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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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बुधवार, 9 जनवरी 2013

सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' के मुक्तक



मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने
काँटा कठोर है; तीखा है, उसमे उसकी मर्यादा है
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रान्तर का ओछा फूल बने

मैं कब कहता हूँ युद्ध करूँ तो मुझे न तीखी चोट मिले
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले 
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ, मेरा ऊँचा प्रासाद बने 
या पात्र जगत की श्रध्दा की, मेरी धुंधली सी याद बने 

पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा, क्यों विकल करे ये चाह मुझे 
नेतृत्व न मेरा छीन जाए, क्यों इसकी हो परवाह मुझे 
मैं प्रस्तुत हूँ, चाहे मिट्टी जनपद की धुल बने 
फिर उसका कण-कण भी, मेरा गतिरोधक शूल बने 

अपने जीवन का रस देकर, जिसको यत्नों से पाला है 
क्या वहां केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहनकारी हाला है 

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अंतिम रहस्य पहचान लिया
मैंने आहुति बनकर देखा, यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है 
मैं कहता हूँ मैं बढ़ता हूँ, मैं नव की चोटी चढ़ता हूँ 
कुचला जाकर भी धूलि-सा, आंधी-सा और उमड़ता हूँ 

मेरा जीवन ललकार बने, असफ़लता ही असिधार बने 
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने 
भव सारा तुझको हो स्वाहा, सब कुछ तपकर अंगार बने 
तेरी पुकार सा दुर्निवार, मेरा यह नीरव प्यार बने