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सन्देश

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और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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सोमवार, 7 जनवरी 2013

मुग़नी तबस्सुम

(1930 - 2012)

1.
अज़ाब हो गई ज़ंजीर-ए-दस्त-ओ-पा मुझ को
जो हो सके तो कहीं दार पे चढ़ा मुझ को
तरस गया हूँ मैं सूरज के रोशनी के लिए
वो दी है साया-ए-दीवार ने सज़ा मुझ को
जो देखे तो इसी से है ज़िंदगी मेरे
मगर मिटा भी रही है यही हवा मुझ को
उसी नज़र ने मुझे तोड़ कर बिखेर दिया
उसी नज़र ने बनाया था आईना मुझ को
सराब-ए-उम्र-ए-तमन्ना की तिश्नगी हूँ मैं
अगर है चश्मा-ए-फैयाज़ तो बुझा मुझ को
कभी तो अपने बदन के चराग़ रौशन कर
कभी तो अपने लहू से भी आज़मा मुझ को
2.
फ़ज़ा में नग़मा-ए-आवाज़ पा है मेरे लिए
कराँ से ता-ब-कराँ इक निदा है मेरे लिए
मैं अपनी ज़ात में लौटा तो फिर मिला न मुझे
वो एक शख़्स जो रोता रहा है मेरे लिए
सबब है रंज का कुछ ख़ू-ए-इज़्तिराब मेरी
कुछ अपने आप से भी वो खफ़ा है मेरे लिए
फ़लक तमाम आगोश-ए-बाब-ए-महरूमी
शजर शजर यहाँ दस्त-ए-दुआ है मेरे लिए
किसी फ़िराक़ की तम्हीद बन के रह जाना
तेरे विसाल की तस्कीं भी क्या है मेरे लिए
3.
रंज-ए-गिरान-ए-शौक़ का हासिल न कह इसे
तर्क-ए-सफ़र किया है तू मंज़िल न कह इसे
ये ज़ब्त ज़ब्त-ए-ग़म नहीं इक बेदिली सी है
ये दिल हरीफ़-ए-दर्द नहीं दिल न कह इसे
तुग़यानीयाँ कुछ और हैं मौजों में रेत की
मैं डूबता हूँ इशरत-ए-साहिल न कह इसे
मरता नहीं हूँ मौत की बे-हासिली पे मैं
जीता अगर हूँ उल्फ़त-ए-हासिल न कह इसे
मिलना सफ़र का और बिछड़ना सफ़र का है
दुनिया तो रह-गुज़ार है महफ़िल न कह इसे
4.
नाम ही रह गया इक अंजुमन-आराई का
छुप गया चाँद भी अब तो शब-ए-तन्हाई का
दिल से जाती नहीं ठहरे हुए क़दमों की सदा
आँख ने स्वांग रचा रखा है बीनाई
एक इक याद को आहों से जलाता जाऊँ
काम सौंपा है अजब उस ने मसीहाई का
अब न वो लम्स निगाहों का न ख़ुश-बू की सदा
दिल ने देखा था मगर ख़्वाब शनासाई का
साअत-ए-दर्द फ़िरोज़ाँ है बहा लें आँसू
टूटने को है कड़ा वक़्त शकीबाई का
5.
क्या कोई दर्द दिल के मुक़ाबिल नहीं रहा
या एक भी दिल दर्द के क़ाबिल नहीं रहा
उन के लहू की दहर में अर्ज़ानियाँ न पूछ
जिन का गवाह दामन-ए-क़ातिल नहीं रहा
अपनी तलाश है हमें आँखों के शहर में
आईना जब से अपने मुक़ाबिल नहीं रहा
सर-गर्मी-ए-हयात है बे-मक़्सद-ए-हयात
सब रह नवर्द-ए-शौक़ हैं महमिल नहीं रहा
उस का ख़याल आता है अपने ख़याल से
अब वो भी अपनी याद में शामिल नहीं रहा
6.
छुपा रखा था यूँ ख़ुद को कमाल मेरा था
किसी पे खुल नहीं पाया जो हाल मेरा था
हर एक पा-ए-शिकस्ता में थी मेरी ज़ंजीर
हर एक दस्त-ए-तलब में सवाल मेरा था
मैं रेज़ा रेज़ा बिखरता चला गया ख़ुद ही
के अपने आप से बचना मुहाल मेरा था
हर एक सम्त से संग-ए-सदा की बारिश थी
मैं चुप रहा के यही कुछ मआल मेरा था
ता ख़याल था ताज़ा हवा के झोंके में
जो गर्द उड़ा के गई है मलाल मेरा था
मैं रो पड़ा हूँ तबस्सुम सियाह रातों में
ग़ुरुब-ए-माह में शायद ज़वाल मेरा था