जन्म- ४, जनवरी, १९३८।स्थान- गोंमत (अलीगढ) (उ. प्र.)चार ग़ज़ल संग्रह
१.
दुखों की भीड़ में थोड़ी खुशी थोड़ी नहीं होती,
प्रणय की चार दिन की ज़िन्दगी थोड़ी नहीं होती।
घिरें काली घटाऐं और बिजली कौंधती हो तो,
अँधेरी रात में यह रोशनी थोड़ी नहीं होती।
बरस कर स्वाति में इक सीप को मोती बना दे जो,
तड़पती प्यास को वह बूँद भी थोड़ी नहीं होती।
समय की बाढ़ में सारे सहारे डूब जायें जब,
तो तिनकों की बनी इक नाव भी थोड़ी नहीं होती।
विरह के तप्त अंगारे पचाने के लिये केवल,
मिलन की एक मुट्ठी चाँदनी थोड़ी नहीं होती।
निगाहों से मिलीं हों ज़िन्दगी भर नफ़रतें जिसको,
उसे संवेदना की इक घड़ी थोड़ी नहीं होती।
भरीं हों आँसुओं से रोज़ 'भारद्वाज' जो आँखें,
उन्हीं की कोर काजल से अँजी थोड़ी नहीं होती।
२.
सिमट कर आज बाँहों में चलो आकाश तो आया,
उतर कर एक टुकड़ा चाँदनी का पास तो आया।
तरसते थे कभी दालान अपने गुनगुनाने को,
घुँघरुओं के खनकने का वहाँ आभास तो आया।
ठहरते थे जहाँ बस आँसुओं के काफिले आकर,
अचानक उन किवाड़ों के किनारे हास तो आया।
समय की मुट्ठियों में फैसला तो बंद बाजी का,
मुक़द्दर आजमाने के लिए उल्लास तो आया।
हवाओं ने कभी जिन खिड़कियों के काँच तोड़े थे,
उन्हीं वातायनों से अब मलय वातास तो आया।
अभी तक पतझरों से ही हुआ था उम्र का परिचय,
उजड़ती क्यारियों में फिर नया मधुमास तो आया।
निगाहें मोड़ कर हम से सभा में जो रहे अब तक,
उन्हें भी आज 'भारद्वाज' पर विश्वास तो आया।
३.
अधर में हैं हज़ारों प्रश्न कोई हल नहीं मिलता,
टिकाने को ज़रा सा पाँव भी भूतल नहीं मिलता।
निगाहें ताकती रहतीं महज़ आकाश को हर दम,
क्षितिज पर दूर तक पानी भरा बादल नहीं मिलता।
न जाने कब चुरा कर ले गया बहुरूपिया मौसम,
घटा की आँख में आँजा हुआ काजल नहीं मिलता।
कुल्हाड़ी की निगाहों से बचा ले आबरू अपनी,
किसी भी पेड़ को ऐसा कहीं जंगल नहीं मिलता।
सिमट कर चीथड़ों में उम्र सारी बीत जाती है,
कुँवारी कामना को रेशमी आँचल नहीं मिलता।
कुआँ से बावड़ी तक झील तालों से तलैयों तक,
भरी है सिर्फ़ दलदल अन्जुरी भर जल नहीं मिलता।
कहीं काँटे बिछे मिलते कहीं पत्थर गड़े मिलते,
कि 'भारद्वाज' कोई रास्ता समतल नहीं मिलता।
४.
सत्य की खातिर उजाले में जिरह करते रहे
झूठ से लेकिन अँधेरे में सुलह करते रहे
पीठ सहलाते रहे तब तक बड़े ही प्यार से
जब तलक गर्दन हमारी वे ज़िबह करते रहे
भूख पीकर सिर्फ पानी ढाँक कर मुँह सो गई
रात केवल रोटियों की बात वह करते रहे
शाम ढलते मयकदे की ओर बढ़ जाते कदम
प्रण न जाने का उधर वे हर सुबह करते रहे
गूँजती है आज जय जयकार उनके नाम की
जो कभी दरियाँ बिछाते और तह करते रहे
लग रहे चिंतित बहुत जो आज के हालात से
वे स्वयं शोषण समय का हर तरह करते रहे
मार 'भारद्वाज' को कुहनी किनारे कर दिया
बीच जाजम पर मगर खुद को जगह करते रहे
५.
खरीदी हर कलम मसि और कागज मान बैठे हैं
खड़े जो कठघरे में खुद को ही जज मान बैठे हैं
चमक जाते जो जुगनू की तरह जब तब अँधेरे में
स्वयं को अब क्षितिज पर उगता सूरज मान बैठे हैं
उन्हीं हाथों में अक्सर सौंप बैठे क्षीरसागर को
जो कौओं को भी अब हंसों का वंशज मान बैठे हैं
किसी कुर्सी के आगे टेक आते हैं कभी मत्था
किसी कुर्सी के फेरों को ही वो हज मान बैठे हैं
धँसे हैं पाँव से लेकर गले तक पूरे कीचड़ में
मगर कीचड़ में खुद को खिलता पंकज मान बैठे हैं
किसी की चाल चलते हैं किसी से मात देते हैं
वो मोहरे साधने में खुद को दिग्गज मान बैठे हैं
लगाते आ रहे हैं सिर्फ डुबकी गंदे नाले में
उसे ही आज 'भारद्वाज' सतलज मान बैठे हैं
६.
आदमी की सिर्फ इतनी सी निशानी देखना
आग सीने में मगर आँखों में पानी देखना
जब किसी को प्यार की कोमल कसौटी पर कसो
बात में ठहराव नज़रों में रवानी देखना
आँख के आगे घटा जो सिर्फ उतना सच नहीं
आँख के पीछे घटी वह भी कहानी देखना
वक्त ने कितनी बदल डाली है सूरत आपकी
आईने में अपनी तसवीरें पुरानी देखना
देखना क्या नफरतें क्या गफलतें क्या रंजिशें
जो किसी ने तुम पे की वो मेहरबानी देखना
गैर के दुख दर्द अपनी खुशियाँ हरदम बाँटना
हर कदम पर ज़िन्दगी सुंदर सुहानी देखना
वक्त 'भारद्वाज' अपने आप बदलेगा नज़र
बेटियों में शारदा कमला शिवानी देखना
७.
उतर कर चाँद पूनम का खड़ा डलझील में जैसे
कुँआरा रूप लगता इक दिया कन्दील में जैसे।
ठहर जातीं उलझ कर ये निगाहें इस तरह अक्सर,
फँसा हो छोर आँचल का पटे की कील में जैसे।
सलोना रूप निखरा डूब कर कुछ प्यार में ऐसे,
चमक जाती सफ़ेदी और ज़्यादा नील में जैसे।
अचानक ज़िन्दगी में बढ़ गईं सरगर्मियाँ इतनी,
चला आया बड़ा हाकिम किसी तहसील में जैसे।
हँसे कुछ देर तक हम आँसुओं के दौर से पहले,
उछल कर एक पत्थर डूब जाए झील में जैसे।
उभर आए अचानक हादसे खामोश आँखों में,
लिखे हों साफ़ सब मुद्दे किसी तफसील में जैसे।
हुआ अहसास ऐसा बादलों में चाँद छिपने पर,
अकेलापन बिखर जाए हज़ारों मील में जैसे।
चुराकर वक्त से दो पल पुरानी याद दुहरा ली,
मना ली हो दिवाली एक मुट्ठी खील में जैसे।
बने हैं दृश्य सारे पुतलियों पर इस करीने से,
कि 'भारद्वाज' उतरे कैमरे की रील में जैसे।
८.
जहाँ वन था पलाशों का शजर कोई नहीं दिखता
डगर में छाँह दे वह गुलमोहर कोई नहीं दिखता
चले थे सोच कर शायद बनेगा कारवाँ आगे
दिखा केवल वहाँ जंगल बशर कोई नहीं दिखता
भटकती ही रही है ज़िन्दगी इस दर से उस दर तक
समेटे अपनी बाँहों में वो दर कोई नहीं दिखता
दिया बन कर जली है उम्र सारी इक प्रतीक्षा में
चुकी बाती बुझा दीया मगर कोई नहीं दिखता
दमकते हैं यहाँ के दिन चमकती हैं यहाँ रातें
भवन बहुमंजिला दिखते हैं घर कोई नहीं दिखता
कसीदे लोग 'भारद्वाज' लिखते हैं स्वयं अपने
कसीदों के लिए उनमें हुनर कोई नहीं दिखता
९.
कदम भटके हुए हों तो उन्हें मंज़िल दिखाता चल,
लकीरें खींच कर उस राह का नक्शा बनाता चल।
किसी अनजान राही का सफ़र आसान करने को,
बतायें दूरियाँ वे मील के पत्थर लगाता चल।
यही मंदिर समझ अपना यही मस्जिद समझ अपनी,
गरीबों बेसहारों को दुआ थोड़ी मनाता चल।
तुम्हारी देह से हर वक्त सौंधी गंध आयेगी,
तनिक इस गाँव की मिट्टी से उबटन कर नहाता चल।
छनकते छंद उतरेंगे खनकते गीत आयेंगे,
पिरोकर शब्द उनमें दर्द के घुँघरू सजाता चल।
उठा दी है घृणा की जिस जगह दीवार आँगन में
ढहा कर अब उसे कुछ प्रेम के पौधे उगाता चल।
यहाँ बैठे हुए जो लोग युग से घुप अंधेरे में,
गुज़रते वक्त 'भारद्वाज' इक दीपक जलाता चल।
१०.
जब परों पर बंदिशें हों तो गगन का क्या करें
हर कली गर्दिश में हो ऐसे चमन का क्या करें
ज़िंदगी भर तन का ढँकना हो नहीं पाया नसीब
मौत के दिन यार रेशम के कफ़न का क्या करें
बस्तियाँ तो जल रही हैं उठ रहा काला धुआँ
घुल रहा है विष हवाओं में हवन का क्या करें
जो दबी चिनगारियों को तो बना देती लपट
पर बुझा देती दियों को उस पवन का क्या करें
तान कर सीना खड़ा है सामने मुजरिम स्वयं
हो नहीं तामील कागज के समन का क्या करें
हाथ में पत्थर लिए इस ओर भी उस ओर भी
खून से माथा सना चोटिल अमन का क्या करें
फ़र्क़ 'भारद्वाज' कथनी और करनी में बहुत
जो कभी पूरा न हो झूठे वचन का क्या करें
११.
काग़ज़ पर भाईचारे के अक्षर दिखते हैं;
पर आँखों में शक हाथों में पत्थर दिखते हैं।
दिल से दिल के बीच बढ़ी है कोसों की दूरी,
हाथ मिलाते चित्र महज आडम्बर दिखते हैं।
समझौता तो सद्भावों के बीच हुआ अक्सर,
पर उस पर बंदूकों के हस्ताक्षर दिखते हैं।
धीरे-धीरे लौटी है रौनक बाज़ारों की,
बस्ती में लेकिन उजड़े-उजड़े घर दिखते हैं।
दंगों के हालात नियंत्रित होते कुछ दिन में,
आँखों में वर्षों दहशत के मन्ज़र दिखते हैं।
आग कहाँ करती है अंतर हिन्दू मुस्लिम में,
उसको तो दोनों ईंधन के गट्ठर दिखते हैं।
जब से 'भारद्वाज' लगा है कर्फ्यू बस्ती में,
घर में खाली डिब्बे और कनस्तर दिखते हैं।
१२.
इक ज़िन्दगी में जब कहीं दिलबर नहीं होता
होते दरो-दीवार तो पर घर नहीं होता
जिसकी नसों में आग का दरिया न बहता हो
काबिल भले हो वह मगर शायर नहीं होता
लहरें न उठतीं हों नहीं तूफ़ान ही आते
सूखा हुआ तालाब इक सागर नहीं होता
जो नब्ज पहचाने न समझे धड़कनें दिल की
होता है सौदागर वो चारागर नहीं होता
उमड़ीं घटाएँ जब कभी बिन प्यार के बरसीं
तन भीग जाता है मगर मन तर नहीं होता
यादों की खुशबू से अगर दालान भर जाते
गुलज़ार सपनों का महल खँडहर नहीं होता
यदि प्यार के बीजों में अंकुर फूटते पहले
तो खेत 'भारद्वाज' का बंजर नहीं होता
१३.
गहन गंभीर मसलों को बड़ा उथला बना डाला,
हमें इस तंत्र ने इक काठ का पुतला बना डाला।
बनाते वक्त इसकी रूपरेखा साफ़ सुथरी थी,
समय की गर्द ने तसवीर को धुँधला बना डाला।
उतारा था यहाँ भागीरथी को मोक्ष देने को,
कि गंदे हाथ धो-धो कर उसे गंदला बना डाला।
नियम की आड़ लेकर झोपड़ी तो तोड़ डाली है,
प्रगति के नाम पर लेकिन वहाँ बंगला बना डाला।
अमीरी तो यहाँ पर हो रही है रात-दिन दूनी,
गरीबी को मसल कर और भी कंगला बना डाला।
कहीं डूबी अभावों में कहीं उलझी तनावों में,
सहज-सी ज़िन्दगी को वक्त ने पगला बना डाला।
हृदय की पीर 'भारद्वाज' जब जब भी पिघलती है,
कभी मकता बना डाला कभी मतला बना डाला।
१४.
हमारे प्यार पर हमको अगर कुछ नाज है तो है
हमारी भी निगाहों में कोई मुमताज है तो है
जमाने के लिए राजा रहे हम अपनी मरजी के
हमारे दिल पे पर इक नाजनी का राज है तो है
दिया बन कर जले दिन रात उसकी मूर्ति के आगे
हमारे प्यार में इक सूफ़िया अंदाज है तो है
हमारा प्यार उठती हाट का सौदा नहीं कोई
बँधे अनुबंध में दुनिया भले नाराज है तो है
खुली है जिंदगी अपनी कहीं परदा नहीं कोई
अँगूठी में जड़ा उसका दिया पुखराज है तो है
हमारे प्यार का आधार बालू का घरोंदा था
हमारी आँख में वह आज तक भी ताज है तो है
उमर इक खूबसूरत मोड़ पर दिल छोड़ आई थी
दिशाओं में उसी की गूँजती आवाज है तो है
फुदकती ही रही हरदम हमारे प्यार की बुलबुल
अगर दुनिया का हर सैयाद तीरंदाज है तो है
न तो समझा रदीफों को न समझे काफ़िए हमने
ग़ज़ल में पर हमारा नाम 'भारद्वाज' है तो है
१५.
कभी सूखे हुए तालाब में दादुर नही आते,
सड़ा हो बीज तो उस बीज में अंकुर नही आते।
कला की साधना में उम्र सारी बीत जाती है,
हवा के फूँकने से बाँसुरी में सुर नहीं आते।
भले हो उर्वरा धरती भले अनुकूल मौसम हो,
करेले की लताओं पर कभी माधुर नहीं आते।
अगर इक पाँव को बैसाखियों की हो गई आदत,
थिरकने के लिए उस पाँव में नूपुर नहीं आते।
यहाँ उस आदमी को कामयाबी मिल नहीं सकती,
जिसे इक झूठ सच में ढालने के गुर नहीं आते।
बचाने के लिए इज़्ज़त कभी धनिया नहीं मरती,
अगर उस रात घर में गाँव के ठाकुर नहीं आते।
हमेशा उर्स पर वह मारते रहते हमें ताना,
कि 'भारद्वाज' तुम अजमेर या जयपुर नहीं आते।
१.
दुखों की भीड़ में थोड़ी खुशी थोड़ी नहीं होती,
प्रणय की चार दिन की ज़िन्दगी थोड़ी नहीं होती।
घिरें काली घटाऐं और बिजली कौंधती हो तो,
अँधेरी रात में यह रोशनी थोड़ी नहीं होती।
बरस कर स्वाति में इक सीप को मोती बना दे जो,
तड़पती प्यास को वह बूँद भी थोड़ी नहीं होती।
समय की बाढ़ में सारे सहारे डूब जायें जब,
तो तिनकों की बनी इक नाव भी थोड़ी नहीं होती।
विरह के तप्त अंगारे पचाने के लिये केवल,
मिलन की एक मुट्ठी चाँदनी थोड़ी नहीं होती।
निगाहों से मिलीं हों ज़िन्दगी भर नफ़रतें जिसको,
उसे संवेदना की इक घड़ी थोड़ी नहीं होती।
भरीं हों आँसुओं से रोज़ 'भारद्वाज' जो आँखें,
उन्हीं की कोर काजल से अँजी थोड़ी नहीं होती।
२.
सिमट कर आज बाँहों में चलो आकाश तो आया,
उतर कर एक टुकड़ा चाँदनी का पास तो आया।
तरसते थे कभी दालान अपने गुनगुनाने को,
घुँघरुओं के खनकने का वहाँ आभास तो आया।
ठहरते थे जहाँ बस आँसुओं के काफिले आकर,
अचानक उन किवाड़ों के किनारे हास तो आया।
समय की मुट्ठियों में फैसला तो बंद बाजी का,
मुक़द्दर आजमाने के लिए उल्लास तो आया।
हवाओं ने कभी जिन खिड़कियों के काँच तोड़े थे,
उन्हीं वातायनों से अब मलय वातास तो आया।
अभी तक पतझरों से ही हुआ था उम्र का परिचय,
उजड़ती क्यारियों में फिर नया मधुमास तो आया।
निगाहें मोड़ कर हम से सभा में जो रहे अब तक,
उन्हें भी आज 'भारद्वाज' पर विश्वास तो आया।
३.
अधर में हैं हज़ारों प्रश्न कोई हल नहीं मिलता,
टिकाने को ज़रा सा पाँव भी भूतल नहीं मिलता।
निगाहें ताकती रहतीं महज़ आकाश को हर दम,
क्षितिज पर दूर तक पानी भरा बादल नहीं मिलता।
न जाने कब चुरा कर ले गया बहुरूपिया मौसम,
घटा की आँख में आँजा हुआ काजल नहीं मिलता।
कुल्हाड़ी की निगाहों से बचा ले आबरू अपनी,
किसी भी पेड़ को ऐसा कहीं जंगल नहीं मिलता।
सिमट कर चीथड़ों में उम्र सारी बीत जाती है,
कुँवारी कामना को रेशमी आँचल नहीं मिलता।
कुआँ से बावड़ी तक झील तालों से तलैयों तक,
भरी है सिर्फ़ दलदल अन्जुरी भर जल नहीं मिलता।
कहीं काँटे बिछे मिलते कहीं पत्थर गड़े मिलते,
कि 'भारद्वाज' कोई रास्ता समतल नहीं मिलता।
४.
सत्य की खातिर उजाले में जिरह करते रहे
झूठ से लेकिन अँधेरे में सुलह करते रहे
पीठ सहलाते रहे तब तक बड़े ही प्यार से
जब तलक गर्दन हमारी वे ज़िबह करते रहे
भूख पीकर सिर्फ पानी ढाँक कर मुँह सो गई
रात केवल रोटियों की बात वह करते रहे
शाम ढलते मयकदे की ओर बढ़ जाते कदम
प्रण न जाने का उधर वे हर सुबह करते रहे
गूँजती है आज जय जयकार उनके नाम की
जो कभी दरियाँ बिछाते और तह करते रहे
लग रहे चिंतित बहुत जो आज के हालात से
वे स्वयं शोषण समय का हर तरह करते रहे
मार 'भारद्वाज' को कुहनी किनारे कर दिया
बीच जाजम पर मगर खुद को जगह करते रहे
५.
खरीदी हर कलम मसि और कागज मान बैठे हैं
खड़े जो कठघरे में खुद को ही जज मान बैठे हैं
चमक जाते जो जुगनू की तरह जब तब अँधेरे में
स्वयं को अब क्षितिज पर उगता सूरज मान बैठे हैं
उन्हीं हाथों में अक्सर सौंप बैठे क्षीरसागर को
जो कौओं को भी अब हंसों का वंशज मान बैठे हैं
किसी कुर्सी के आगे टेक आते हैं कभी मत्था
किसी कुर्सी के फेरों को ही वो हज मान बैठे हैं
धँसे हैं पाँव से लेकर गले तक पूरे कीचड़ में
मगर कीचड़ में खुद को खिलता पंकज मान बैठे हैं
किसी की चाल चलते हैं किसी से मात देते हैं
वो मोहरे साधने में खुद को दिग्गज मान बैठे हैं
लगाते आ रहे हैं सिर्फ डुबकी गंदे नाले में
उसे ही आज 'भारद्वाज' सतलज मान बैठे हैं
६.
आदमी की सिर्फ इतनी सी निशानी देखना
आग सीने में मगर आँखों में पानी देखना
जब किसी को प्यार की कोमल कसौटी पर कसो
बात में ठहराव नज़रों में रवानी देखना
आँख के आगे घटा जो सिर्फ उतना सच नहीं
आँख के पीछे घटी वह भी कहानी देखना
वक्त ने कितनी बदल डाली है सूरत आपकी
आईने में अपनी तसवीरें पुरानी देखना
देखना क्या नफरतें क्या गफलतें क्या रंजिशें
जो किसी ने तुम पे की वो मेहरबानी देखना
गैर के दुख दर्द अपनी खुशियाँ हरदम बाँटना
हर कदम पर ज़िन्दगी सुंदर सुहानी देखना
वक्त 'भारद्वाज' अपने आप बदलेगा नज़र
बेटियों में शारदा कमला शिवानी देखना
७.
उतर कर चाँद पूनम का खड़ा डलझील में जैसे
कुँआरा रूप लगता इक दिया कन्दील में जैसे।
ठहर जातीं उलझ कर ये निगाहें इस तरह अक्सर,
फँसा हो छोर आँचल का पटे की कील में जैसे।
सलोना रूप निखरा डूब कर कुछ प्यार में ऐसे,
चमक जाती सफ़ेदी और ज़्यादा नील में जैसे।
अचानक ज़िन्दगी में बढ़ गईं सरगर्मियाँ इतनी,
चला आया बड़ा हाकिम किसी तहसील में जैसे।
हँसे कुछ देर तक हम आँसुओं के दौर से पहले,
उछल कर एक पत्थर डूब जाए झील में जैसे।
उभर आए अचानक हादसे खामोश आँखों में,
लिखे हों साफ़ सब मुद्दे किसी तफसील में जैसे।
हुआ अहसास ऐसा बादलों में चाँद छिपने पर,
अकेलापन बिखर जाए हज़ारों मील में जैसे।
चुराकर वक्त से दो पल पुरानी याद दुहरा ली,
मना ली हो दिवाली एक मुट्ठी खील में जैसे।
बने हैं दृश्य सारे पुतलियों पर इस करीने से,
कि 'भारद्वाज' उतरे कैमरे की रील में जैसे।
८.
जहाँ वन था पलाशों का शजर कोई नहीं दिखता
डगर में छाँह दे वह गुलमोहर कोई नहीं दिखता
चले थे सोच कर शायद बनेगा कारवाँ आगे
दिखा केवल वहाँ जंगल बशर कोई नहीं दिखता
भटकती ही रही है ज़िन्दगी इस दर से उस दर तक
समेटे अपनी बाँहों में वो दर कोई नहीं दिखता
दिया बन कर जली है उम्र सारी इक प्रतीक्षा में
चुकी बाती बुझा दीया मगर कोई नहीं दिखता
दमकते हैं यहाँ के दिन चमकती हैं यहाँ रातें
भवन बहुमंजिला दिखते हैं घर कोई नहीं दिखता
कसीदे लोग 'भारद्वाज' लिखते हैं स्वयं अपने
कसीदों के लिए उनमें हुनर कोई नहीं दिखता
९.
कदम भटके हुए हों तो उन्हें मंज़िल दिखाता चल,
लकीरें खींच कर उस राह का नक्शा बनाता चल।
किसी अनजान राही का सफ़र आसान करने को,
बतायें दूरियाँ वे मील के पत्थर लगाता चल।
यही मंदिर समझ अपना यही मस्जिद समझ अपनी,
गरीबों बेसहारों को दुआ थोड़ी मनाता चल।
तुम्हारी देह से हर वक्त सौंधी गंध आयेगी,
तनिक इस गाँव की मिट्टी से उबटन कर नहाता चल।
छनकते छंद उतरेंगे खनकते गीत आयेंगे,
पिरोकर शब्द उनमें दर्द के घुँघरू सजाता चल।
उठा दी है घृणा की जिस जगह दीवार आँगन में
ढहा कर अब उसे कुछ प्रेम के पौधे उगाता चल।
यहाँ बैठे हुए जो लोग युग से घुप अंधेरे में,
गुज़रते वक्त 'भारद्वाज' इक दीपक जलाता चल।
१०.
जब परों पर बंदिशें हों तो गगन का क्या करें
हर कली गर्दिश में हो ऐसे चमन का क्या करें
ज़िंदगी भर तन का ढँकना हो नहीं पाया नसीब
मौत के दिन यार रेशम के कफ़न का क्या करें
बस्तियाँ तो जल रही हैं उठ रहा काला धुआँ
घुल रहा है विष हवाओं में हवन का क्या करें
जो दबी चिनगारियों को तो बना देती लपट
पर बुझा देती दियों को उस पवन का क्या करें
तान कर सीना खड़ा है सामने मुजरिम स्वयं
हो नहीं तामील कागज के समन का क्या करें
हाथ में पत्थर लिए इस ओर भी उस ओर भी
खून से माथा सना चोटिल अमन का क्या करें
फ़र्क़ 'भारद्वाज' कथनी और करनी में बहुत
जो कभी पूरा न हो झूठे वचन का क्या करें
११.
काग़ज़ पर भाईचारे के अक्षर दिखते हैं;
पर आँखों में शक हाथों में पत्थर दिखते हैं।
दिल से दिल के बीच बढ़ी है कोसों की दूरी,
हाथ मिलाते चित्र महज आडम्बर दिखते हैं।
समझौता तो सद्भावों के बीच हुआ अक्सर,
पर उस पर बंदूकों के हस्ताक्षर दिखते हैं।
धीरे-धीरे लौटी है रौनक बाज़ारों की,
बस्ती में लेकिन उजड़े-उजड़े घर दिखते हैं।
दंगों के हालात नियंत्रित होते कुछ दिन में,
आँखों में वर्षों दहशत के मन्ज़र दिखते हैं।
आग कहाँ करती है अंतर हिन्दू मुस्लिम में,
उसको तो दोनों ईंधन के गट्ठर दिखते हैं।
जब से 'भारद्वाज' लगा है कर्फ्यू बस्ती में,
घर में खाली डिब्बे और कनस्तर दिखते हैं।
१२.
इक ज़िन्दगी में जब कहीं दिलबर नहीं होता
होते दरो-दीवार तो पर घर नहीं होता
जिसकी नसों में आग का दरिया न बहता हो
काबिल भले हो वह मगर शायर नहीं होता
लहरें न उठतीं हों नहीं तूफ़ान ही आते
सूखा हुआ तालाब इक सागर नहीं होता
जो नब्ज पहचाने न समझे धड़कनें दिल की
होता है सौदागर वो चारागर नहीं होता
उमड़ीं घटाएँ जब कभी बिन प्यार के बरसीं
तन भीग जाता है मगर मन तर नहीं होता
यादों की खुशबू से अगर दालान भर जाते
गुलज़ार सपनों का महल खँडहर नहीं होता
यदि प्यार के बीजों में अंकुर फूटते पहले
तो खेत 'भारद्वाज' का बंजर नहीं होता
१३.
गहन गंभीर मसलों को बड़ा उथला बना डाला,
हमें इस तंत्र ने इक काठ का पुतला बना डाला।
बनाते वक्त इसकी रूपरेखा साफ़ सुथरी थी,
समय की गर्द ने तसवीर को धुँधला बना डाला।
उतारा था यहाँ भागीरथी को मोक्ष देने को,
कि गंदे हाथ धो-धो कर उसे गंदला बना डाला।
नियम की आड़ लेकर झोपड़ी तो तोड़ डाली है,
प्रगति के नाम पर लेकिन वहाँ बंगला बना डाला।
अमीरी तो यहाँ पर हो रही है रात-दिन दूनी,
गरीबी को मसल कर और भी कंगला बना डाला।
कहीं डूबी अभावों में कहीं उलझी तनावों में,
सहज-सी ज़िन्दगी को वक्त ने पगला बना डाला।
हृदय की पीर 'भारद्वाज' जब जब भी पिघलती है,
कभी मकता बना डाला कभी मतला बना डाला।
१४.
हमारे प्यार पर हमको अगर कुछ नाज है तो है
हमारी भी निगाहों में कोई मुमताज है तो है
जमाने के लिए राजा रहे हम अपनी मरजी के
हमारे दिल पे पर इक नाजनी का राज है तो है
दिया बन कर जले दिन रात उसकी मूर्ति के आगे
हमारे प्यार में इक सूफ़िया अंदाज है तो है
हमारा प्यार उठती हाट का सौदा नहीं कोई
बँधे अनुबंध में दुनिया भले नाराज है तो है
खुली है जिंदगी अपनी कहीं परदा नहीं कोई
अँगूठी में जड़ा उसका दिया पुखराज है तो है
हमारे प्यार का आधार बालू का घरोंदा था
हमारी आँख में वह आज तक भी ताज है तो है
उमर इक खूबसूरत मोड़ पर दिल छोड़ आई थी
दिशाओं में उसी की गूँजती आवाज है तो है
फुदकती ही रही हरदम हमारे प्यार की बुलबुल
अगर दुनिया का हर सैयाद तीरंदाज है तो है
न तो समझा रदीफों को न समझे काफ़िए हमने
ग़ज़ल में पर हमारा नाम 'भारद्वाज' है तो है
१५.
कभी सूखे हुए तालाब में दादुर नही आते,
सड़ा हो बीज तो उस बीज में अंकुर नही आते।
कला की साधना में उम्र सारी बीत जाती है,
हवा के फूँकने से बाँसुरी में सुर नहीं आते।
भले हो उर्वरा धरती भले अनुकूल मौसम हो,
करेले की लताओं पर कभी माधुर नहीं आते।
अगर इक पाँव को बैसाखियों की हो गई आदत,
थिरकने के लिए उस पाँव में नूपुर नहीं आते।
यहाँ उस आदमी को कामयाबी मिल नहीं सकती,
जिसे इक झूठ सच में ढालने के गुर नहीं आते।
बचाने के लिए इज़्ज़त कभी धनिया नहीं मरती,
अगर उस रात घर में गाँव के ठाकुर नहीं आते।
हमेशा उर्स पर वह मारते रहते हमें ताना,
कि 'भारद्वाज' तुम अजमेर या जयपुर नहीं आते।