जन्म- १४ जुलाई १९४४ संभल (मुरादाबाद) उ.प्र.।
१.
टूट जाने पर भी है बाकी किनारा किसलिये
आज तक समझा नहीं, पानी का धारा किसलिये
शहर का हिस्सा बनो तो शहर जानेगा तुम्हें
बैठकर घर में अकेलेपन का शिकवा किसलिये
उनको भी अपनाओ, जो तुममें नहीं है दोस्तो
आदमी है एक तो अपना-पराया किसलिये
प्यास किस-किसकी बुझानी है, यह सोचा है कभी
दूर तक मैदान में बहता है दरिया किसलिये
तुममें साहस ही न था, साकार क्या करते उसे
सोचते क्या हो, हुआ नाकाम सपना किसलिये
२.
हर नया मौसम नई संभावना ले आएगा
जो भी झोंका आएगा, ताज़ा हवा ले आएगा
और कब तक धूप में तपती रहेंगी बस्तियाँ
बीत जाएगी उमस सावन घटा ले जाएगा
सूखी-सूखी पत्तियों से यह निराशा किसलिए
टहनियों पर पेड़ हर पत्ता नया नया ले आएगा
यह भी सच है बढ़ रहा है घुप अँधेरा रात का
यह भी सच है वक़्त हर जुगनू नया ले आएगा
रास्ते तो इक बहाना हैं मुसाफिर के लिए
लक्ष्य तक ले जाएगा तो हौसला ले आएगा
३.
आस का रंग निराशा से झलकते देखा
राख के ढेर में अंगार चमकते देखा
दाब पड़ती है तो झुक जाती है लोहे की सलाख़
क्या किसी ने कभी पत्थर को लचकते देखा
देखना यह है कि है किसमें करिश्मा कितना
हमने ज़ख़्मों को भी फूलों-सा महकते देखा
अपनी हद से कभी बाहर नहीं आया सागर
कितने दरियाओं को वर्षा में छलकते देखा
क्या अँधेरे ने उजाले को पछाड़ा है कभी
रात आई है तो तारों को चमकते देखा
४.
मन कभी घर में रहा, घर से कभी बाहर रहा
पर तुम्हारी फूल-जैसी ख़ुशबुओं से तर रहा
बर्फ की पौशाक उजली है, मगर पर्वत से पूछ
बर्फ जब पिघली तो क्या बाकी रहा? पत्थर रहा
तेरे आँचल में सही, मेरी हथेली में सही
आँधियाँ आती रहीं, लेकिन दिया जलकर रहा
सिर्फ शब्दों का दिलासा माँगने वाले थे लोग
सोचिए तो कर्ज़ किस-किस शख़्स का हम पर रहा
हौसला मरता नहीं है संकटों के दरमियाँ
हर तरफ काँटे थे लेकिन फूल तो खिलकर रहा
५.
कल का युग हो जाइये, अगली सदी हो जाइये
बात यह सबसे बड़ी है, आदमी हो जाइये
आपको जीवन में क्या होना है यह मत सोचिए
दुख में डूबे आदमी की ज़िंदगी हो जाइये
हो सके तो रास्ते की इस अँधेरी रात में
रोशनी को ढूँढि़ए मत, रोशनी हो जाइये
रेत के तूफां उठाती आ रही हैं आंधियाँ
हर मरुस्थल के लिये बहती नदी हो जाइये
जागते लम्हों में कीजे ज़िंदगी का सामना
नींद में मासूम बच्चे की हँसी हो जाइये
६.
पिघलकर पर्वतों से हमने ढल जाना नहीं सीखा
न सीखा बर्फ बनकर हमने गल जाना, नहीं सीखा
वो राही, तुम ही सोचो किस तरह पहुँचेगा मंज़िल पर
वो जिसने ठोकरें खाकर सँभल जाना नहीं सीखा
हमें आता नहीं है मोम के आकार का बनना
ज़रा-सी आँच में हमने पिघल जाना नहीं सीखा
बदलते हैं, मगर यह देखकर कितना बदलना है
हवाओं की तरह हमने बदल जाना नहीं सीखा
सफर में हर कदम हम काफिले के साथ हैं, हमने
सभी को छोडक़र आगे निकल जाना नहीं सीखा
१.
टूट जाने पर भी है बाकी किनारा किसलिये
आज तक समझा नहीं, पानी का धारा किसलिये
शहर का हिस्सा बनो तो शहर जानेगा तुम्हें
बैठकर घर में अकेलेपन का शिकवा किसलिये
उनको भी अपनाओ, जो तुममें नहीं है दोस्तो
आदमी है एक तो अपना-पराया किसलिये
प्यास किस-किसकी बुझानी है, यह सोचा है कभी
दूर तक मैदान में बहता है दरिया किसलिये
तुममें साहस ही न था, साकार क्या करते उसे
सोचते क्या हो, हुआ नाकाम सपना किसलिये
२.
हर नया मौसम नई संभावना ले आएगा
जो भी झोंका आएगा, ताज़ा हवा ले आएगा
और कब तक धूप में तपती रहेंगी बस्तियाँ
बीत जाएगी उमस सावन घटा ले जाएगा
सूखी-सूखी पत्तियों से यह निराशा किसलिए
टहनियों पर पेड़ हर पत्ता नया नया ले आएगा
यह भी सच है बढ़ रहा है घुप अँधेरा रात का
यह भी सच है वक़्त हर जुगनू नया ले आएगा
रास्ते तो इक बहाना हैं मुसाफिर के लिए
लक्ष्य तक ले जाएगा तो हौसला ले आएगा
३.
आस का रंग निराशा से झलकते देखा
राख के ढेर में अंगार चमकते देखा
दाब पड़ती है तो झुक जाती है लोहे की सलाख़
क्या किसी ने कभी पत्थर को लचकते देखा
देखना यह है कि है किसमें करिश्मा कितना
हमने ज़ख़्मों को भी फूलों-सा महकते देखा
अपनी हद से कभी बाहर नहीं आया सागर
कितने दरियाओं को वर्षा में छलकते देखा
क्या अँधेरे ने उजाले को पछाड़ा है कभी
रात आई है तो तारों को चमकते देखा
४.
मन कभी घर में रहा, घर से कभी बाहर रहा
पर तुम्हारी फूल-जैसी ख़ुशबुओं से तर रहा
बर्फ की पौशाक उजली है, मगर पर्वत से पूछ
बर्फ जब पिघली तो क्या बाकी रहा? पत्थर रहा
तेरे आँचल में सही, मेरी हथेली में सही
आँधियाँ आती रहीं, लेकिन दिया जलकर रहा
सिर्फ शब्दों का दिलासा माँगने वाले थे लोग
सोचिए तो कर्ज़ किस-किस शख़्स का हम पर रहा
हौसला मरता नहीं है संकटों के दरमियाँ
हर तरफ काँटे थे लेकिन फूल तो खिलकर रहा
५.
कल का युग हो जाइये, अगली सदी हो जाइये
बात यह सबसे बड़ी है, आदमी हो जाइये
आपको जीवन में क्या होना है यह मत सोचिए
दुख में डूबे आदमी की ज़िंदगी हो जाइये
हो सके तो रास्ते की इस अँधेरी रात में
रोशनी को ढूँढि़ए मत, रोशनी हो जाइये
रेत के तूफां उठाती आ रही हैं आंधियाँ
हर मरुस्थल के लिये बहती नदी हो जाइये
जागते लम्हों में कीजे ज़िंदगी का सामना
नींद में मासूम बच्चे की हँसी हो जाइये
६.
पिघलकर पर्वतों से हमने ढल जाना नहीं सीखा
न सीखा बर्फ बनकर हमने गल जाना, नहीं सीखा
वो राही, तुम ही सोचो किस तरह पहुँचेगा मंज़िल पर
वो जिसने ठोकरें खाकर सँभल जाना नहीं सीखा
हमें आता नहीं है मोम के आकार का बनना
ज़रा-सी आँच में हमने पिघल जाना नहीं सीखा
बदलते हैं, मगर यह देखकर कितना बदलना है
हवाओं की तरह हमने बदल जाना नहीं सीखा
सफर में हर कदम हम काफिले के साथ हैं, हमने
सभी को छोडक़र आगे निकल जाना नहीं सीखा
७.
कालिख जो कोई मन की हटाने का नहीं है
कुछ फायदा बाहर के उजाले का नहीं है
गर डोर यह टूटी तो बिखर जाएँगे मोती
मनकों का तुम्हें ध्यान है, धागे का नहीं है
करनी हैं बहुत होश की बातें अभी तुमसे
यह वक़्त अभी पी के बहकने का नहीं है
दिल हारने वालों को ही दरकार है काँधा
वैसे तो कोई अर्थ सहारे का नहीं है
मैं दीप इरादों के जलाता हूँ लहू से
अब मन में मेरे ख़ौफ अँधेरे का नहीं है
कुछ फायदा बाहर के उजाले का नहीं है
गर डोर यह टूटी तो बिखर जाएँगे मोती
मनकों का तुम्हें ध्यान है, धागे का नहीं है
करनी हैं बहुत होश की बातें अभी तुमसे
यह वक़्त अभी पी के बहकने का नहीं है
दिल हारने वालों को ही दरकार है काँधा
वैसे तो कोई अर्थ सहारे का नहीं है
मैं दीप इरादों के जलाता हूँ लहू से
अब मन में मेरे ख़ौफ अँधेरे का नहीं है
८.
चैन के पल चाहता है दुख में हर चेहरा समझ
सिर्फ मेरी ही नहीं, सबकी है ये दुनिया, समझ
एक ही परिवार है, संसार कहते हैं जिसे
ग़ैर को अपना समझ, अनजान को अपना समझ
पीडि़तों की भीगती पलकों से मत आँखें चुरा
आँख के गिरते हुए आँसू को भी दरिया समझ
हो न हो, उसको भी है सूरज का जैसे इंतज़ार
जागता रहता है क्यों, यह सुब्ह का तारा समझ
दोस्त, ये पतझर का मौसम, सामयिक है, जाएगा
हर बसंती रुत का अब जा-जा के लौट आना समझ
सिर्फ मेरी ही नहीं, सबकी है ये दुनिया, समझ
एक ही परिवार है, संसार कहते हैं जिसे
ग़ैर को अपना समझ, अनजान को अपना समझ
पीडि़तों की भीगती पलकों से मत आँखें चुरा
आँख के गिरते हुए आँसू को भी दरिया समझ
हो न हो, उसको भी है सूरज का जैसे इंतज़ार
जागता रहता है क्यों, यह सुब्ह का तारा समझ
दोस्त, ये पतझर का मौसम, सामयिक है, जाएगा
हर बसंती रुत का अब जा-जा के लौट आना समझ