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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

ओम प्रकाश यती

जन्म- ३ दिसंबर १९५९ को छिब्बी गाँव, जिला बलिया, उत्तरप्रदेश,प्रकाशित कृतियाँ-बाहर छाया भीतर धूप (ग़ज़ल संग्रह)

१.
इक नई कशमकश से गुज़रते रहे
रोज़ जीते रहे रोज़ मरते रहे

हमने जब भी कही बात सच्ची कही
इसलिए हम हमेशा अखरते रहे

कुछ न कुछ सीखने का ही मौक़ा मिला
हम सदा ठोकरों से सँवरते रहे

रूप की कल्पनाओं में दुनिया रही
खुशबुओं की तरह तुम बिखरते रहे

ज़िन्दगी की परेशानियों से “यती”
लोग टूटा किये, हम निखरते रहे


२.
इक नई कशमकश से गुज़रते रहे
रोज़ जीते रहे रोज़ मरते रहे

हमने जब भी कही बात सच्ची कही
इसलिए हम हमेशा अखरते रहे

कुछ न कुछ सीखने का ही मौक़ा मिला
हम सदा ठोकरों से सँवरते रहे

रूप की कल्पनाओं में दुनिया रही
खुशबुओं की तरह तुम बिखरते रहे

ज़िन्दगी की परेशानियों से “यती”
लोग टूटा किये, हम निखरते रहे


३.
दिल में सौ दर्द पाले बहन -बेटियाँ
घर में बाँटें उजाले बहन -बेटियाँ

कामना एक मन में सहेजे हुए
जा रही हैं शिवाले बहन - बेटियाँ

ऐसी बातें कि पूरे सफर चुप रहीं
शर्म की शाल डाले बहन - बेटियाँ

हो रहीं शादियों के बहाने बहुत
भेड़ियों के हवाले बहन - बेटियाँ

गाँव -घर की निगाहों के दो रूप हैं
को कैसे संभाले बहन - बेटियाँ


४.
बहुत नज़दीक का भी साथ सहसा छूट जाता है
पखेरू फुर्र हो जाता है पिंजरा छूट जाता है

कभी मुश्किल से मुश्किल काम हो जाते हैं चुटकी में
कभी आसान कामों में पसीना छूट जाता है

छिपाकर दोस्तों से अपनी कमज़ोरी को मत रखिए
बहुत दिन तक नहीं टिकता मुलम्मा छूट जाता है

भले ही बेटियों का हक़ है उसके कोने-कोने पर
मगर दस्तूर है बाबुल का अँगना छूट जाता है

भरे परिवार का मेला लगाया है यहाँ जिसने
वही जब शाम होती है तो तन्हा छूट जाता है


५.
बुरे की हार हो जाती है अच्छा जीत जाता है
मगर इस दौर में देखा है पैसा जीत जाता है

बड़ों के कहकहे ग़ायब, बड़ों की मुस्कराहट गुम
हँसी की बात आती है तो बच्चा जीत जाता है

यहाँ पर टूटते देखे हैं हमने दर्प शाहों के
फ़क़ीरी हो अगर मन में तो कासा जीत जाता है

खड़ी हो फ़ौज चाहे सामने काले अंधेरों की
मगर उससे तो इक दीपक अकेला जीत जाता है

हमेशा जीत निश्चित तो नहीं है तेज़ धावक की
रवानी हो जो जीवन में तो कछुवा जीत जाता है

ये भोजन के लिए दौड़ी वो जीवन के लिए दौड़ा
तभी इस दौड़ में बिल्ली से चूहा जीत जाता है


६.
कितने टूटे, कितनों का मन हार गया
रोटी के आगे हर दर्शन हार गया

ढूँढ रहा है रद्दी में क़िस्मत अपनी
खेल-खिलौनों वाला बचपन हार गया

ये है जज़्बाती रिश्तों का देश, यहाँ
विरहन के आँसू से सावन हार गया

मन को ही सुंदर करने की कोशिश कर
अब तू रोज़ बदल कर दर्पन हार गया

ताक़त के सँग नेक इरादे भी रखना
वर्ना ऐसा क्या था रावन हार गया


७.
छीन लेगी नेकियाँ ईमान को ले जाएगी
भूख दौलत की कहाँ इंसान को ले जाएगी

आधुनिकता की हवा अब तेज़ आँधी बन गई
सोचता हूँ किस तरफ़ संतान को ले जाएगी

शहर की आहट हमें सड़कें दिखाएगी नई
फिर हमारे खेत को, खलिहान को ले जाएगी

बेचकर गुर्दे, असीमित धन कमाने की हवस
किस जगह इस दूसरे भगवान को ले जाएगी

सिन्धु हो, सुरसा हो, कुछ हो किन्तु इच्छाशक्ति तो
हैं जहाँ सीता वहाँ हनुमान को ले जाएगी

गाँव की बोली तुझे शर्मिंदगी देने लगी
ये बनावट ही तेरी पहचान को ले जाएगी


८.
हँसी को और खुशियों को हमारे साथ रहने दो
अभी कुछ देर सपनों को हमारे साथ रहने दो

तुम्हें फ़ुरसत नहीं तो जाओ बेटा,आज ही जाओ
मगर कुछ रोज़‌‌ बच्चों को हमारे साथ रहने दो

हरा सब कुछ नहीं है इस धरा पर, हम दिखा देंगे
ज़रा सावन के अन्धों को हमारे साथ रहने दो

ये जंगल कट गए तो किसके साए में गुज़र होगी
हमेशा इन बुज़ुर्गों को हमारे साथ रहने दो

ग़ज़ल में, गीत में, मुक्तक में ढल जाएँगे ये इक दिन
भटकते फिरते शब्दों को हमारे साथ रहने दो


९.
छिपे हैं मन में जो भगवान से वो पाप डरते हैं
डराता वो नहीं है लोग अपने आप डरते हैं

यहाँ अब आधुनिक संगीत का ये हाल है यारो
बहुत उस्ताद भी भरते हुए आलाप डरते हैं

कहीं बैठा हुआ हो भय हमारे मन के अन्दर तो
सुनाई मित्र की भी दे अगर पदचाप, डरते हैं

निकल जाती है अक्सर चीख जब डरते हैं सपनों में
हक़ीक़त में तो ये होता है हम चुपचाप डरते हैं

नतीजा देखिये उम्मीद के बढते दबावों का
उधर सन्तान डरती है इधर माँ-बाप डरते हैं


१०.
नज़र में आज तक मेरी कोई तुझसा नहीं निकला
तेरे चेहरे के अन्दर दूसरा चेहरा नहीं निकला

कहीं मैं डूबने से बच न जाऊँ, सोचकर ऐसा
मेरे नज़दीक से होकर कोई तिनका नहीं निकला

ज़रा सी बात थी और कशमकश ऐसी कि मत पूछो
भिखारी मुड़ गया और जेब से सिक्का नहीं निकला

सड़क पर चोट खाकर आदमी ही था गिरा लेकिन
गुज़रती भीड़ का उससे कोई रिश्ता नहीं निकला

जहाँ पर ज़िन्दगी की यू कहें खैरात बँटती थी
उसी मन्दिर से कल देखा कोई ज़िन्दा नहीं निकला