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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

अशोक रावत


जन्म: 15.नवम्बर 1953, गाँव मलिकपुर, ज़िला मथुरा में. 
शिक्षा: अलीगढ़ विश्वविद्यालय से सन 1975 में 5 वर्षीय बी. एससी. इंजी. (सिविल) की डिग्री. 
सम्प्रति: भारतीय खाद्य निगम में डिप्टी जनरल मैनेजर के पद से सेवा निवृत. 
प्रकाशन: थोड़ा सा ईमान ग़ज़ल संग्रह सन 2003 में प्रकाशित। 
उल्लेखनीय: ओक्स्फोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस द्वारा सीबीएसई बोर्ड की कक्षा 8 के पाठ लिए प्रकाशित हिंदी पाठ्यपुस्तक “अंकुर हिंदी पाठमाला”, में ग़ज़ल शामिल. उत्तरप्रदेश हिंदी संसथान की पत्रिका “साहियत्य भारती” के ग़ज़ल अंक का समापादन. भारतीय खाद्य निगम की वार्षिक पत्रिका “साहित्य भारती” का सम्पादन. “दसवें दशक का हिंदी साहित्य” मे हिंदी ग़ज़ल पर लम्बी समीक्षा, 
ग़ज़ल संकलन जिनमें ग़ज़लें प्रकाशित: समकालीन हिंदी ग़ज़ल-संग्रह (साहित्य अकादमी), हिंदुस्तानी ग़ज़लें (राजपाल प्रकाशन), ग़ज़ल दुष्यंत के बाद (वाणी), हिंदी ग़ज़ल यानी (परमेश्वरी प्रकाशन), कस्तूरी (माणिकवर्मा वार्षिकी 2004) आरम्भ 2, 3 और 4(प्रदीप चौबे),हिंदी ग़ज़ल यात्रा-2 ( गिरिराजशरण अग्रवाल), ग़ज़ल इंटर नेशनल (हसीब सोज़),लोकप्रिय हिंदी ग़ज़लें, नई सदी के प्रतिनिधि ग़ज़लकार, धूप आई सीढ़ियों तक, ख़ूबसूरत ग़ज़लें, शायरों की महफ़िल, ग़ज़ल नवांतर, गुलदस्ता, ग़ज़लें हिंदुस्तानी (मनोज पब्लिकेशन) 
पत्र पत्रिकाएं जिनमें रचानाएं प्रकाशित: आजकल, नवनीत, जनसत्ता, दैनिक जागरण, अमर उजाला, नई दुनिया, जनसंदेश-टाइम्स, हरिगंधा, साहित्य भारती, मधुमती, सखी, , अतऐव, संकल्प-रथ, आधारशिला, अक्षरपर्व, काव्या, भाषा-सेतु, महकता-आँचल, तुलसी-प्रभा, समय-सुरभि, युवक, गीतकार, वर्तिका, उत्तरायण, फ़नकार, समांतर, सुखनवर, मिलाप, अंचल भारती, कथाबिम्ब, अभिनव प्रयास, गोलकोणडा दर्पण, समकालीन-सरोकार, अवध-अर्चना, शिवम, अभिव्यक्ति, कविता कोष, हिंदी साहित्य कोष आदि लगभग 250 राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं, इंटर्नेट पत्रिकाओं में गज़लों का प्रकाशन 
काव्यपाठ: दूर्दर्शन, रेडियो और राष्ट्रीय कव्यसमारोहों में निरंतर सहभागिता. 
फेसबुक: अशोक रावत नाम से फेसबुक एकाउंट पर 6 माह में अधिकतम मित्र संख्या 5000 (जिसमें 4800 आवेदन प्राप्त) ग़ज़लों पर प्राय: 300 से 400 लाइक्स, अशोक रावत की गज़लें, पेज 1300 सदस्य, पर प्रकाशित गज़लों पर अधिकतम एक पोस्ट पर 2090 तक पाठक पाहुँचे, हिंदी शायरी ग्रुप मे शामिल एक पोस्ट को 29,000 लोगों ने पोस्ट को शेयर किया, “ग़ज़लों की दुनिया” नाम से एकाउंट पर हिंदी उर्दू की मशहूर ग़ज़लों का प्रकाशन,
सम्पर्क: अशोक रावत, 222,मानस नगर, शाहगंज, आगरा – 282010, 
Email: ashokdgmce@gmail.com, mobile: 9458400433
फेसबुक पेज: यहां पर 
1.
दुश्मनों से भी निभाना चाहते हैं
दोस्त मेरे क्या पता क्या चाहते हैं

हम अगर बुझ भी गये तो फिर जलेंगे
आँधियों को ये बताना चाहते हैं

साँस लेना सीख लें पहले धुएं में
जो हमें जीना सिखाना चाहते हैं

ये जुबां क्यों तल्ख हो जाती है जब हम
गीत कोई गुनगुनाना चाहते हैं

2.
रोज कोई कहीं हादसा देखना
अब तो आदत में है ये फजां देखना

उन दरख्तों की मुरझा गयी कोपलें
जिनको आँखों ने चाहा हरा देखना

रंग आकाश के, गंध बारूद की
और क्या सोचना, और क्या देखना

जाने लोगों को क्या हो गया हर समय
बस बुरा सोचना, बस बुरा देखना

उसको आना नहीं है कभी लौटकर
फिर भी उसका मुझे रास्ता देखना

एक जोखिम भरा काम है दोस्तों
इस समय ख्वाब कोई नया देखना

3.
सारा आलम बस्ती का जंगल जैसा ही है
बदला क्या है आज, सभी कुछ कल जैसा ही है

बरसें तो जानूं ये धब्बे, बादल हैं, क्या हैं
रंग-रूप तो इनका भी बादल जैसा ही है

गमलों में ही पनप रही है सारी हरियाली
बाकी सारा मंजर तो मरुथल जैसा ही है

मंत्रों का उच्चारण हो, या पूजा हो या जाप
मंगल ध्वनियों में भी कोलाहल जैसा ही है

हाथ लगाने पर ही होता है सच का आभास
आँखों देखा तो सब कुछ मखमल जैसा ही है

कितना सच है अब भी गंगा के पानी का स्वाद
सरकारी लेखों में गंगाजल जैसा ही है

4.
थोड़ी मस्ती थोड़ा सा ईमान बचा पाया हूं
ये क्या कम है मैं अपनी पहचान बचा पाया हूं

मैंने सिर्फ उसूलों के बारे में सोचा भर था
कितनी मुश्किल से मैं अपनी जान बचा पाया हूं

कुछ उम्मीदें, कुछ सपने, कुछ महकी-महकी यादें
जीने का मैं इतना ही सामान बचा पाया हूं

मुझमें शायद थोड़ा सा आकाश कहीं पर होगा
मैं जो घर के खिड़की रोशनदान बचा पाया हूं

इसकी कीमत क्या समझेंगे ये सब दुनिया वाले
अपने भीतर मैं जो इक इंसान बचा पाया हूं

खुशबू के अहसास सभी रंगों ने छीन लिए हैं
जैसे-तैसे फूलों की मुस्कान बचा पाया हूं

5.
तय तो करना था सफर हमको सवेरों की तरफ
ले गये लेकिन उजाले ही अंधेरों की तरफ

मील के कुछ पत्थरों तक ही नहीं ये सिलसिला
मंजिलें भी हो गयीं हैं अब लुटेरों की तरफ

जो समंदर मछलियों पर जान देता था कभी
वो समंदर हो गया है अब मछेरों की तरफ

साँप ने काटा जिसे उसकी तरफ कोई नहीं
लोग साँपों की तरफ हैं या सपेरों की तरफ

शाम तक रहती थीं जिन पर धूप की ये झालरें
धूप आती ही नहीं अब उन मुडेरों की तरफ

कुछ तो कम होगा अंधेरा, रोज कुछ जलती हुई
तीलियां जो फेंकता हूं मैं अंधेरों की तरफ

६.
बढ़े चलिये, अँधेरों में ज़ियादा दम नहीं होता
निगाहों का उजाला भी दियों से कम नहीं होता

भरोसा जीतना है तो ये ख़ंजर फैंकने होंगे,
किसी हथियार से अम्नो- अमाँ क़ायम नहीं होता

मनुष्यों की तरह यदि पत्थरों में चेतना होती
कोई पत्थर मनुष्यों की तरह निर्मम नहीं होता

तपस्या त्याग यदि भारत की मिट्टी में नहीं होते
कोई गाँधी नहीं होता, कोई गौतम नहीं होता

ज़माने भर के आँसू उनकी आँखों में रहे तो क्या
हमारे वास्ते दामन तो उनका नम नहीं होता

परिंदों ने नहीं जाँचीं कभी नस्लें दरख्तों की
दरख़्त उनकी नज़र में साल या शीशम नहीं होता

७.
एक दिन मजबूरियाँ अपनी गिना देगा मुझे
जानता हूँ वो कहाँ जाकर दग़ा देगा मुझे

इस तरह ज़ाहिर करेगा मुझ पे अपनी चाहतें
वो ज़माने से ख़फ़ा होगा सज़ा देगा मुझे

वो दिया हूँ मैं जिसे आँधी बुझाएगी ज़रूर
पर यहाँ कोई न कोई फिर जला देगा मुझे

आँधियाँ ले जायेंगी सब कुछ उड़ा कर एक दिन
वक़्त फिर भी चुप रहूँ ये मश्वरा देगा मुझे

सिर्फ़ मुझको हार के डर ही दिखाए जायेंगे
या कि कोई जीत का भी हौसला देगा मुझे

हर क़दम पर ठोकरें हर मोड़ पर मायूसियाँ
ऐ ज़माने और कितनी यातना देगा मुझे

रास्ते की मुश्किलें ही बस गिनाई जायेंगी
या कि कोई मंज़िलों का भी पता देगा मुझे

८. 
जो अमीर थे उन्हें महल दिये गये,
और जो ग़रीब थे कुचल दिये गये.

ख़ार बन के हम जिये तो कुछ नहीं हुआ,
फूल बन के जब जिये मसल दिये गये,

हम से ये कहा गया बदल रहे हैं पाठ,
पृष्ठ संविधान के बदल दिये गये.

सिर्फ़ इस क़सूर पर कि उनकी हाँ में हाँ,
हम नहीं मिला सके कुचल दिये गये.

ध्यान ही नहीं दिया किसी ने शेर पर,
भावना को शब्द जब सरल दिये गये.

कर्म का कहीं कोई हिसाब ही नहीं,
वर्ण देखने के बाद फल दिये गये.

९. 

अब यही ज़माना है, परिक्रमा शिवालों की,
अर्चना अँधेरों की ,कामना उजालों की.

नीति और नैकिता धर्म और अनुशासन,
कौन फ़िक्र करता है आज इन खयालों की.

भक्ति और पूजा से काम अब नहीं चलता,
अर्ध्य माँगती हैं अब मूर्तियाँ शिवालों की.

पर्चियों में लिख दें जो काम वो ही होता है,
किस में दम है ठुकरा दे पेशकश दलालों की.

टूटते नहीं फिर भी हौसले लुटेरों के,
रात दिन का पहरा है गश्त कोतवालों की.

चूर – चूर सपने हैं, दूर – दूर अपने हैं,
और मेरे चारों ओर भीड़ है सवालों की.

जिस में हम नहीं होते जिस में तुम नहीं होते
एक और दुनिया है मर्सडीज़वालों की.

१०. 

तूफ़ानों की हिम्मत आँधी का रुतबा देखा,
तुम लोगों ने मौसम का असली चेहरा देखा.

सूरज, चाँद, सितारे अँधियारों के क़्ब्ज़े में,
क्या हमने इस आज़ादी का ही सपना देखा.

अपराधी संसद के भीतर कैसे पहुँच गये,
जनता ने भी इन में आखिर ऐसा क्या देखा.

मुझको तो हर पत्थर में तस्वीर नज़र आई,
हर पत्थर में जब मैं ने एक आईना देखा.

फूल बेचारे क्या कहते मौसम के बारे में,
समझ गया सब जब मैं ने इनका चेहरा देखा.

मेरे अधिकारोंवाले पैरे ही ग़ायब हैं,
ध्यान से मैं ने संविधान का हर पन्ना देखा.

सारी नैकताएं शोकेसों में बंद मिलीं,
ऊँचे ऊँचे गेटोंवाला जो बंगला देखा.

११. 
सर झुकाने उसकी चौखट पर मैं रोज़ाना गया,
ये अलग किस्सा है क़ाफ़िर क्यों मुझे माना गया.

अब किसी की फ़िक्र में ये बात शामिल ही नहीं,
नाम जाना भी गया तो किस लिये जाना गया.

जो हमारी जान थी, पहचान थी, ईमान थी,
आज उस तहज़ीब का हर एक पैमना गया.

क़ातिलों का पक्ष सुन कर ही अदालत उठ गई,
बेगुनाहों की गवाही को कहाँ माना गया.

उनकी हाँ में हाँ मिलाना मुझको नामंज़ूर था
मेरे सीने पर तमंचा इसलिये ताना गया.

मैं किसी पहचान में आऊँ न आऊँ ग़म नहीं,
मेरी ग़ज़लों को तो दुनिया भर में पहचाना गया.

१२. 
कोई कुछ भी कहे लेकिन बहुत सम्मान पाया है,
मेरी ग़ज़लों ने ही शायद कोई वरदान पाया है.

बचा लेता है मुझको भीड़ में खोने नहीं देता,
विरासत में जो थोड़ा सा मैं ने ईमान पाया है.

कभी इतनी जटिल जिसका कही.हल ही नहीं कोई,
कभी इस ज़िंदागी को किस क़दर आसान पाया है.

बना है सिर्फ़ फूलों के लिये हर काँच का गुलदान,
भला काँटों ने भी कोई कभी गुलदान पाया है.

न दुनिया को अभी मैं ठीक से पहचान पाया हूँ,
न कोई ठीक से मुझको अभी पहचान पाया है.

१३. 
हमारे हमसफ़र भी घर से जब बाहर निकलते हैं,
हमेशा बेच में कुछ फ़ासला रख कर निकलते हैं.

छतों पर आज भी उनकी जमा हैं ईंट के अद्धे,
कहीं क़ानून से सदियों पुराने डर निकलते हैं.

समझ लेता हूँ मैं दंगा अलीगढ़ में हुआ होगा,
मेरी बस्ती में मुझसे लोग जब बच कर निकलते हैं.

किसे गुस्सा नहीं आता कहाँ झगड़े नहीं होते,
मगर हर बात पर क्या इस तरह ख़ंजर निकलते हैं.

जिन्हें हीरा समझ कर रख लिया हमने तिज़ोरी में,
कसौटी पर परखते हैं तो सब पत्थर निकलते हैं.

कहीं पर आग लग जाये, कहीं विस्फोट हो जाये,
हमेशा खो ट मेरी कौम के भीतर निकलते हैं.

१४. 
जिन्हें अच्छा नहीं लगता हमारा मुस्कराना भी,
उन्हीं के साथ लगता है हमें तो ये ज़माना भी.

इसी कोशिश में दौनों हाथ मेरे हो गये ज़ख़्मी,
चराग़ों को जलाना भी, हवाओं से बचाना भी.

अगर ऐसे ही आँखों में जमा होते रहे आँसू,
किसी दिन भूल जायेंगे खुशी में मुसकराना भी.

उधर ईमान की ज़िद है कि समझौता नहीं कोई,
मुसीबत है इधर दो वक़्त की रोटी जुटाना भी.

किसी गफ़लत में मत रहना नज़र में आँधियों के है,
तुमहारा आशियाना भी हमारा शामियाना भी.

परिंदों की ज़रूरत है खुला आकाश भी लेकिन,
कहीं पर शाम ढलते ही ज़रूरी है ठिकाना भी.

ज़ियादा सोचना बेकार है, इतना समझलो बस,
इसी दुनिया से लड़ना है, इसी से है निभाना भी.

१५. 
आसमाँ में डूबनेवाले सितारों की तरफ़,
ध्यान किसका है शहीदों के मज़ारों की तरफ़.

साख फूलों की गिरी है, इसमें कोई शक़ नहीं,
किस लिए पर देखते हैं लोग ख़ारों की तरफ़.

सब्र मेरा टटता है सोचता हूँ क्या करूँ,
देखता हूँ जब झुलसते देवदारों की तरफ़.

उस तरफ़ सूरज उगा भी और फिर ढल भी गया,
देखते ही रह गये हम लोग तारों की तरफ़.

ध्यान हटता ही नहीं विस्फोटकों के शोर से,
चैन में जी हो तो देखूँ भी बहारों की तरफ़.

शाम का ढलना हुआ बस्ती हमारी लुट गई,
उँगलियाँ फिर उठ रही हैं पहरेदारों की तरफ.

१६. 
सुलह का एक दस्तावेज़ फिर तैयार करते हैं,
चलो हम ग़लतियाँ अपनी सभी स्वीकार करते हैं.

में परदों को हटा देता हूँ खिड़की खोल देता हूँ
मेरी आलोचना घर के दरोदीवार करते हैं.

हमें काँटे चमन के चाहते हैं आज भी लेकिन,
न जाने फूल कैसे हैं कि छुप कर वार करते हैं.

परों को बेच देती हैं यहाँ पर तितलियाँ ख़ुद ही,
यहां ख़ुद फूल अपनी गंध का व्यापर करते हैं.

किताबों में सिमट कर रह गये आदर्श नैकिता,
न इनका मान पंडित ही न अब फ़नकार करते हैं.

१७. 
भले ही रोशनी कम हो मगर ताज़ा हवा तो है,
हमारे पास ज़िंदा रहने का एक रास्ता तो है.

हमारे पास रुतबा है ,न शौहरत है न वैभव ही,
भले ही कुछ न हो जीने का लेकिन हौसला तो है.

तुम्हारे पास फ़ुर्सत ही कहाँ रिश्ता निभाने की,
वो मेरा कुछ नहीं लगता मगर मुझसे ख़फ़ा तो है.

मुझे कुछ भी नहीं कहना है उसकी बेवफ़ाई पर,
अदावत ही सही रिश्तों का कोई सिलसिला तो है.

उसे तुलसी कहो मीरा कहो रसखान या दुष्यंत,
उजालों के समर्थन में कहीं कोई खड़ा तो है.

नहीं मालूम क़र्फ़्यू क्यों लगा है शहर में लेकिन,
धुआँ इतना बताता है कहीं पर कुछ हुआ तो है.

कभी खिड़की कभी चौखट कभी दहलीज़के पत्थर,
हमारी ग़लतियों पर कोई हम को टोकता तो है.

१८. 
उनके तो खोटे सिक्के भी सौ बार खरे हो जाते हैं,
जब मेरा नम्बर आता है क़ानून कड़े हो जाते हैं.

हर एक ज़रूरत पर उनकी जी जान लगा देता हूँ मैं,
जब मुझे ज़रूरत होती है वो दूर खड़े हो जाते हैं.

ये सीलन मेरी आँखों की ज़ख़्मों में ऐसी बैठ गई,
जब चलती है पुर्वाई तो सब ज़ख़्म हरे हो जाते हैं.

कुछ लोग सगे होते हैं पर रहते हैं अनजानों जैसे,
पर ऐसा भी हो जाता है अनजान सगे हो जाते हैं

ये जीवन है इस जीवन में, सब यूँ ही चलता रहता है,
कुछ लोग निकट आ जाते हैं कुछ लोग परे हो जाते हैं.

१९. 
अगर तू इक दिया उम्मीद का मन में जला देता,
उजाला सैकड़ों सम्भावनाओं का पता देता.

परिंदे भूल जायें पेड़ को ये बात मुमकिन है,
मगर वो पेड़ था कैसे परिंदों को भुला दता.

ज़माने के चलन मैंने अगर अपना लिये होते,
मुझे भी ये ज़माना एक दिन पत्त्थर बना देता.

अगर ए ज़िंदगी तू साथ मेरा भी कभी देती,
तोअपनी हरखुशी मैं एक दिन तुझ पर लुटा देता.

नहीं तूफ़ान उसकी राह में आता कभी कोई,
वो दरिया पार करने का इरादा यदि जता देता.

मुझे इस बात से शायद कहीं ज़्यादा ख़ुशी होती,
मुझे अपना समझता और जब चाहे दग़ा देता.

२०. 
तुमने जो करना था आख़िरकार कर दिया है,
उत्तर तो देना ही है जब वार कर दिया है.

जो भी कर सकते हों कर लें ये आँधी तूफ़ान,
शीश झुकाने से मैं ने इंकार कर दिया है.

मुझ पर लापरवाही का आरोप लगाते हैं,
सपनों ने मेरा जीना दुश्वार कर दिया है.

बहुमत चाहे काँटों का हो लेकिन फ़ूलों ने,
काँटों की सत्ता को अस्वीकार कर दिया है.

सिर्फ़ दस्तख़त करने हैं पेड़ों को काग़ज़ पर,
आँधी ने अनुबंध नया तैयार का दिया है.

इतने सारे पत्थर क्या सब झूठ बोलते हैं,
तुमने अपनी नीयत का इज़हार कर दिया है.

२१. 
जीते हैं पर इस जीने में चाव नहीं कोई,
मन को राहत दे ऐसा प्रस्ताव नहीं कोई.

मन पर जितने घाव बने हैं सब अपनों के है,
जल्दी पुरनेवाला इनमें घाव नहीं कोई.

जाने कैसे परख रही है हीरों को दुनिया,
नक़ली के आगे असली का भाव नहीं कोई.

वो ही भाषण, वो ही वादे, वो ही सब बातें,
कुछ परिवर्तन हो ऐसा बदलाव नहीं कोई.

माँझी के मन में होता है तूफ़ानों का डर,
तूफ़ानों से डरनेवाली नाव नहीं कोई.

केवल इतना जान सका हूँ ये जो जीवन है,
नदियोंका जल है जिसमें ठहराव नहीं कोई.