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सन्देश

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और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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बुधवार, 16 जनवरी 2013

मनोहर शर्मा 'साग़र' पालमपुरी

जन्म: 25 जनवरी 1929 को गाँव झुनमान सिंह, तहसील शकरगढ़,निधन: 30 अप्रैल 1996
१.

अब क्या बताएँ क्या हुए चिड़ियों के घोंसले
तूफ़ाँ की नज़्र हो गए चिड़ियों के घोंसले

हर घर के ही दरीचों छतों में छुपे हैं साँप
महफ़ूज़ अब नहीं रहे चिड़ियों के घोंसले

पीपल के उस दरख़्त के कटने की देर थी
आबाद फिर न हो सके चिड़ियों के घोंसले

जब से हुए हैं सूखे से खलिहान बे-अनाज
लगते हैं कुछ उदास- से चिड़ियों के घोंसले

बढ़ता ही जा रहा है जो धरती पे दिन-ब-दिन
उस शोर-ओ-गुल में खो गये चिड़ियों के घोंसले

पतझड़ में कुछ लुटे तो कुछ उजड़े बहार में
सपनों की बात हो गये चिड़ियों के घोंसले

बनने लगे हैं जब से मकाँ कंकरीट के
तब से हैं दर-ब-दर हुए चिड़ियों के घोंसले

तारीख़ है गवाह कि फूले-फले बहुत
जो आँधियों से बच गए चिड़ियों के घोंसले

जब बज उठा शहर की किसी मिल का सायरन
‘साग़र’ को याद आ गये चिड़ियों के घोंसले


२.
वो बस के मेरे दिल में भी नज़रों से दूर था
दुनिया का था क़ुसूर न उसका क़ुसूर था

हम खो गये थे ख़ुद ही किसी की तलाश में
ये हादसा भी इश्क़ में होना ज़रूर था

गर्दन झुकी तो थी तेरे दीदार के लिये
देखा मगर तो शीशा-ए-दिल चूर-चूर था

बदली जो रुत तो शाम-ओ-सहर खिलखिला उठे
मंज़र वो दिलनवाज़ ख़ुदा का ज़हूर था

उसके बग़ैर कुछ भी दिखाई न दे मुझे
कैसे कहूँ वो मेरी निगाहों का नूर था

कल तक तो समझते थे गुनहगार वो मुझे
क्यूँ आज कह रहे हैं कि मैं बेक़ुसूर था

जो मुझको क़त्ल करके सुकूँ से न सो सका
दुश्मन तो था ज़रूर मगर बा-शऊर था

साग़र वो कोसते हैं ज़माने को किसलिए
उनको डुबो गया जो उन्हीं का ग़रूर था


३.
कहाँ चला गया बचपन का वो समाँ यारो!
कि जब ज़मीन पे जन्नत का था गुमाँ यारो!

बहार-ए-रफ़्ता को ढूँढें कहाँ यारो!
कि अब निगाहों में यादों की है ख़िज़ाँ यारो!

समंदरों की तहों से निकल के जलपरियाँ
कहाँ सुनाती है अब हमको लोरियाँ यारो!

बुझा-बुझा -सा है अब चाँद आरज़ूओं का
है माँद-माँद मुरादों की कहकशाँ यारो!

उफ़क़ पे डूबते सूरज के खूँ की लाली है
ठहर गये हैं ख़लाओं के क़ारवाँ यारो!

भटक गये थे जो ख़ुदग़र्ज़ियों के सहरा में
हवस ने उनको बनाया है नीम जाँ यारो!

ग़मों के घाट उतारी गई हैं जो ख़ुशियाँ
फ़ज़ा में उनकी चिताओं का है धुआँ यारो!

तड़प के तोड़ गया दम हिजाब का पंछी
झुकी है इस तरह इख़लाक़ की कमाँ यारो!

ख़ुलूस बिकता है ईमान-ओ-सिदक़ बिकते हैं
बड़ी अजीब है दुनिया की ये दुकाँ यारो !

ये ज़िन्दगी तो बहार-ओ-ख़िज़ाँ का संगम है
ख़ुशी ही दायमी ,ग़म ही न जाविदाँ यारो !

क़रार अहल-ए-चमन को नसीब हो कैसे
कि हमज़बान हैं सैयाद-ओ—बाग़बाँ यारो!

हमारा दिल है किसी लाला ज़ार का बुलबुल
कभी मलूल कभी है ये शादमाँ यारो !

क़दम-क़दम पे यहाँ अस्मतों के मक़तल हैं
डगर-डगर पे वफ़ाओं के इम्तहाँ यारो!

बिरह की रात सितारे तो सो गये थे मगर
सहर को फूट के रोया था आसमाँ यारो!

मिले क़रार मेरी रूह को तभी ‘साग़र’!
मेरी जबीं हो और उनका हो आस्ताँ यारो!


४.
सोच के ये निकले हम घर से
आज मिलेंगे उस दिलबर से


काँटे चुनते उम्र गुज़ारी
हमने उसकी राहगुज़र से


कैसे बच पाता बेचारा
दिल का पंछी तीर-ए-नज़र से


मौसम था रंगीन मगर हम
निकल न पाये शाम-ओ-सहर से


कह ही देंगे उनसे दिल की
काश! वो गुज़रें आज इधर से


प्यासी धरती जिसको चाहे
वो बादल सहरा पर बरसे

'साग़र'! ग़ज़ल सुनाओ ऐसी
लिक्खी हो जो ख़ून-ए-जिगर से


५.
अपनी फ़ितरत वो कब बदलता है
साँप जो आस्तीं में पलता है


दिल में अरमान जो मचलता है
शेर बन कर ग़ज़ल में ढलता है


मुझको अपने वजूद का एहसास
इक छ्लावा-सा बन के छलता है


जब जुनूँ हद से गुज़र जाए तो
आगही का चराग़ जलता है


उसको मत रहनुमा समझ लेना
दो क़दम ही जो साथ चलता है


वो है मौजूद मेरी नस-नस में
जैसे सीने में दर्द पलता है


रिन्द 'साग़र'! उसे नहीं कहते
पी के थोड़ी-सी जो उछलता है


६.
रात कट जाये तो फिर बर्फ़ की चादर देखें
घर की खिड़की से नई सुबह का मंज़र देखें

सोच के बन में भटक जायें अगर जागें तो
क्यों न देखे हुए ख़्वाबों में ही खो कर देखें

हमनवा कोई नहीं दूर है मंज़िल फिर भी
बस अकेले तो कोई मील का पत्थर देखें

झूठ का ले के सहारा कई जी लेते हैं
हम जो सच बोलें तो हर हाथ में खंजर देखें
ज़िन्दगी कठिन मगर फिर भी सुहानी है यहाँ
शहर के लोग कभी गाँवों में आकर देखें

चाँद तारों के तसव्वुर में जो नित रहते हैं
काश ! वो लोग कभी आ के ज़मीं पर देखें

उम्र भर तट पे ही बैठे रहें क्यों हम ‘साग़र!’
आओ, इक बार समंदर में उतर कर देखें


७.
खोये-खोये-से हो हुआ क्या है?
कुछ बताओ ये माजरा क्या है?


भूल कर ख़ुद को भी नहीं चाहा
ये बताओ मेरी ख़ता क्या है?


जाए परदेस कोई फिर ये कहे
अजनबी क्या है, आशना क्या है


नाम लेते हैं तेरा जीने को
और फ़क़ीरों का आसरा क्या है?


दिल लगाते किसी से तो कहते
बेवफ़ाई है क्या वफ़ा क्या है


आदमीयत के जो पुजारी हैं
वो नहीं जानते ख़ुदा क्या है


पूछ लो प्यार करने वालों से
प्यार के जुर्म की सज़ा क्या है?


ग़म ज़ियादा हैं कम ख़ुशी 'साग़र'!
और इस बज़्म में धरा क्या है?


८.
जिसको पाना है उसको खोना है
हादसा एक दिन ये होना है

फ़र्श पर हो या अर्श पर कोई
सब को इक दिन ज़मीं पे होना है

चाहे कितना अज़ीम हो इन्सां
वक़्त के हाथ का खिलौना है

दिल पे जो दाग़ है मलामत का
वो हमें आँसुओं से धोना है

चार दिन हँस के काट लो यारो!
ज़िन्दगी उम्र भर का रोना है

छेड़ो फिर से कोई ग़ज़ल ‘साग़र’!
आज मौसम बड़ा सलोना है


९.
बेसहारों के मददगार हैं हम
ज़िंदगी ! तेरे तलबगार हैं हम

रेत के महल गिराने वालों
जान लो आहनी दीवार हैं हम

तोड़ कर कोहना रिवायात का जाल
आदमीयत के तरफ़दार हैं हम

फूल हैं अम्न की राहों के लिए
ज़ुल्म के वास्ते तलवार हैं हम

बे—वफ़ा ही सही हमदम अपने
लोग कहते हैं वफ़ादार हैं हम

जिस्म को तोड़ कर जो मिल जाए
ख़ुश्क रोटी के रवादार हैं हम

अम्न-ओ-इन्साफ़ हो जिसमें ‘साग़र’!
उस फ़साने के परस्तार हैं हम


१०.
ज़ेह्न अपना झंझोड़ कर देखो
खुद को दुनिया से मोड़कर देखो


सच हमेशा सपाट होता है
चाहे कितना मरोड़ कर देखो


ज़ालिमो! तुम कभी लहू अपना
बूँद भर ही निचोड़ कर देखो


जिन ग़रीबों के हो मसीहा तुम
ख़ुद को उन से तो जोड़कर देखो


मंज़िलें ख़ुद क़रीब आएँगी
साथ रहबर का छोड़ कर देखो


आइना तोड़ना तो आसाँ है
टूट जाए तो जोड़ कर देखो


अपने रंग-ए-ग़ज़ल से ही 'साग़र'!
रुख़ हवाओं का मोड़ कर देखो.