने अपनी माँ को
जोर से पूकारा माँ.....
बिरजुआ की मइया सब छोड़कर
दौड़ी गोहाल चली आयी





तारों से भरा आकाश
चावल दानों से भरा हो जैसे थाल
टूट रहा है एक तारा
मैं भी तोडूंगा उपवास




बैलों के गले में टंगी
घंटियों से आती आवाज
सूरमयी शाम की आगाज
डूबते सूरज को सूनाती साज




सभी इंजीनियर चाहते है बनना
कई हो जाते है इसमें नाकाम
घर लौट कर क्या कर पाते है
ये असफल इंजीनियर दूसरा कोई काम




रेल के धड़धड़ाती आवाज में
मुझे एहसास हो आया
माँ की छाती में
इन दिनों होता धक-धक





पहले और अब
गोरैया के आवाज में है दर्द
पहले गोरैया गाती थी
अब गोरैया कराहती है




पैसे की अक्सर ही
खूशी से अदावत होती है
पैसे से जब जेब भर जाती है
दिल से खूशी नदारत होती है





क्यों भले आदमी को
ईश्वर इतना कष्ट देता है ?
ईमानदारी से जीने का
क्या यही सिला मिलता है ?