प्रोफ़ेसर वसीम बरेलवी का जन्म बरेली में 18 फरवरी 1940 को हुआ था.प्रोफ़ेसर वसीम बरेलवी की प्रमुख कृतियाँ --तबस्सुमे ग़म ,आंसू मेरे दामन तेरे ,मिजाज़ ,आंख आंसू हुई ,मेरा क्या ,आँखों -आँखों रहे ,मौसम अन्दर बाहर के |
१.
१.
मैं चाहता भी यही था वो बेवफ़ा निकले
उसे समझने का कोई तो सिलसिला निकले
किताब-ए-माज़ी के औराक़ उलट के देख ज़रा
न जाने कौन सा सफ़ाह मुड़ा हुआ निकले
जो देखने में बहुत ही क़रीब लगता है
उसी के बारे में सोचो तो फ़ासला निकले
लहू न हो तो कलाम तरजुमाँ नहीं होता
हमारे दौर में आँसू ज़ुबाँ नहीं होता
जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा
किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता
ये किस मक़ाम पे लाई है मेरी तनहाई
के मुझ से आज कोई बदगुमाँ नहीं होता
मैं उस को भूल गया हूँ ये कौन मानेगा
किसी चराग़ के बस में धुआँ नहीं होता
वसीम सदियों की आँखों से देखिये मुझको
वो लफ़्ज़ हूँ जो कभी दास्ताँ नहीं होता
२.
उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है
नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है
थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटे
सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है
बहुत बेबाक आँखों में तअल्लुक़ टिक नहीं पाता
मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है
सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है
मेरे होंठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
कि इस के बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है
३.
अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपायें कैसे
तेरी मर्ज़ी कि मुताबिक नज़र आयें कैसे
घर सजाने का तस्सवुर तो बहुत बाद का है
पहले ये तय हो कि इस घर को बचायें कैसे
क़ह-क़हा आँख का बरताव बदल देता है
हँसनेवाले तुझे आँसू नज़र आयें कैसे
कोई अपनी ही नज़र से तो हमें देखेगा
एक क़तरे को समुन्दर नज़र आयें कैसे
४.
अपने हर हर लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा
उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा
तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा ही नहीं
मैं गिरा तो मसला बन कर खड़ हो जाऊँगा
मुझको चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र
रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा
सारी दुनिया की नज़र में है मेरा अहद-ए-वफ़ा
एक तेरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा
५.
मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो
के मैं ज़मीन के रिश्तों से कट गया यारो
वो बे-ख़याल मुसाफ़िर मैं रास्ता यारो
कहाँ था बस में मेरे उस को रोकना यारो
मेरे क़लम पे ज़माने की गर्द ऐसी थी
के अपने बारे में कुछ भी न लिख सका यारो
तमाम शहर ही जिसकी तलाश में गुम था
मैं उस के घर का पता किस से पूछता यारो
६.
मैं अपने ख़्वाब से बिछड़ा नज़र नहीं आता
तू इस सदी में अकेला नज़र नहीं आता
अजब दबाव है इन बहती हवाओं का
घरों का बोझ भी उठता नज़र नहीं आता
मैं एक सदा पे हमेशा को घर छोड़ आया था
मगर पुकारने वाला नज़र नहीं आता
मैं तेरी राह से हटने को हट गया लेकिन
मुझे तो कोई भी रस्ता नज़र नहीं आता
धुआँ भरा है यहाँ सभी की आँखों में
किसी को घर मेरा जलता नज़र नहीं आता
७.
आते आते मेरा नाम सा रह गया
उस के होंठों पे कुछ काँपता रह गया
वो मेरे सामने ही गया और मैं
रास्ते की तरह देखता रह गया
झूठ वाले कहीं से कहीं बढ़ गये
और मैं था कि सच बोलता रह गया
आँधियों के इरादे तो अच्छे न थे
ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया
८.
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है
ख़ुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है
शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है
ज़मीं की कैसी वक़ालत हो फिर नहीं चलती
जब आसमान से कोई फ़ैसला उतरता है
तुम आ गये हो तो फिर कुछ चाँदनी सी बातें हों
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है
९.
लहू न हो तो क़लम तरजुमाँ नहीं होता
हमारे दौर में आँसू ज़ुबाँ नहीं होता
जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा
किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता
ये किस मक़ाम पे लाई है मेरी तनहाई
के मुझ से आज कोई बदगुमाँ नहीं होता
मैं उसको भूल गया हूँ ये कौन मानेगा
किसी चराग़ के बस में धुआँ नहीं होता
'वसीम' सदियों की आँखों से देखिए मुझ को
वो लफ़्ज़ हूँ जो कभी दास्ताँ नहीं होता
१०.
कौन-सी बात कहाँ, कैसे कही जाती है
ये सलीक़ा हो तो हर बात सुनी जाती है
जैसा चाहा था तुझे, देख न पाए दुनिया
दिल में बस एक ये हसरत ही रही जाती है
एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने
कैसे माँ-बाप के होंठों से हँसी जाती है
कर्ज़ का बोझ उठाए हुए चलने का अज़ाब
जैसे सर पर कोई दीवार गिरी जाती है
अपनी पहचान मिटा देना हो जैसे सब कुछ
जो नदी है वो समंदर से मिली जाती है
पूछना है तो ग़ज़ल वालों से पूछो जाकर
कैसे हर बात सलीक़े से कही जाती है
११.
कही-सुनी पे बहुत एतबार करने लगे
मेरे ही लोग मुझे संगसार करने लगे
पुराने लोगों के दिल भी हैं ख़ुशबुओं की तरह
ज़रा किसी से मिले, एतबार करने लगे
नए ज़माने से आँखें नहीं मिला पाये
तो लोग गुज़रे ज़माने से प्यार करने लगे
कोई इशारा, दिलासा न कोई वादा मगर
जब आई शाम तेरा इंतज़ार करने लगे
हमारी सादामिजाज़ी की दाद दे कि तुझे
बगैर परखे तेरा एतबार करने लगे
१२.
९.
लहू न हो तो क़लम तरजुमाँ नहीं होता
हमारे दौर में आँसू ज़ुबाँ नहीं होता
जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा
किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता
ये किस मक़ाम पे लाई है मेरी तनहाई
के मुझ से आज कोई बदगुमाँ नहीं होता
मैं उसको भूल गया हूँ ये कौन मानेगा
किसी चराग़ के बस में धुआँ नहीं होता
'वसीम' सदियों की आँखों से देखिए मुझ को
वो लफ़्ज़ हूँ जो कभी दास्ताँ नहीं होता
१०.
कौन-सी बात कहाँ, कैसे कही जाती है
ये सलीक़ा हो तो हर बात सुनी जाती है
जैसा चाहा था तुझे, देख न पाए दुनिया
दिल में बस एक ये हसरत ही रही जाती है
एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने
कैसे माँ-बाप के होंठों से हँसी जाती है
कर्ज़ का बोझ उठाए हुए चलने का अज़ाब
जैसे सर पर कोई दीवार गिरी जाती है
अपनी पहचान मिटा देना हो जैसे सब कुछ
जो नदी है वो समंदर से मिली जाती है
पूछना है तो ग़ज़ल वालों से पूछो जाकर
कैसे हर बात सलीक़े से कही जाती है
११.
कही-सुनी पे बहुत एतबार करने लगे
मेरे ही लोग मुझे संगसार करने लगे
पुराने लोगों के दिल भी हैं ख़ुशबुओं की तरह
ज़रा किसी से मिले, एतबार करने लगे
नए ज़माने से आँखें नहीं मिला पाये
तो लोग गुज़रे ज़माने से प्यार करने लगे
कोई इशारा, दिलासा न कोई वादा मगर
जब आई शाम तेरा इंतज़ार करने लगे
हमारी सादामिजाज़ी की दाद दे कि तुझे
बगैर परखे तेरा एतबार करने लगे
१२.
क्या दुःख है समन्दर को बता भी नहीं सकता
आंसू की तरह आंख तक आ भी नहीं सकता
तू छोड़ रहा है ,तो ख़ता इसमें मेरी क्या
हर शख्स मेरा साथ निभा भी नहीं सकता
प्यासे रहे जाते हैं ज़माने के सवालात
किसके लिए ज़िंन्दा हूँ ,बता भी नहीं सकता
घर ढूंढ रहे हैं मेरा रातों के पुजारी
मैं हूँ कि चरागों को बुझा भी नहीं सकता
वैसे तो इक आंसू ही बहाकर मुझे ले जाये
ऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता
१३.
तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते
इसीलिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते
मुहब्बतों के दिनों की यही खराबी है
यह रूठ जायें तो फिर लौटकर नहीं आते
जिन्हें सलीका है तहज़ीब -ए -गम समझने का
उन्हीं के रोने में आंसू नज़र नहीं आते
खुशी की आँख में आंसू की भी जगह रखना
बुरे ज़माने कभी पूछकर नहीं आते
बिसाते -इश्क पे बढ़ना किसे नहीं आता
यह और बात कि बचने के घर नहीं आते
'वसीम' जहन बनाते हैं तो वही अखबार
जो ले के एक भी अच्छी ख़बर नहीं आते
१४.
मैं आसमां पे बहुत देर रह नहीं सकता
मगर यह बात ज़मीं से तो कह नहीं सकता
किसी के चेहरे को कब तक निगाह में रक्खूं
सफ़र में एक ही मंज़र तो रह नहीं सकता
यह आज़माने की फुर्सत तुझे कभी मिल जाये
मैं आंखों -आंखों में क्या बात कह नहीं सकता
सहारा लेना ही पड़ता है मुझको दरिया का
मैं एक कतरा हूँ तनहा तो बह नहीं सकता
लगा के देख ले ,जो भी हिसाब आता हो
मुझे घटा के वह गिनती में रह नहीं सकता
यह चन्द लम्हों की बेइख्तियारियां हैं 'वसीम'
गुनाह से रिश्ता बहुत देर रह नहीं सकता
१५.
मिरी नज़र के सलीके में क्या नहीं आता
बस इक तिरी ही तरफ़ देखने नहीं आता
अकेले चलना तो मेरा नसीब था कि मुझे
किसी के साथ सफ़र बाँटना नहीं आता
उधर तो जाते हैं रस्ते तमाम होने को
इधर से होके कोई रास्ता नहीं आता
जगाना आता है उसको कई तरीकों से
घरों पे दस्तकें देने खुदा नहीं आता
यहाँ पे तुम ही नहीं आस पास और भी हैं
पर उस तरह से तुम्हें सोचना नहीं आता
पड़े रहो यूँ ही सहमे हुए दियों की तरह
अगर हवाओं के पर बांधना नहीं आता
१६.
ये है तो सबके लिए हो ये ज़िद हमारी है
इस एक बात पे दुनिया से जंग जारी है
उड़ान वालो !उड़ानों पे वक्त भारी है
परों की अब के नहीं हौसलों की बारी है
मैं कतरा हो के भी तूफां से जंग लेता हूँ
मुझे बचाना समन्दर की जिम्मेदारी है
उसी से जलते हैं सहरा -ए -आरज़ू में चराग
ये तिश्नगी तो मुझे ज़िन्दगी से प्यारी है
कोई बताये ये उसके गुरुरे बेजा को
वो जंग मैंने लड़ी ही नहीं जो हारी है
हर एक साँस पे पहरा है बे -यकीनी का
ये ज़िन्दगी तो नहीं मौत की सवारी है
दुआ करो की सलामत रहे मिरी हिम्मत
ये इक चराग कई आँधियों पे भारी है