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सन्देश

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और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

सतीश चन्द्र श्रीवास्तव



१.
ये कैसा शमाँ है ये कैसा मंजर है।
इंसानियत की पीठ में धंसा खंजर है।


हैवानियत की फसल कटी तब-तब,
सोच इंसान की जब-जब हुई बंजर है।


ये खिड़कियों से झाँकते उदास चेहरे,
सोचते है क्‍या यही उनका शहर है।


ले जाओ उठा कर रख दो इसे कहीं,
कैसे कह दूं यही मेरा शहर है।


नफरतों की आँधी चला लो जितनी,
उखड़ नहीं सकेगा ये प्रेम का शहर है।


लोग तो चाहते हैं मोहब्‍बत से रहना,
कोई आता, कानों में कहता प्रेम जहर है।


२.
सब कुछ है मेरे देश में रोटी नहीं तो क्‍या।
वादा ही तुम लपेट लो लंगोटी नहीं तो क्‍या।


सत्‍ता के खेल में इंसान बन गये मोहरे,
खेलने को गर कहीं गोटी नहीं तो क्‍या।


दर्द तो होता सिर्फ दर्द अपना पराया नहीं,
आँख पत्‍थर की है तुम्‍हारी रोती नहीं तो क्‍या।


लाजमी है ख्‍वाब देखना हर इंसान के लिए,
हर ख्‍वाब की ताबीर होती नहीं तो क्‍या।


३.
यहाँ हादसा हर रोज होता है क्‍यूं।
नया अफसाना रोज बनता है क्‍यूं।


खुशबू कमल को गर फैलाना ही था,
कीचड़ में वो फिर खिलता है क्‍यूं।


मन्‍जिल की तलब हो गयी है अगर,
रास्‍तों की मुश्किलों को सोचता है क्‍यूं।


तन्‍हाँ ही चलना है हर इक को यहाँ,
राही की तलाश तू करता है क्‍यूं।


गीत है होंठों पर गर मुक्‍म्‍मल,
साजों की दुकान खोजता है क्‍यूं।


सिर्फ एक सांस की जरूरत है तुझे,
ज़माने भर की दौलत चाहता है क्‍यूं।


४.
जिन्‍दगी की आंच बचा कर रख।
अपने जीवन के राज़ बचा कर रख।


हो जायेगा सब कुछ सुनहरा यहाँ,
आँखें में कोई ख्‍वाब सजा कर रख।


बहुत फलसफे सुनाती है जिन्‍दगी,
दीवार में इसकी कान लगा कर रख।


सिर्फ सच्‍चाई ही नहीं है जिन्‍दगी,
जिन्‍दगी भ्रम है, इसे बचा कर रख।


जोड़ के मत रखो दर्द को दर्द से।
गम को गम से घटा कर रख।


सिर्फ रोशनी में ही न रहा कीजिए,
अंधेरों पर भी नजर जमा कर रख।