जन्म-०३ जुलाई १९७५,मंसूरगंज,बहराइच,उत्तर प्रदेश,आखों में आब रहने दे (गजल संग्रह ), जनकवि बंशीधर शुक्ल का खडी बोली काव्य (शोध प्रबंध ), इमेल – yogishams@yahoo.com.http://dinesh-tripathi.blogspot.ae/
(एक)
रहनुमाओं में तिज़ारत का हुनर क्या खूब है ,
एक लम्हा गुजार कर आये ,
ज़िन्दगी एक तुझसे निभ जाये ,
आज़ ही हम बज़ार में पहुंचे ,
ख़्वाहिश-ए-दिल हज़ार बार मरे ,
(एक)
आईने पर यक़ीन रखते हैं ,
वो जो चेहरा हसीन रखते हैं .
आंख में अर्श की बुलन्दी है ,
दिल में लेकिन ज़मीन रखते हैं .
दीन-दुखियों का है खुदा तब तो ,
आओ हम खुद को दीन रखते हैं .
जिनके दम पर है आपकी रौनक ,
उनको फिर क्यों मलीन रखते हैं .
विषधरों के नगर में रहना है ,
हम विवश होके बीन रखते है .
ये सियासत की फ़िल्म है जिसमें ,
सिर्फ़ वादों के सीन रखतें हैं
(दो)
एक झूठी मुस्कुराह्ट को खुशी कहते रहे ,
सिर्फ़ जीने भर को हम क्यों ज़िन्दगी कहते रहे .
लोग प्यासे कल भी थे हैं आज भी प्यासे बहुत ,
फिर भी सब सहरा को जाने क्यों नदी कहते रहे .
हम तो अपने आप को ही ढूंढते थे दर-ब-दर ,
लोग जाने क्या समझ आवारगी कहते रहे .
अब हमारे लब खुले तो आप यूं बेचैन हैं ,
जबकि सदियों चुप थे हम बस आप ही कहते रहे .
रहनुमाओं में तिज़ारत का हुनर क्या खूब है ,
तीरगी दे करके हमको रोशनी कहते रहे .
(तीन)
एक लम्हा गुजार कर आये ,
या कि सदियों को पार कर आये .
जीत के सब थे दावेदार मगर ,
एक हम थे कि हारकर आये .
आईने सब खिलाफ़ थे लेकिन ,
पत्थरों से क़रार कर आये .
ज़िन्दगी एक तुझसे निभ जाये ,
खुद से धोखे हज़ार कर आये .
आज़ ही हम बज़ार में पहुंचे ,
आज ही हम उधार कर आये .
अपने दामन को खुद रफ़ू करके ,
खुद की फिर तार-तार कर आये .
तेरी महफ़िल में‘शम्स’ जो आये ,
ग़म की चादर उतार कर आये .
(चार)
ख़्वाहिश-ए-दिल हज़ार बार मरे ,
पर न इक बार भी किरदार मरे .
प्यार गुलशन करे है दोनो से ,
न तो गुल और न ही ख़ार मरे .
चल पड़े तो किसी की जान मरे ,
न चले तो छुरी की धार मरे .
ताप तन का उतर भी जाये मगर ,
कैसे मन पर चढा बुखार मरे .
ज़िन्दगी तू है अब तलक ज़िन्दा ,
मौत के दांव बेशुमार मरे .