जन्म: 31 दिसंबर 1934, टौंक, (राजस्थान).76 साल की उम्र में 2 मार्च 2010 को जयपुर में इंतकाल हो गया।प्रमुख किताबों में सियाह बर सफ़ेद, आवाज़ का ज़िस्म, सबरंग, आते-जाते लम्हों की सदा, बाँस के जंगलों से गुज़रती हवा, 'पेड़ गिरता हुआ' और 'दीवारो-दर के दरमियाँ' और एक दर्जन से अधिक आलोचनात्मक पुस्तकें भी लिखीं।
१.
आज क्यूँ आईने में शक्ल अपनी
आईनों से पूछ के देखो ऐ 'मख्मूर'
१.
सामने ग़म की रहगुज़र आई
दूर तक रोशनी नज़र आई
परबतों पर रुके रहे बादल
वादियों में नदी उतर आई
दूरियों की कसक बढ़ाने को
साअते-क़ुर्ब मख़्तसर आई
दिन मुझे क़त्ल करके लौट गया
शाम मेरे लहू में तर आई
मुझ को कब शौक़े-शहरगर्दी थी
ख़ुद गली चल के मेरे घर आई
अजनबी-अजनबी नज़र आई
हम की 'मख़्मूर' सुबह तक जागे
एक आहट की रात भर आई
साअते-क़ुर्ब: सामीप्य का लक्षण;
मुख़्तसर: संक्षिप्त;
शौक़े-शहरगर्दी: नगर में घूमने का शौक़।
२.
न रास्ता न कोई डगर है यहाँ
मगर सब की क़िस्मत सफ़र है यहाँ
सुनाई न देगी दिलों की सदा,
दिमाग़ों में वो शोर-ओ-शर है यहाँ
हवाओं की उँगली पकड़ कर चलो,
वसिला इक यही मोतबर है यहाँ
न इस शहर-ए-बेहिस को सेहरा कहो,
सुनो इक हमारा भी घर है यहाँ
पलक भी झपकते हो "मख्मूर" क्यूँ,
तमाशा बहुत मुख़्तसर है यहाँ
३.
भीड़ में है मगर अकेला है
उस का क़द दूसरों से ऊँचा है
अपने-अपने दुखों की दुनिया में
मैं भी तन्हा हूँ वो भी तन्हा है
मंज़िलें ग़म की तय नहीं होतीं
रास्ता साथ-साथ चलता है
साथ ले लो सिपर मौहब्बत की
उस की नफ़रत का वार सहना है
तुझ से टूटा जो इक तअल्लुक़ था
अब तो सारे जहाँ से रिश्ता है
ख़ुद से मिलकर बहुत उदास था आज
वो जो हँस-हँस के सबसे मिलता है
उस की यादें भी साथ छोड़ गईं
इन दिनों दिल बहुत अकेला है
४.
चल पड़े हैं तो कहीं जा के ठहरना होगा
ये तमाशा भी किसी दिन हमें करना होगा
रेत का ढेर थे हम, सोच लिया था हम ने
जब हवा तज़ चलेगी तो बिखरना होगा
हर नए मोड़ प' ये सोच क़दम रोकेगी
जाने अब कौन सी राहों से गुज़रना होगा
ले के उस पार न जाएगी जुदा राह कोई
भीड़ के साथ ही दलदल में उतरना होगा
ज़िन्दगी ख़ुद ही इक आज़ार है जिस्मो-जाँ का
जीने वालों को इसी रोग में मरना होगा
क़ातिले-शहर के मुख़बिर दरो-दीवार भी हैं
अब सितमगर उसे कहते हुए डरना होगा
आए हो उसकी अदालत में तो 'मख़्मूर' तुम्हें
अब किसी जुर्म का इक़रार तो करना होगा
५.
आंखों के सब ख़्वाब कहीं खो जाते हैं
आईने इक दिन पत्थर हो जाते हैं
ऐसा क्यूं होता है, मौसम दरमां के
दिल में ताज़ा दर्द भी कुछ बो जाते हैं
तुझसे वाबस्ता हर मंज़र की पहचान
तुझसे बिछड़ कर सब मंज़र खो जाते हैं
ख्वाबे-सफ़र इन आंखों में जाग उठता है
चांद, सितारे थक कर जब सो जाते हैं
कौन सी दुनियाओं का तसव्वुर ज़ेहन में है
बैठे - बैठे हम ये कहां खो जाते हैं
किस मौसम के बादल हैं जो कभी-कभी
दिल के मर्क़द पर आ कर रो जाते हैं
चेहरे क्या होते हैं, क्या हो जाते हैं
दरमां : चिकित्सा, मर्क़द : समाधि-भवन
६.
सुन ली सदा-ए-कोहे-निदा और चल पड़े
हमने किसी से कुछ न कहा और चल पड़े
ठहरी हुई फिजा में उलझने लगा था दम
हमने हवा का गीत सुना और चल पड़े
तारीक रास्तों का सफर सहल था हमें
रोशन किया लहू का दिया और चल पड़े
घर में रहा था कौन कि रुखसत करे हमें
चौखट को अलविदा कहा और चल पड़े
'मख्मूर' वापसी का इरादा न था मगर
घर को खुला ही छोड़ दिया और चल पड़े
७.
कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के
दरमियाँ
घर कहीं गुम हो गया दीवारो-दर के दरमियाँ.
कौन अब इस शहर में किसकी ख़बरगीरी करे
हर कोई गुम इक हुजूमे-बेख़बर के दरमियाँ.
जगमगाएगा मेरी पहचान बनकर मुद्दतों
एक लम्हा अनगिनत शामो-सहर के दरमियाँ.
एक साअत थी कि सदियों तक सफ़र करती रही
कुछ ज़माने थे कि गुज़रे लम्हे भर के दरमियाँ.
वार वो करते रहेंगे, ज़ख़्म हम खाते रहें
है यही रिश्ता पुराना संगो-सर के दरमियाँ.
किसकी आहट पर अंधेरों के क़दम बढ़ते गए
रहनुमा था कौन इस अंधे सफ़र के दरमियाँ.
बस्तियाँ 'मखमूर' यूँ उजड़ी कि सहरा हो गईं
फ़ासले बढ़ने लगे जब घर से घर के दरमियाँ.
८.
तूने फिर हमको पुकारा सरफिरी पागल हवा
हम न आएँगे दुबारा सरफिरी पागल हवा.
लोग फिर निकले वो अपने आँगनों को छोड़ कर
फिर वही तेरा इशारा सरफिरी पागल हवा.
कब से आवारा है तू मुंहजोर दरियाओं के बीच
है कहीं तेरा किनारा सरफिरी पागल हवा.
मेरा ख़ेमा ले उडी थी तू कहाँ से याद कर
ये कहाँ अब ला उतारा सरफिरी पागल हवा.
सब दरख्तों से गिरा दूँ फल मैं फर्शे-खाक पर
दे कभी इतना सहारा सरफिरी पागल हवा.
होश की इन बस्तियों से दूर कर 'मखमूर' को
तू कहीं ले चल ख़ुदारा सरफिरी पागल हवा.
९.
रंग पेड़ों का क्या हुआ देखो
कोई पत्ता नहीं हरा देखो.
ढूँढना अक्से-गुमशुदा मेरा
अब कभी तुम जो आईना देखो.
क्या अजब बोल ही पड़ें पत्थर
अपना क़िस्सा उसे सुना देखो.
दोस्ती उसकी निभ नहीं सकती
दिल न माने तो आज़मा देखो.
अजनबी हो गए शनाशा लोग
वक़्त दिखलाए और क्या देखो.
ज़िन्दगी को शिकस्त दी गोया
मरने वाले का हौसला देखो.
ख़ुदगरज़ हैं ये बस्तियाँ 'मखमूर'
तुम भी अपना बुरा-भला देखो.
१०.
जब हुक्म इक सादिर हुआ, तुम चुप रहे हम चुप रहे
वो वक़्त कुछ कहने का था, तुम चुप रहे हम चुप रहे.
अब अपनी-अपनी किस्मतों पर बैठ कर सोचा करें
वो फ़ैसला लिखता रहा, तुम चुप रहे हम चुप रहे.
तक़रीर उसकी आग थी, शोले फ़िज़ा में भर गई
और शहर सारा जल गया, तुम चुप रहे हम चुप रहे.
लुटने लगी थीं बस्तियाँ, सोये हुए थे पासबाँ
चारों तरफ़ इक शोर था, तुम चुप रहे हम चुप रहे.
सर फोडती पागल हवा कहती थी कोई माज़रा
रोती रही घायल फ़िज़ा, तुम चुप रहे हम चुप रहे.
मंज़र भरे बाज़ार का, गिरना दरो-दीवार का
घर-घर क़यामत थी बपा,तुम चुप रहे हम चुप रहे.
(सादिर=जारी, पासबाँ=द्वारपाल, बपा=उपस्थित)
११.
पल की दहलीज प’ गिर जाऊँगा बेसुध होकर
मैं भी इस जिस्म हूँ साया तो नहीं हूँ तेरा
अपनी ही आँच में पिघला हुआ चाँदी का बदन
लोग इस तरह तो शक्लें न बदलते होंगे
सर पटकते हैं बगुले वही मौजों की तरह
दश्ते-तदबीर में जो ख़ाक-ब-सर है ‘मख़्मूर’
वो हमसे ख़फ़ा था मगर इतना भी नहीं था
क्या दिल से मिटे अब ख़लिशे-तर्के-ताल्लुक़
रस्ते से पलट आए हैं हम किसलिए आख़िर
कुछ, हम भी अब इस दर्द से मानूस बहुत हैं
सर फोड़ के मर जाएँ, यही राहे-मफ़र थी
दिल ख़ून हुआ और ये आँखें न हुईं नम
इक शख़्स की आँखों में बसा रहता है 'मख़्मूर'
पहचानना किसी का किसी को, कठिन हुआ
बादल जो हमसफ़र थे कहाँ खो गए कि हम
सूरज का क़हर टूट पड़ा है ज़मीन पर
पत्ते हिलें तो शाखों से चिंगारियाँ उड़ें
'मख़्मूर'हम को साए-ए-अब्रे-रवाँ से क्या
घर कहीं गुम हो गया दीवारो-दर के दरमियाँ.
कौन अब इस शहर में किसकी ख़बरगीरी करे
हर कोई गुम इक हुजूमे-बेख़बर के दरमियाँ.
जगमगाएगा मेरी पहचान बनकर मुद्दतों
एक लम्हा अनगिनत शामो-सहर के दरमियाँ.
एक साअत थी कि सदियों तक सफ़र करती रही
कुछ ज़माने थे कि गुज़रे लम्हे भर के दरमियाँ.
वार वो करते रहेंगे, ज़ख़्म हम खाते रहें
है यही रिश्ता पुराना संगो-सर के दरमियाँ.
किसकी आहट पर अंधेरों के क़दम बढ़ते गए
रहनुमा था कौन इस अंधे सफ़र के दरमियाँ.
बस्तियाँ 'मखमूर' यूँ उजड़ी कि सहरा हो गईं
फ़ासले बढ़ने लगे जब घर से घर के दरमियाँ.
तूने फिर हमको पुकारा सरफिरी पागल हवा
हम न आएँगे दुबारा सरफिरी पागल हवा.
लोग फिर निकले वो अपने आँगनों को छोड़ कर
फिर वही तेरा इशारा सरफिरी पागल हवा.
कब से आवारा है तू मुंहजोर दरियाओं के बीच
है कहीं तेरा किनारा सरफिरी पागल हवा.
मेरा ख़ेमा ले उडी थी तू कहाँ से याद कर
ये कहाँ अब ला उतारा सरफिरी पागल हवा.
सब दरख्तों से गिरा दूँ फल मैं फर्शे-खाक पर
दे कभी इतना सहारा सरफिरी पागल हवा.
होश की इन बस्तियों से दूर कर 'मखमूर' को
तू कहीं ले चल ख़ुदारा सरफिरी पागल हवा.
९.
रंग पेड़ों का क्या हुआ देखो
कोई पत्ता नहीं हरा देखो.
ढूँढना अक्से-गुमशुदा मेरा
अब कभी तुम जो आईना देखो.
क्या अजब बोल ही पड़ें पत्थर
अपना क़िस्सा उसे सुना देखो.
दोस्ती उसकी निभ नहीं सकती
दिल न माने तो आज़मा देखो.
अजनबी हो गए शनाशा लोग
वक़्त दिखलाए और क्या देखो.
ज़िन्दगी को शिकस्त दी गोया
मरने वाले का हौसला देखो.
ख़ुदगरज़ हैं ये बस्तियाँ 'मखमूर'
तुम भी अपना बुरा-भला देखो.
१०.
जब हुक्म इक सादिर हुआ, तुम चुप रहे हम चुप रहे
वो वक़्त कुछ कहने का था, तुम चुप रहे हम चुप रहे.
अब अपनी-अपनी किस्मतों पर बैठ कर सोचा करें
वो फ़ैसला लिखता रहा, तुम चुप रहे हम चुप रहे.
तक़रीर उसकी आग थी, शोले फ़िज़ा में भर गई
और शहर सारा जल गया, तुम चुप रहे हम चुप रहे.
लुटने लगी थीं बस्तियाँ, सोये हुए थे पासबाँ
चारों तरफ़ इक शोर था, तुम चुप रहे हम चुप रहे.
सर फोडती पागल हवा कहती थी कोई माज़रा
रोती रही घायल फ़िज़ा, तुम चुप रहे हम चुप रहे.
मंज़र भरे बाज़ार का, गिरना दरो-दीवार का
घर-घर क़यामत थी बपा,तुम चुप रहे हम चुप रहे.
(सादिर=जारी, पासबाँ=द्वारपाल, बपा=उपस्थित)
११.
हर दरीचे में मेरे क़त्ल का मंज़र होगा
शाम होगी तो तमाशा यही घर-घर होगा
पल की दहलीज प’ गिर जाऊँगा बेसुध होकर
बोझ सदियों की थकन का मेरे सर पर होगा
मैं भी इस जिस्म हूँ साया तो नहीं हूँ तेरा
क्यों तेरे हिज़्र में जीना मुझे दूभर होगा
अपनी ही आँच में पिघला हुआ चाँदी का बदन
सरहद-ए-लम्स तक आते हुए पत्थर होगा
लोग इस तरह तो शक्लें न बदलते होंगे
आईना अब उसे देखेगा तो शशदर होगा
सर पटकते हैं बगुले वही मौजों की तरह
अब जो सहरा है किसी दिन ये समंदर होगा
दश्ते-तदबीर में जो ख़ाक-ब-सर है ‘मख़्मूर’
हो न हो मेरा ही आवारा मुक़द्दर होगा
१२.
यूँ मिल के बिछड़ जाएँ, कुछ ऎसा भी नहीं था
क्या दिल से मिटे अब ख़लिशे-तर्के-ताल्लुक़
कर गुज़रे वो हम जो कभी सोचा भी नहीं था
रस्ते से पलट आए हैं हम किसलिए आख़िर
उससे न मिलेंगे ये इरादा भी नहीं था
कुछ, हम भी अब इस दर्द से मानूस बहुत हैं
कुछ, दर्दे-जुदाई का मदावा भी नहीं था
सर फोड़ के मर जाएँ, यही राहे-मफ़र थी
दीवार में दर क्या कि दरीचा भी नहीं था
दिल ख़ून हुआ और ये आँखें न हुईं नम
सच है, हमे रोने का सलीक़ा भी नहीं था
इक शख़्स की आँखों में बसा रहता है 'मख़्मूर'
बरसों से जिसे मैंने तो देखा भी नहीं था
१३.
सर पर जो सायबाँ थे पिघलते हैं धूप में
सब दम-ब-ख़ुद खड़े हुए जलते हैं धूप में
पहचानना किसी का किसी को, कठिन हुआ
चेहरे हज़ार रंग बदलते हैं धूप में
बादल जो हमसफ़र थे कहाँ खो गए कि हम
तन्हा सुलगती रेत प' जलते हैं धूप में
सूरज का क़हर टूट पड़ा है ज़मीन पर
मंज़र जो आसपास थे जलते हैं धूप में
पत्ते हिलें तो शाखों से चिंगारियाँ उड़ें
सर सब्ज़ पेड़ आग उगलते हैं धूप में
'मख़्मूर'हम को साए-ए-अब्रे-रवाँ से क्या
सूरजमुखी के फूल हैं, पलते हैं धूप में