[1837-1914]
१.
इश्क़ सुनते थे जिसे हम वो यही है शायद
ख़ुद-ब-ख़ुद, दिल में है इक शख़्स समाया जाता
शब को ज़ाहिद से न मुठभेड़ हुई ख़ूब हुआ
नश्अ ज़ोरों पे था शायद न छुपाया जाता
लोग क्यों शेख़ को कहते हैं कि अय्यार है वो
उसकी सूरत से तो ऐसा नहीं पाया जाता
अब तो तफ़क़ीर, से वाइज़,नहीं हटता ‘हाली’
कहते पहले तो दे-ले के हटाया जाता
२.
धूम थी अपनी पारसाई की
की भी और किससे आश्नाई की
क्यों बढ़ाते हो इख़्तलात बहुत
हमको ताक़त नहीं जुदाई की
मुँह कहाँ तक छुपाओगे हमसे
तुमको आदत है ख़ुदनुमाई की
न मिला कोई ग़ारते-ईमाँ
रह गई शर्म पारसाई की
मौत की तरह जिससे डरते थे
साअत आ पहुँची उस जुदाई की
ज़िंदा फिरने की हवस है ‘हाली’
इन्तहा है ये बेहयाई की
३.
है जुस्तजू कि ख़ूब से है ख़ूबतर कहाँ
अब ठहरती है देखिये जाकर नज़र कहाँ
या रब! इस इख़्त्लात का अँजाम हो बख़ैर
था उसको हमसे रब्त मगर इस क़दर कहाँ
इक उम्र चाहिये कि गवारा हो नेशे -इश्क़
रक्खी है आज लज़्ज़ते-ज़ख़्मे-जिगर कहाँ
हम जिस पे मर रहे हैं वो है बात ही कुछ और
आलम में तुझ-से लाख सही , तू मगर कहाँ
४.
बढ़ाओ न आपस में मिल्लत ज़ियादा
मुबादा कि हो जाए नफ़रत ज़ियादा
तक़ल्लुफ़ अलामत है बेग़ानगी की
न डालो तक़ल्लुफ़ की आदत ज़ियादा
करो दोस्तो पहले आप अपनी इज़्ज़त
जो चाहो करें लोग इज़्ज़त ज़ियादा
निकालो न रख़ने नसब में किसी के
नहीं कोई इससे रज़ालत ज़ियादा
करो इल्म से इक़्तसाबे-शराफ़त
नसाबत से है ये शराफ़त ज़ियादा
फ़राग़त से दुनिया में दम भर न बैठो
अगर चाहते हो फ़राग़त ज़ियादा
जहाँ राम होता है मीठी ज़बाँ से
नहीं लगती कुछ इसमें मेहनत ज़ियादा
मुसीबत का इक इक से अहवाल कहना
मुसीबत से है ये मुसीबत ज़ियादा
फिर औरों की तकते फिरोगे सख़ावत
बढ़ाओ न हद से सख़ावत ज़ियादा
कहीं दोस्त तुमसे न हो जाएँ बदज़न
जताओ न अपनी महब्बत ज़ियादा
जो चाको फ़क़ीरी में इज़्ज़त से रहना
न रक्खो अमीरों से मिल्लत ज़ियादा
है उल्फ़त भी वहशत भी दुनिया से लाज़िम
पै उल्फ़त ज़ियादा न वहशत ज़ियादा
फ़रिश्ते से बेहतर है इन्सान बनना
मगर इसमें पढ़ती है मेहनत ज़ियादा
५.
जहाँ में ‘हाली’ किसी पे अपने सिवा भरोसा न कीजिएगा
ये भेद है अपनी ज़िन्दगी का बस इसकी चर्चा न कीजिएगा
इसी में है ख़ैर हज़रते-दिल! कि यार भूला हुआ है हमको
करे वो याद इसकी भूल कर भी कभी तमन्ना न कीजिएगा
कहे अगर कोई तुझसे वाइज़! कि कहते कुछ और करते हो कुछ
ज़माने की ख़ू है नुक़्ताचीनी, कुछ इसकी परवा न कीजिएगा
६.
ऐ इश्क़! तूने अक्सर क़ौमों को खा के छोड़ा
जिस घर से सर उठाया उस घर को खा के छोड़ा
अबरार तुझसे तरसाँ अहरार तुझसे लरज़ाँ
जो ज़द पे तेरी आया इसको गिरा के छोड़ा
रावों के राज छीने, शाहों के ताज छीने
गर्दनकशों को अक्सर नीचा दिखा के छोड़ा
क्या मुग़नियों की दौलत,क्या ज़ाहिदों का तक़वा
जो गंज तूने ताका उसको लुटा के छोड़ा
जिस रहगुज़र पे बैठा तू ग़ौले-राह बनकर
सनआँ-से रास्तरौ को रस्ता भुला के छोड़ा
१.
इश्क़ सुनते थे जिसे हम वो यही है शायद
ख़ुद-ब-ख़ुद, दिल में है इक शख़्स समाया जाता
शब को ज़ाहिद से न मुठभेड़ हुई ख़ूब हुआ
नश्अ ज़ोरों पे था शायद न छुपाया जाता
लोग क्यों शेख़ को कहते हैं कि अय्यार है वो
उसकी सूरत से तो ऐसा नहीं पाया जाता
अब तो तफ़क़ीर, से वाइज़,नहीं हटता ‘हाली’
कहते पहले तो दे-ले के हटाया जाता
२.
धूम थी अपनी पारसाई की
की भी और किससे आश्नाई की
क्यों बढ़ाते हो इख़्तलात बहुत
हमको ताक़त नहीं जुदाई की
मुँह कहाँ तक छुपाओगे हमसे
तुमको आदत है ख़ुदनुमाई की
न मिला कोई ग़ारते-ईमाँ
रह गई शर्म पारसाई की
मौत की तरह जिससे डरते थे
साअत आ पहुँची उस जुदाई की
ज़िंदा फिरने की हवस है ‘हाली’
इन्तहा है ये बेहयाई की
३.
है जुस्तजू कि ख़ूब से है ख़ूबतर कहाँ
अब ठहरती है देखिये जाकर नज़र कहाँ
या रब! इस इख़्त्लात का अँजाम हो बख़ैर
था उसको हमसे रब्त मगर इस क़दर कहाँ
इक उम्र चाहिये कि गवारा हो नेशे -इश्क़
रक्खी है आज लज़्ज़ते-ज़ख़्मे-जिगर कहाँ
हम जिस पे मर रहे हैं वो है बात ही कुछ और
आलम में तुझ-से लाख सही , तू मगर कहाँ
४.
बढ़ाओ न आपस में मिल्लत ज़ियादा
मुबादा कि हो जाए नफ़रत ज़ियादा
तक़ल्लुफ़ अलामत है बेग़ानगी की
न डालो तक़ल्लुफ़ की आदत ज़ियादा
करो दोस्तो पहले आप अपनी इज़्ज़त
जो चाहो करें लोग इज़्ज़त ज़ियादा
निकालो न रख़ने नसब में किसी के
नहीं कोई इससे रज़ालत ज़ियादा
करो इल्म से इक़्तसाबे-शराफ़त
नसाबत से है ये शराफ़त ज़ियादा
फ़राग़त से दुनिया में दम भर न बैठो
अगर चाहते हो फ़राग़त ज़ियादा
जहाँ राम होता है मीठी ज़बाँ से
नहीं लगती कुछ इसमें मेहनत ज़ियादा
मुसीबत का इक इक से अहवाल कहना
मुसीबत से है ये मुसीबत ज़ियादा
फिर औरों की तकते फिरोगे सख़ावत
बढ़ाओ न हद से सख़ावत ज़ियादा
कहीं दोस्त तुमसे न हो जाएँ बदज़न
जताओ न अपनी महब्बत ज़ियादा
जो चाको फ़क़ीरी में इज़्ज़त से रहना
न रक्खो अमीरों से मिल्लत ज़ियादा
है उल्फ़त भी वहशत भी दुनिया से लाज़िम
पै उल्फ़त ज़ियादा न वहशत ज़ियादा
फ़रिश्ते से बेहतर है इन्सान बनना
मगर इसमें पढ़ती है मेहनत ज़ियादा
५.
जहाँ में ‘हाली’ किसी पे अपने सिवा भरोसा न कीजिएगा
ये भेद है अपनी ज़िन्दगी का बस इसकी चर्चा न कीजिएगा
इसी में है ख़ैर हज़रते-दिल! कि यार भूला हुआ है हमको
करे वो याद इसकी भूल कर भी कभी तमन्ना न कीजिएगा
कहे अगर कोई तुझसे वाइज़! कि कहते कुछ और करते हो कुछ
ज़माने की ख़ू है नुक़्ताचीनी, कुछ इसकी परवा न कीजिएगा
६.
ऐ इश्क़! तूने अक्सर क़ौमों को खा के छोड़ा
जिस घर से सर उठाया उस घर को खा के छोड़ा
अबरार तुझसे तरसाँ अहरार तुझसे लरज़ाँ
जो ज़द पे तेरी आया इसको गिरा के छोड़ा
रावों के राज छीने, शाहों के ताज छीने
गर्दनकशों को अक्सर नीचा दिखा के छोड़ा
क्या मुग़नियों की दौलत,क्या ज़ाहिदों का तक़वा
जो गंज तूने ताका उसको लुटा के छोड़ा
जिस रहगुज़र पे बैठा तू ग़ौले-राह बनकर
सनआँ-से रास्तरौ को रस्ता भुला के छोड़ा