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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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रविवार, 6 जनवरी 2013

दिनेश ठाकुर


१.
अजब उलझन भरे दिन हैं वजह जानी नहीं जाती
हमारी बेकरारी उनकी हैरानी नहीं जाती.

कभी तारीक गोशों से सुनी थी इक सदा हमने
हुई मुद्दत मगर दिल से परेशानी नहीं जाती.

भरी बस्ती में भी हालत ख़राबे से नहीं कमतर
हमारे घर से आख़िर क्यों ये वीरानी नहीं जाती.

ख़सारा ही ख़सारा अपने हिस्से में चला आया
कभी तक़दीर के क़ातिब की मनमानी नहीं जाती.

अकेला हूँ यहाँ मेरे सिवा कोई नहीं रहता
यहाँ तन्हाइयों के रुख़ से ताबानी नहीं जाती.

लिपट कर फूल से रोती रही तितली बग़ीचे में
शिकायत थी कि रंगो-बू से उरियानी नहीं जाती.

पनाहें माँगने वाले मुसलसल बढ़ गए, लेकिन
महल के बंद दरवाज़ों से अरज़ानी नहीं जाती.

न जाने कौन-सी मिट्टी से रब इनको बनाता है
फ़क़ीरी में भी मज़दूरों की सुलतानी नहीं जाती.

हमारी चश्मे-तर पे रख गया है वक़्त वो चश्मा
'बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती'.

मिचौली के लिए उसने कभी आँखों पे बाँधी थी
मेरे ख़्वाबों से अब तक वो चुनर धानी नहीं जाती.

हमारे आज से बेहतर नई नस्लों का कल होगा
भले नासाज़ हों हालात, इम्कानी नहीं जाती.

उसे कब होश है इसका कहाँ दिल रख दिया लेकर
सितमगर की, मुहब्बत में भी नादानी नहीं जाती.

मेरे ख़्वाबों के सेहरा में चले आओ, चले आओ
बड़ा पुरकैफ़ आलम है कि लासानी नहीं जाती.

कभी है मीर का पहलू कभी ग़ालिब महकते हैं
ज़ियादा दूर ग़ज़लों से निगेहबानी नहीं जाती.


२.
दिलों को यूँ ही खींचती है ग़ज़ल
नए दौर में भी वही है ग़ज़ल।

न जाने मुझे ऐसा लगता है क्यों
ज़माना ग़लत है, सही है ग़ज़ल।

गली के पुराने शजर के तले
तुझे आज तक ढूँढती है ग़ज़ल।

मैं हैरान हूँ फिर धनक देखकर
फ़लक पर ये किसने कसी है ग़ज़ल।

उसे देखकर नम हैं आँखें मेरी
किसे देखकर हंस रही है ग़ज़ल।

ज़रा अपने चेहरे पे रख दो इसे
अभी आंसुओं से लिखी है ग़ज़ल।

(शजर=पेड़, धनक=इन्द्रधनुष)

३.
बात ऐसी जदीद हो जाए
वो हमारा मुरीद हो जाए।

उम्र रूठी हुई है मुद्दत से
आ गले मिल जा, ईद हो जाए।

किसका चेहरा सुबह-सुबह देखूँ
सारा दिन ही सईद हो जाए।

ग़म हमेशा लगे तरो-ताज़ा
याद इतनी शदीद हो जाए।

दार पर आज जो गया हँसकर
क्या ख़बर कल फ़रीद हो जाए।

हो अगर वस्ल का कोई इमकां
सब्ज़ फिर हर उम्मीद हो जाए।

(जदीद=नई, सईद=शुभ, शदीद=तीव्र, दार=सूली, फ़रीद=अद्वितीय,
वस्ल=मिलन, इमकां=सम्भावना
)

४.
दिल ग़म से आज़ाद नहीं है
ऐसा क्यूँ है, याद नहीं है।

ख़्वाबों के ख़ंजर पलकों पर
होठों पर फ़रियाद नहीं है।

जंगल तो सब हरे-भरे हैं
गुलशन क्यूँ आबाद नहीं है।

दिल धड़का न आँसू आये
यह तो तेरी याद नहीं है।

शहरे-वफ़ा की आबादी है
कौन यहाँ बर्बाद नहीं है।

सच-सच कहना हँसने वाले
क्या तू भी नाशाद नहीं है।

कितने चेहरे थे चेहरों पर
कोई चेहरा याद नहीं है।

जो कुछ है इस जीवन में है
कुछ भी इसके बाद नहीं है।

(शहरे-वफ़ा=प्रेम नगर, नाशाद=दुखी)

५.
जमीं है धूल-सी रुसवाइयों की
बड़ी ख्वाहिश है अब पुरवाइयों की।

अकेले चल रहे हैं सब सफ़र में
न कर बातें यहाँ तन्हाइयों की।

शजर पर धूप ने वो रंग डाले
क़बाएँ जल गईं परछाइयों की।

शिकस्ता आईने भी बिक रहे हैं
ये क्या हालत हुई बीनाइयों की।

यहाँ तो काग़ज़ी फूलों के दिन है
कोई भेजे तो रुत सच्चाइयों की।

परिंदे क्यूँ नहीं आये पलटकर
हवाएँ क्या हुई अंगनाइयों की।

खुले हैं जब भी यादों के दरीचे
सुनाई दी सदा शहनाइयों की।

तेरी यादें, तेरी बातें, तेरे ग़म
अदाएँ हैं तेरी अंगड़ाइयों की।

मुहब्बत को तिजारत कहने वाले
क्या कीमत है मेरी अच्छाइयों की।


(शजर=पेड़, क़बाएँ=अंगरखा, शिकस्ता=खंडित, बीनाइयों=दृष्टि,
दरीचे= खिड़कियाँ, तिजारत=व्यापार)