जन्म: ०१ अक्तूबर १९३६ कालाबाग (मियांवाली),ग़ज़ल-संग्रह 'दीवाने-आतिश'
१.
बरसता अब्र है या मेरे अश्कों की रवानी है
समझते हो जिसे पानी, असल में खूँ फ़शानी है
सुनाई दोस्तों ने दास्ताने-ग़म, बहुत रोए
न थी हमको ख़बर इसकी, हमारी ही कहानी है
नज़र आता नहीं शीशे में क्यों मुझको मेरा चेहरा
हुई कम मेरी बीनाई, कि उतरा इसका पानी है
सुखन दां रह गए हैं कम, तो हैं या कद्र दां कमतर
यह दौरे-शायरी कैसा, यह कैसी शेरख्व़ानी है
हमें तो मार ही डाला था 'आतिश' ज़िंदगानी ने
जिए उम्मीद में जिसकी, कज़ा-ए-नागहानी है
२.
सारे जहाँ पर राज मेरा आशकारा हो गया
सोचा भला क्या और हाय क्या ख़ुदारा हो गया
था कल तलक तो बस में मेरे, अब तुम्हारा हो गया
यह दिल हमारा क्या करें, दुश्मन हमारा हो गया
था मयकदे का संग जब तक, ठोकरों में ही रहा
बनकर ख़ुदा बुतख़ाने में, सबका सहारा हो गया
हर इक बुलंदी के मुक़ र में है इक पस्ती लिखी
आया ज़मीं पर एक दिन, चाहे सितारा हो गया
तौफ़े-हरम में फँस गया, छूटा जो दौरे-जाम से
उफ इक न इक चक्कर में ही गुम दिल हमारा हो गया
समझा सभी को मैंने अपना जब तो आतिश किसलिए
दुश्मन ज़माना क्यों मेरा, सारा का सारा हो गया
३.
जाने-पहचाने कहीं हैं, और अनजाने कहीं
हैं पराए अपने तो, अपने हैं बेगाने कहीं
आग भी होगी यकीनन उठ रहा है जो धुआँ
क्या हक़ीकत के बिना, बनते हैं अफ़साने कहीं
चाक दामन कर लिया हाय जुनूने-शौक में
आप से होगे भला, दुनिया में दीवाने कहीं
जल चुके आशिक़ हक़ीक़ी, उड़ चुकी है राख भी
आग से क्या शम् की डरते हैं परवाने कहीं
लोग समझे आज 'आतिश' भी मुसलमाँ हो गया
साए में मसजिद के बैठे, हम जो सुस्ताने कहीं
४.
नग़में हमेशा प्यार के गाते चले गए
ग़म और खुशी दोनों में मुस्काते चले गए
मालूम है इसके तईं बहरे हुए हैं सब
हम प्यार के नग़में मगर गाते चले गए
गुल खिल गए चारों तरफ़ गुज़रे जिधर से हम
यों रास्तों को और महकाते चले गए
हमको समंदर ने अदब से रास्ता दिया
बेख़ौफ़ जब लहरों पे लहराते चले गए
दिल की लगी 'आतिश' बुझाई है शराब से
यों आग से हम आग बुझाते चले गए
५.
मुझको यहाँ तो हर कोई अपना लगा
सपना हकीकत और सच सपना लगा
मैंने बढ़ाया गुल की जानिब हाथ जब
काँटा जो उसके साथ था, वो आ लगा
बैठा है शीशे के मकां में आदमी
हर दम ही पत्थर का अंदेशा लगा
अख़त्यार है किसको यहाँ दिल पर भला
जो भी लगा अच्छा, उसी से जा लगा
अब रो रहा है रख जिगर पर हाथ क्यों
'आतिश' न दिल, कितना ही समझाया, लगा
१.
बरसता अब्र है या मेरे अश्कों की रवानी है
समझते हो जिसे पानी, असल में खूँ फ़शानी है
सुनाई दोस्तों ने दास्ताने-ग़म, बहुत रोए
न थी हमको ख़बर इसकी, हमारी ही कहानी है
नज़र आता नहीं शीशे में क्यों मुझको मेरा चेहरा
हुई कम मेरी बीनाई, कि उतरा इसका पानी है
सुखन दां रह गए हैं कम, तो हैं या कद्र दां कमतर
यह दौरे-शायरी कैसा, यह कैसी शेरख्व़ानी है
हमें तो मार ही डाला था 'आतिश' ज़िंदगानी ने
जिए उम्मीद में जिसकी, कज़ा-ए-नागहानी है
२.
सारे जहाँ पर राज मेरा आशकारा हो गया
सोचा भला क्या और हाय क्या ख़ुदारा हो गया
था कल तलक तो बस में मेरे, अब तुम्हारा हो गया
यह दिल हमारा क्या करें, दुश्मन हमारा हो गया
था मयकदे का संग जब तक, ठोकरों में ही रहा
बनकर ख़ुदा बुतख़ाने में, सबका सहारा हो गया
हर इक बुलंदी के मुक़ र में है इक पस्ती लिखी
आया ज़मीं पर एक दिन, चाहे सितारा हो गया
तौफ़े-हरम में फँस गया, छूटा जो दौरे-जाम से
उफ इक न इक चक्कर में ही गुम दिल हमारा हो गया
समझा सभी को मैंने अपना जब तो आतिश किसलिए
दुश्मन ज़माना क्यों मेरा, सारा का सारा हो गया
३.
जाने-पहचाने कहीं हैं, और अनजाने कहीं
हैं पराए अपने तो, अपने हैं बेगाने कहीं
आग भी होगी यकीनन उठ रहा है जो धुआँ
क्या हक़ीकत के बिना, बनते हैं अफ़साने कहीं
चाक दामन कर लिया हाय जुनूने-शौक में
आप से होगे भला, दुनिया में दीवाने कहीं
जल चुके आशिक़ हक़ीक़ी, उड़ चुकी है राख भी
आग से क्या शम् की डरते हैं परवाने कहीं
लोग समझे आज 'आतिश' भी मुसलमाँ हो गया
साए में मसजिद के बैठे, हम जो सुस्ताने कहीं
४.
नग़में हमेशा प्यार के गाते चले गए
ग़म और खुशी दोनों में मुस्काते चले गए
मालूम है इसके तईं बहरे हुए हैं सब
हम प्यार के नग़में मगर गाते चले गए
गुल खिल गए चारों तरफ़ गुज़रे जिधर से हम
यों रास्तों को और महकाते चले गए
हमको समंदर ने अदब से रास्ता दिया
बेख़ौफ़ जब लहरों पे लहराते चले गए
दिल की लगी 'आतिश' बुझाई है शराब से
यों आग से हम आग बुझाते चले गए
५.
मुझको यहाँ तो हर कोई अपना लगा
सपना हकीकत और सच सपना लगा
मैंने बढ़ाया गुल की जानिब हाथ जब
काँटा जो उसके साथ था, वो आ लगा
बैठा है शीशे के मकां में आदमी
हर दम ही पत्थर का अंदेशा लगा
अख़त्यार है किसको यहाँ दिल पर भला
जो भी लगा अच्छा, उसी से जा लगा
अब रो रहा है रख जिगर पर हाथ क्यों
'आतिश' न दिल, कितना ही समझाया, लगा