देहान्त : ३० दिसम्बर, १९७५
जीवनी: दुष्यंत कुमार त्यागीएक हिन्दी कवि और ग़ज़लकार थे।दुष्यंत कुमार उत्तर प्रदेश के बिजनौर के रहने वाले थे । जिस समय दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर राज था । हिन्दी में भी उस समय अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन कविताओं का बोलबाला था । उस समय आम आदमी के लिए नागार्जुन तथा धूमिल जैसे कुछ कवि ही बच गए थे। इस समय सिर्फ़ ४२ वर्ष के जीवन में दुष्यंत कुमार ने अपार ख्याति अर्जित की ।
प्रकाशित कृतियाँ : काव्यसंग्रह : सूर्य का स्वागत, आवाजों के घेरे, जलते हुए वन का वसन्त।गज़ल-संग्रह : साये में धूप.१.
कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।
न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए।
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए।
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए।
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए।
जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।
२.
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।
वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको
क़ायदे-क़ानून समझाने लगे हैं।
एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है
जिसमें तहख़ानों में तहख़ाने लगे हैं।
मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने
उस तरफ़ जाने से क़तराने लगे हैं।
मौलवी से डाँट खा कर अहले-मक़तब
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं।
अब नई तहज़ीब के पेशे-नज़र हम
आदमी को भूल कर खाने लगे हैं।
३.
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है।
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।
पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है।
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है।
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है।
दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है।
४.
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
५.
एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली—पहली बार उड़ा
मौसम एक गुलेल लिये था पट—से नीचे आन गिरा।
बंजर धरती, झुलसे पौधे, बिखरे काँटे तेज़ हवा
हमने घर बैठे—बैठे ही सारा मंज़र देख किया।
चट्टानों पर खड़ा हुआ तो छाप रह गई पाँवों की
सोचो कितना बोझ उठा कर मैं इन राहों से गुज़रा।
सहने को हो गया इकठ्ठा इतना सारा दुख मन में
कहने को हो गया कि देखो अब मैं तुझ को भूल गया।
धीरे— धीरे भीग रही हैं सारी ईंटें पानी में
इनको क्या मालूम कि आगे चल कर इनका क्या होगा।
६.
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
घ्रर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख।
एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख।
अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह,
यह हक़ीक़त देख लेकिन खौफ़ के मारे न देख।
वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख।
ये धुंधलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख।
राख कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई,
राख में चिनगारियां ही देख अंगारे न देख।
७.
ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है
एक भी क़द आज आदमक़द नहीं है
राम जाने किस जगह होंगे क़बूतर
इस इमारत में कोई गुम्बद नहीं है
आपसे मिल कर हमें अक्सर लगा है
हुस्न में अब जज़्बा-ए-अमज़द नहीं है
पेड़-पौधे हैं बहुत बौने तुम्हारे
रास्तों में एक भी बरगद नहीं है
मैकदे का रास्ता अब भी खुला है
सिर्फ़ आमद-रफ़्त ही ज़ायद नहीं है
इस चमन को देख कर किसने कहा था
एक पंछी भी यहाँ शायद नहीं है
८.
जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो
अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो
दर्दे-दिल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुँचाएगा
इस क़बूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो
लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे
आज सैयाद को महफ़िल में बुला लो यारो
आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे
आज संदूक से वो ख़त तो निकालो यारो
रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो
कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की
तुमने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो
९.
खंडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही
अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही
कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप
जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही
हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया
हमपर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही
मेरे चमन में कोई नशेमन नहीं रहा
या यूँ कहो कि बर्क़ की दहशत नहीं रही
हमको पता नहीं था हमें अब पता चला
इस मुल्क में हमारी हक़ूमत नहीं रही
कुछ दोस्तों से वैसे मरासिम नहीं रहे
कुछ दुशमनों से वैसी अदावत नहीं रही
हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग
रो-रो के बात कहने की आदत नहीं रही
सीने में ज़िन्दगी के अलामात हैं अभी
गो ज़िन्दगी की कोई ज़रूरत नहीं रही
१०.
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं
वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको
क़ायदे-क़ानून समझाने लगे हैं
एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है
जिसमें तहख़ानों में तहख़ाने लगे हैं
मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने
उस तरफ़ जाने से क़तराने लगे हैं
मौलवी से डाँट खा कर अहले-मक़तब
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं
अब नई तहज़ीब के पेशे-नज़र हम
आदमी को भूल कर खाने लगे हैं
११.
कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए ।
जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए ।
खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए ।
दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए ।
लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए ।
ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है
यहाँ बबूल के साए में आके बैठ गए ।
१२.
मैं जिसे ओढ़ता -बिछाता हूँ ,
वो गज़ल आपको सुनाता हूँ |
एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ |
तू किसी रेल सी गुजरती है ,
मैं किसी पुल -सा थरथराता हूँ |
हर तरफ़ एतराज़ होता है ,
मैं अगर रोशनी में आता हूँ |
एक बाजू उखड़ गया जब से ,
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ |
मैं तुझे भूलने की कोशिश में ,
आज कितने करीब पाता हूँ |
कौन ये फासला निभाएगा ,
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ |
१३.
तुम्हारे पाँवों के नीचे कोई ज़मीन नहीं ,
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं |
मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं |
तेरी जुबान है झूठी जम्हूरियत की तरह
तू एक ज़लील सी गाली से बेहतरीन नहीं |
तुम्हीं से प्यार जताएँ तुम्हीं को खा जायें ,
अदीब यों तो सियासी है पर कमीन नहीं |
तुझे क़सम है खुदी को बहुत हलाक न कर ,
तू इस मशीन का पुर्ज़ा है ,तू मशीन नहीं |
बहुत मशहूर हैं आयें जरुर आप यहाँ
ये मुल्क देखने के लायक़ तो है ,हसीन नहीं |
ज़रा सा तौर -तरीकों में हेर -फेर करो ,
तुम्हारे हाथ में कालर हो आस्तीन नहीं |
१४.
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा |
यहाँ तक आते -आते सूख जाती हैं कई नदियाँ ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा |
ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत कि आहट नहीं सुनते,
वो सब -के -सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा |
तुम्हारे शहर में ये शोर सुन -सुनकर तो लगता है ,
कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा |
कई फ़ाके बिताकर मर गया ,जो उसके बारे में ,
वो सब कहते हैं अब ऐसा नहीं ,ऐसा हुआ होगा |
यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं ,
खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा |
चलो अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें ,
कम -अज़ -कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा |
१५.
बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं ,
और नदियों के किनारे घर बने हैं |
चीड़ -वन में आंधियों की बात मत कर,
इन दरख्तों के बहुत नाजुक तने हैं |
इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं है ,
जिस तरह टूटे हुए ये आईने हैं |
आपके कालीन देखेंगे किसी दिन ,
इस समय तो पाँव कीचड़ में सने हैं |
जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में
हम नहीं हैं आदमी ,हम झुनझने हैं |
अब तड़पती सी गज़ल कोई सुनाए ,
हमसफ़र ऊँघे हुए हैं ,अनमने हैं |
१६.
इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है
एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो
इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है
एक खँडहर के हृदय-सी,एक जंगली फूल-सी
आदमी की पीर गूँगी ही सही, गाती तो है
एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी
यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है
निर्वसन मैदान में लेटी हुई है जो नदी
पत्थरों से ओट में जा-जा के बतियाती तो है
दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है
१७.
देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वालीये ख़तरनाक सचाई नहीं जाने वाली
कितना अच्छा है कि साँसों की हवा लगती है
आग अब उनसे बुझाई नहीं जाने वाली
एक तालाब-सी भर जाती है हर बारिश में
मैं समझता हूँ ये खाई नहीं जाने वाली
चीख़ निकली तो है होंठों से मगर मद्धम है
बंद कमरों को सुनाई नहीं जाने वाली
तू परेशान है, तू परेशान न हो
इन ख़ुदाओं की ख़ुदाई नहीं जाने वाली
आज सड़कों पे चले आओ तो दिल बहलेगा
चन्द ग़ज़लों से तन्हाई नहीं जाने वाली
१८.
परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैंहवा में सनसनी घोले हुए हैं
तुम्हीं कमज़ोर पड़ते जा रहे हो
तुम्हारे ख़्वाब तो शोले हुए हैं
ग़ज़ब है सच को सच कहते नहीं वो
क़ुरान—ओ—उपनिषद् खोले हुए हैं
मज़ारों से दुआएँ माँगते हो
अक़ीदे किस क़दर पोले हुए हैं
हमारे हाथ तो काटे गए थे
हमारे पाँव भी छोले हुए हैं
कभी किश्ती, कभी बतख़, कभी जल
सियासत के कई चोले हुए हैं
हमारा क़द सिमट कर मिट गया है
हमारे पैरहन झोले हुए हैं
चढ़ाता फिर रहा हूँ जो चढ़ावे
तुम्हारे नाम पर बोले हुए हैं
१९.
अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँतुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ
ये दरवाज़ा खोलें तो खुलता नहीं है
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ
अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ
वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ
मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब
तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ
समालोचकों की दुआ है कि मैं फिर
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ
२०.
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ ।
मौत ने तो धर दबोचा एक चीते कि तरह
ज़िंदगी ने जब छुआ तो फ़ासला रखकर छुआ ।
गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही
पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बददुआ ।
क्या वज़ह है प्यास ज्यादा तेज़ लगती है यहाँ
लोग कहते हैं कि पहले इस जगह पर था कुँआ ।
आप दस्ताने पहनकर छू रहे हैं आग को
आप के भी ख़ून का रंग हो गया है साँवला ।
इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
जब तलक खिलते नहीं ये कोयले देंगे धुँआ ।
दोस्त, अपने मुल्क कि किस्मत पे रंजीदा न हो
उनके हाथों में है पिंजरा, उनके पिंजरे में सुआ ।
इस शहर मे वो कोई बारात हो या वारदात
अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ ।
२१.
ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगोकि जैसे जल में झलकता हुआ महल, लोगो
दरख़्त हैं तो परिन्दे नज़र नहीं आते
जो मुस्तहक़ हैं वही हक़ से बेदख़ल, लोगो
वो घर में मेज़ पे कोहनी टिकाये बैठी है
थमी हुई है वहीं उम्र आजकल ,लोगो
किसी भी क़ौम की तारीख़ के उजाले में
तुम्हारे दिन हैं किसी रात की नकल ,लोगो
तमाम रात रहा महव-ए-ख़्वाब दीवाना
किसी की नींद में पड़ता रहा ख़लल, लोगो
ज़रूर वो भी किसी रास्ते से गुज़रे हैं
हर आदमी मुझे लगता है हम शकल, लोगो
दिखे जो पाँव के ताज़ा निशान सहरा में
तो याद आए हैं तालाब के कँवल, लोगो
वे कह रहे हैं ग़ज़लगो नहीं रहे शायर
मैं सुन रहा हूँ हर इक सिम्त से ग़ज़ल, लोगो.
२२.
मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिएऐसा भी क्या परहेज़, ज़रा—सी तो लीजिए
अब रिन्द बच रहे हैं ज़रा तेज़ रक़्स हो
महफ़िल से उठ लिए हैं नमाज़ी तो लीजिए
पत्तों से चाहते हो बजें साज़ की तरह
पेड़ों से पहले आप उदासी तो लीजिए
ख़ामोश रह के तुमने हमारे सवाल पर
कर दी है शहर भर में मुनादी तो लीजिए
ये रौशनी का दर्द, ये सिरहन ,ये आरज़ू,
ये चीज़ ज़िन्दगी में नहीं थी तो लीजिए
फिरता है कैसे—कैसे सवालों के साथ वो
उस आदमी की जामातलाशी तो लीजिए.
२३.
पुराने पड़ गये डर, फेंक दो तुम भी
ये कचरा आज बाहर फेंक दो तुम भी
लपट आने लगी है अब हवाओं में
ओसारे और छप्पर फेंक दो तुम भी
यहाँ मासूम सपने जी नहीं पाते
इन्हें कुंकुम लगा कर फेंक दो तुम भी
तुम्हें भी इस बहाने याद कर लेंगे
इधर दो—चार पत्थर फेंक दो तुम भी
ये मूरत बोल सकती है अगर चाहो
अगर कुछ बोल कुछ स्वर फेंक दो तुम भी
किसी संवेदना के काम आएँगे
यहाँ टूटे हुए पर फेंक दो तुम भी.
२४.
चांदनी छत पे चल रही होगी अब अकेली टहल रही होगी
फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा
बर्फ़-सी वो पिघल रही होगी
कल का सपना बहुत सुहाना था
ये उदासी न कल रही होगी
सोचता हूँ कि बंद कमरे में
एक शमअ-सी जल रही होगी
तेरे गहनों सी खनखनाती थी
बाजरे की फ़सल रही होगी
जिन हवाओं ने तुझ को दुलराया
उन में मेरी ग़ज़ल रही होगी
२५.
इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम औरया इसमें रौशनी का करो इन्तज़ाम और
आँधी में सिर्फ़ हम ही उखड़ कर नहीं गिरे
हमसे जुड़ा हुआ था कोई एक नाम और
मरघट में भीड़ है या मज़ारों में भीड़ है
अब गुल खिला रहा है तुम्हारा निज़ाम और
घुटनों पे रख के हाथ खड़े थे नमाज़ में
आ—जा रहे थे लोग ज़ेह्न में तमाम और
हमने भी पहली बार चखी तो बुरी लगी
कड़वी तुम्हें लगेगी मगर एक जाम और
हैराँ थे अपने अक्स पे घर के तमाम लोग
शीशा चटख़ गया तो हुआ एक काम और
उनका कहीं जहाँ में ठिकाना नहीं रहा
हमको तो मिल गया है अदब में मुकाम और.
२६.
मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगेमेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएँगे
हौले—हौले पाँव हिलाओ,जल सोया है छेड़ो मत
हम सब अपने—अपने दीपक यहीं सिराने आएँगे
थोड़ी आँच बची रहने दो, थोड़ा धुआँ निकलने दो
कल देखोगी कई मुसाफ़िर इसी बहाने आएँगे
उनको क्या मालूम विरूपित इस सिकता पर क्या बीती
वे आये तो यहाँ शंख-सीपियाँ उठाने आएँगे
रह—रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी
आगे और बढ़ें तो शायद दृश्य सुहाने आएँगे
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे
हम क्या बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गए
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जाएँगे.
२७.
अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाएतेरी सहर हो मेरा आफ़ताब हो जाए
हुज़ूर! आरिज़ो-ओ-रुख़सार क्या तमाम बदन
मेरी सुनो तो मुजस्सिम गुलाब हो जाए
उठा के फेंक दो खिड़की से साग़र-ओ-मीना
ये तिशनगी जो तुम्हें दस्तयाब हो जाए
वो बात कितनी भली है जो आप करते हैं
सुनो तो सीने की धड़कन रबाब हो जाए
बहुत क़रीब न आओ यक़ीं नहीं होगा
ये आरज़ू भी अगर कामयाब हो जाए
ग़लत कहूँ तो मेरी आक़बत बिगड़ती है
जो सच कहूँ तो ख़ुदी बेनक़ाब हो जाए.
२८.
अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरारघर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार
आप बच कर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं
रहगुज़र घेरे हुए मुर्दे खड़े हैं बेशुमार
रोज़ अखबारों में पढ़कर यह ख़्याल आया हमें
इस तरफ़ आती तो हम भी देखते फ़स्ले—बहार
मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं
बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार
इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके—जुर्म हैं
आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फ़रार
हालते—इन्सान पर बरहम न हों अहले—वतन
वो कहीं से ज़िन्दगी भी माँग लायेंगे उधार
रौनक़े-जन्नत ज़रा भी मुझको रास आई नहीं
मैं जहन्नुम में बहुत ख़ुश था मेरे परवरदिगार
दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर
हर हथेली ख़ून से तर और ज़्यादा बेक़रार
२९.
होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखियेइस पर कटे परिंदे की कोशिश तो देखिये
गूँगे निकल पड़े हैं, ज़ुबाँ की तलाश में
सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिये
बरसात आ गई तो दरकने लगी ज़मीन
सूखा मचा रही है ये बारिश तो देखिये
उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें
चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिये
जिसने नज़र उठाई वही शख़्स गुम हुआ
इस जिस्म के तिलिस्म की बंदिश तो देखिये
३०.
किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हमकिसी का हाथ उठ्ठा और अलकों तक चला आया
वो बरगश्ता थे कुछ हमसे उन्हें क्योंकर यक़ीं आता
चलो अच्छा हुआ एहसास पलकों तक चला आया
जो हमको ढूँढने निकला तो फिर वापस नहीं लौटा
तसव्वुर ऐसे ग़ैर—आबाद हलकों तक चला आया
लगन ऐसी खरी थी तीरगी आड़े नहीं आई
ये सपना सुब्ह के हल्के धुँधलकों तक चला आया
३१.
वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान हैमाथे पे उसके चोट का गहरा निशान है
वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है
सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर
झोले में उसके पास कोई संविधान है
उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप
वो आदमी नया है मगर सावधान है
फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए
हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है
देखे हैं हमने दौर कई अब ख़बर नहीं
पैरों तले ज़मीन है या आसमान है
वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेज़ुबान है