१.
दम बुलबुले-असीर का तन से निकल गया
झोंका नसीम का जूं ही सन से निकल गया।
लाया वो साथ ग़ैर को मेरे जनाज़े पर
शोला-सा एक ज़ेबे-कफ़न से निकल गया।
साक़ी बग़ैर शब जो पिया आबे-आतशीं
शोला वो बन के मेरे दहन से निकल गया।
अब के बहार में ये हुआ जोश, ऎ जुनूँ!
सारा लहू हमारे बदन से निकल गया।
उस रश्के-गुल के जाते ही बस आ गई ख़िजाँ
हर गुल भी साथ बू के चमन से निकल गया।
अहले-ज़मीं ने क्या सितमें-नौ किया कोई!
नाला जा आसमाने-कुहन से निकल गया।
सुनसान मिस्ले-वादि-ए-ग़ुरब है लखानऊ
शायद कि ’नासिख़’ वतन से निकल गया।
२.
चोट दिल को आहे-रसा पैदा हो
सदमा शीशे को पहुँचे तो सदा पैदा हो।
कुश्ता-ए-तेगे-जुदाई हूँ, यकीं हैं मुझको
अज्ब से अज्ब कलायत को जुदा पैदा हो।
हम हैं, बीमारे-मुहब्बत ये दुआ मांगते हैं
मिस्ले-अक्सीर न दुनिया में दवा पैदा हो।
कह रहा है जरसे-क्लब बा-आवाज़े-बलंद
गुम हो रह बर तो अभी राहे-ख़ुदा पैदा हो।
किस को पहुँचा नहीं ऎ जान, तेरा फ़ैज़े-क़दम
संग पर क्यों न निशाने-कफ़े-पा पैदा हो।
मिल गया ख़ाक में पिस-पिस के हसीनों, पर मैं
कब्र पर बाएँ कोई चीज़, हिना पैदा हो।
अश्क थम जाएँ जो फ़ुरक़त में तो आहें निकलें
ख़ुश्क हो जाए जो पानी तो हवा पैदा हो।
याँ कुछ असबाब के हम बंदे ही मुहताज नहीं
न ज़वाँ हो तो कहाँ नामे ख़दा पैदा हो।
गुल तुझे देख के गुलशन में कहे, उम्र-दराज़!
शाख़ के बदले वही दस्ते-दुआ पैदा हो।
न सरे-ज़ुल्फ़ मिला, बल-बे दराज़ी तेरी
रिश्ताएँ-तूले अमल का भी सिरा पैदा हो।
अभी ख़ुर्शीद जो छुप जाए, तो ज़र्रात कहाँ
तू ही पिनहाँ हो तो फिर कौन भला पैदा हो।
क्या मुबारक हो मेरा दश्ते-जुनूँ ऎ ’नासिख़’
बेज़ा-ए-बूम भी टूटे तो हुमा पैदा हो।
३.
वाएजा मस्जिद से अब जाते हैं मयख़ाने को हम
फेंक कर ज़रफ़े-वज़ू लेते हैं पैमाने को हम।
क्या मगस बैठे भला उस शोला-रु के जिस्म पर
अपने दाग़ों से जला देते हैं परवाने को हम।
तेरे आगे कहते हैं गुल खोलकर वाज़ू-ए-बर्ग
गुलशने-आलम से हैं तैयार, उड़ जाने को हम।
कौन करता है बुतों के आगे सजदा, ज़ाहेदा!
सर को दे दे मार कर, तोड़ेंगे बुतख़ाने को हम।
जन ग़िज़ालों के नज़र आ जाते हैं चश्मे-सिहाह
दश्त में करते हैं याद सियाहख़ाने को हम!
बोसा-ए-ख़ाले-ज़नख़दा से शिफ़ा होगी हमें
क्या करेंगे, ऎ तबीब इस तेरे बिहदाने को हम।
बांधते हैं अपने दिल में ज़ुल्फ़े-जानाँ का ख्याल
इस तरह ज़ंजीर पहनाते हैं दीवाने को हम।
पंजा-ए-वहशत से होता है गरेबाँ तार-तार
देखते हैं काकुले-जना में जब शाने को हम।
अक्ल खो दी थी, जो ऎ ’नासिख़’ जूनूने-इश्क़ ने
आश्ना समझा किए इक-उम्र बेगाने को हम।