परिचय:
फतेहगढ़ उत्तर प्रदेश में जन्मे अब्बास रज़ा अलवी ने फतेहगढ़, अलीगढ़ विश्वविद्यालय व मास्को में शिक्षा प्राप्त की। आजकल आस्ट्रेलिया के नागरिक अब्बास रज़ा अलवी सिडनी में आयात निर्यात का व्यवसाय कर रहे हैं। अस्ट्रेलिया में इंडिया चेम्बर आफ़ कामर्सके अध्यक्ष है।
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१.
फ़िसादो दर्द और दहशत में जीना
मिला यह आदमी को आदमी से
बुरा कहते हैं हम क्यों किस्मतों को
बढ़ी हैं रंजिशें अपनी कमी से
वतन ऐसा जलाया बिजलियों ने
सहम जाते हैं अब हम रोशनी से
जहाँ गुज़रा था एक बचपन सुहाना
वह दर छूटा है कितनी बेदिली से
न जब कोई तुम्हारे पास होगा
बहुत पछताओगे मेरी कमी से
कभी तो यह हक़ीकत मान लोगे
तुम्हें चाहा है मैंने सादगी से
हुई सब ग़र्क़ वो ख़्वाहिश ‘रज़ा’ की
सुनाएँ किया तुम्हें अपनी ख़ुशी से
२.
छोटी सी बिगड़ी बात को सुलझा रहे हैं लोग
ये और बात है कि यूँ, उलझा रहे हैं लोग
चर्चा तुम्हारा बज़्म में ग़ैरों के इर्द-गिर्द
कुछ इस तरह से दिल मेरा बहला रहे हैं लोग
अरमां नये, साहिल नये, सब सिलसिले नये
उजड़े हुए दयार से, दिखला रहे हैं लोग
कहते हैं कभी इश्क़ था, अब रख-रखाओ है
फिर आज क्यों यूँ देख कर, शर्मा रहे हैं लोग
हमने ख़ुद अपने ज़ुर्म का इकरार कर लिया
अब क्यों ”रज़ा” से इस क़दर कतरा रहे हैं लोग
३.
फिर किसी आवाज़ ने इस बार पुकारा मुझको
ख़ौफ़ और दर्द ने क्योंकर यूँ झिंझोड़ा मुझको
मैं सोया हुआ था ख़ाक़ के उस बिस्तर पर
जिस पर हर जिस्म नयी ज़िन्दगी ले लेता है
बस ख्यालों में नहीं असल में सो लेता है
आँख खुलते ही एक मौत का मातम देखा
अपने ही शहर में दहशत भरा आलम देखा
किस क़दर ख़ौफ़ ज़दा चीख़ा की आवाज़ थी वो
बूढ़ी बेवा की दम तोड़ती औलाद थी वो
एक बिलखते हुये मासूम की किलकार थी वो
कुछ यतीमों की सिसकती हुई फ़रियाद थी वो
मुझको याद आया फिर एक बार वो बचपन मेरा
कुहरे की धुंध में लिपटा हुआ सपना मेरा
तब हम एक थे इन्सानियत की छाँव तले
अब हम अनेक हैं हैवानियत के पाँव तले
तब हम सोचते थे सब्ज़ और ख़ुशहाल वतन
अब हम देखते हैं ग़र्क और लाचार वतन
तब फूल थे खुशियाँ थीं और हम सब थे
अब भूख है ग़मगीरी और हम या तुम
तब तो जीते थे हम और तुम हम सबके लिये
अब तो मरते हैं हम और तुम सिर्फ़अपने लिये
अब न वो इन्सान रहा और न वो भगवान रहा
बस दूर ही दूर तक फैला हुआ हैवान रहा
देख लो सोचलो शायद सम्भल पाओगे
क्यों जुदा करते हे रुह से जिस्म “रज़ा”
क्या कभी इस तरह तुम चैन से सो पाओगे