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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

अब्बास रज़ा अल्वी

जन्म- फतेहगढ़ उत्तर प्रदेश भारत में।साहित्य, संगीत, चित्रकला, अभिनय और बागबानी का शौक।
 १.
फिर तेज़ हवा का यह झोंका सावन की याद दिलाता है
शायद तुमने फिर याद किया चिठ्ठी का रंग बतलाता है
शायद अमिया के पेडों पर फिर बौर नया लग आया हो
कोयल की गूँजी कु कू ने हर गीत मेरा दोहराया हो
फिर पक्षी डाल पे डोला हो हर गुन्चा गुन्चा झूला हो
बीते बचपन की यादों में क्यों बिछड़ा पल तड़पाता है
२.
फिर किसी आवाज़ ने इस बार पुकारा मुझको
खौफ और र्दद ने क्योंकर यूँ झिंझोड़ा मुझको
मैं तो सोया हुआ था खाक़ के उस बिस्तर पर
जिस पर हर जिस्म नयीं ज़िन्दगी ले लेता है
बस ख्.यालों में नहीं अस्ल में सो लेता है
ऑख खुलते ही एक मौत का मातम देखा
अपने ही शहर में दहशत भरा आलम देखा

किस क़दर खौफ़ ज़दा चीख़ की आवाज़ थी वो
बूढी .बेवा की दम तोड़ती औलाद थी वो
एक बिलख़ते हुये मासूम की किलकार थी वो
कुछ यतीमों की सिसकती हुई फ़रियाद थी वो

मुझको याद आया फिर एक बार वो बचपन मेरा
कुहर की धॅुंंध में लिपटा हुआ सपना मेरा
तब हम एक थे इन्सानियत की छॉव तले
अब हम अनेक हैं हैवानियत के पॉव तले
तब हम सोचते थे सब्ज़ और खुशहाल वतन
अब हम देखते हैं ग़र्क और लाचार वतन
तब फूल थे खु.शियॉ थीं और हम सब थे
अब भूख है ग़मगीरी और हम या तुम
तब तो जीते थे हम और तुम हम सबके लिये
अब तो मरते हैं हम और तुम र्सिफ़ अपने लिये

अब न वो इनसान रहा और न वो भगवान रहा
बस दूर ही दूर तक फैला हुआ हैवान रहा

देख लो सोचलो शायद तुम सम्भल पाओगे
रूह और जिस्म के रिश्तों को समझ पाओगे
क्यों जुदा करते हो रूह से जिस्म "रज़ा"
क्या कभी इस तरह तुम चैन से सो पाओगे 
३.
फ़सादो दर्द और दहशत में जीना
मिला यह आदमी को आदमी से

बुरा कहते हैं हम क्यों क़िस्मतों को
बढ़ी हैं रंजिशे अपनी कमी से

वतन ऐसा जलाया बिजलियों ने
सहम जाते हैं अब हम रोशनी से

जहाँ गुज़रा था एक बचपन सुहाना
वो दर छूटा है कितनी बेदिली से

न जब कोई तुम्हारे पास होगा
बहुत पछताओगे मेरी कमी से

कभी तो यह हकीक़त मान लोगे
तुम्हें चाहा है मैंने सादगी से

हुईं सब ग़र्क वो ख्वाहिश 'रज़ा' की
सुनाऐं क्या तुम्हें अपनी खुशी से