" हिन्दी काव्य संकलन में आपका स्वागत है "


"इसे समृद्ध करने में अपना सहयोग दें"

सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
हिन्दी काव्य संकलन में उपल्ब्ध सभी रचनायें उन सभी रचनाकारों/ कवियों के नाम से ही प्रकाशित की गयी है। मेरा यह प्रयास सभी रचनाकारों को अधिक प्रसिद्धि प्रदान करना है न की अपनी। इन महान साहित्यकारों की कृतियाँ अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाना ही इस ब्लॉग का मुख्य उद्देश्य है। यदि किसी रचनाकार अथवा वैध स्वामित्व वाले व्यक्ति को "हिन्दी काव्य संकलन" के किसी रचना से कोई आपत्ति हो या कोई सलाह हो तो वह हमें मेल कर सकते हैं। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जायेगी। यदि आप अपने किसी भी रचना को इस पृष्ठ पर प्रकाशित कराना चाहते हों तो आपका स्वागत है। आप अपनी रचनाओं को मेरे दिए हुए पते पर अपने संक्षिप्त परिचय के साथ भेज सकते है या लिंक्स दे सकते हैं। इस ब्लॉग के निरंतर समृद्ध करने और त्रुटिरहित बनाने में सहयोग की अपेक्षा है। आशा है मेरा यह प्रयास पाठकों के लिए लाभकारी होगा.(rajendra651@gmail.com)

फ़ॉलोअर

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

संजय ग्रोवर

संजय ग्रोवर की दो पुस्तकें गजल संग्रह ‘खुदाओं के शहर में आदमी’ तथा व्यंग्य संग्रह ‘मरा हुआ लेखक सवा लाख का’ प्रकाशित हो चुकी हैं।

samvadoffbeat@yahoo.co.in

१.

पद सुरक्षा धन प्रतिष्‍ठा हर तरह गढ़ते रहे
और फिर बोले कि हम तो उम्र भर लड़ते रहे

काग़ज़ों की कोठरी में कैद कर डाला वजूद
फिर किसी अखबार में तारीफे-खुद पढ़ते रहे

मंच पर जिन रास्तों के थे मुखालिफ उम्र भर
मंच के पीछे से वो ही सीढ़ियां चढ़ते रहे

नाम पर बदलाव के इतना इज़ाफा कर दिया
रोज़ तस्वीरें बदल कर चौखटे जड़ते रहे

इन अंधेरों में भी होगी प्यार की नन्हीं सी लौ
बस इसी उम्मीद में मेरे क़दम बढ़ते रहे

२.

कोई भी तयशुदा क़िस्सा नहीं हूं
किस्सी साजिश का मैं हिस्सा नहीं हूं

किसी की छाप अब मुझपर नहीं है
मैं ज़्यादा दिन कहीं रुकता नहीं हूं

तुम्हारी और मेरी दोस्ती क्या
मुसीबत में, मैं ख़ुद अपना नहीं हूं

मुझे मत ढूंढना बाज़ार में तुम
किसी दुकान पर बिकता नहीं हूं

मैं ज़िन्दा हूं मुसलसल यूं न देखो
किसी दीवार पर लटका नहीं हूं

मुझे देकर न कुछ तुम पा सकोगे
मैं खोटा हूं मगर सिक्का नहीं हूं

तुम्हे क्यूं अपने जैसा मैं बनाऊँ
यक़ीनन जब मैं ख़ुद तुमसा नहीं हूं

लतीफ़ा भी चलेगा गर नया हो
मैं हर इक बात पर हंसता नहीं हूं

ज़मीं मुझको भी अपना मानती है
कि मैं आकाश से टपका नहीं हूं

3.

जब तलक अनकही, अनसुनी धूप है
दिल को ऐसा लगे गुनगुनी धूप है

बेटियों ने सहारा दिया बाप को
देखो सूरज के सर पे तनी धूप है

‘जन्मदाता ही बेटी से बेज़ार है !’
लेके सूरज को, यूं, अनमनी धूप है

दादियों नानियों सबको समझा रही
देखो ज़ेहन की कितनी ग़नी धूप है

बेईमानी के बादल हैं चारों तरफ
खबरे-ईमान सी सनसनी धूप है

जानलेवा है गरमी औ’ फुटपाथ पर-
मुफलिसों के लिए कटखनी धूप है

सर पे सूरज है और चाँद खिड़की में है
यानि जां पे मेरी आ बनी धूप है

४.

जहाज़ कागज़ी ताउम्र नहीं चलने का
संभल भी जा कि अभी वक्त है संभलने का

अगर तू भेड़चाल में ही इसकी शामिल है
ज़माना तुझसे कोई चाल नहीं चलने का

वो जो बदलाव के विरोधियों के मुखिया थे
कि ले उड़े हैं वही श्रेय युग बदलने का

वो सियासत में साफगोई के समर्थक हैं
सो उनको हक़ है सरे-आम सबको छलने का

जो उनसे हाथ मिलाते हैं जानते ही नहीं
कि वक्त आ रहा है जल्द हाथ मलने का

५.

पागलों की इस कदर कुछ बदगु़मानी बढ़ गयी
उनके हिस्से की दवा भी हमको खानी पड़ गयी

उनको कांधा देने वाली भीड़ थी, भगवान था
हमको अपनी लाश आखिर खुद उठानी पड़ गयी

भीड़ का उनको नशा था, बोतलें करती भी क्या
तिसपे रसमों-रीतियों की सरगिरानी बढ़ गयी

छोटे शहरों, छोटे लोगों को मदद मिलनी तो थी
हाकिमों के रास्ते में राजधानी पड़ गयी

कुछ अलग लिक्खोगी तो तुम खुद अलग पड़ जाओगी
यूं ग़ज़ल को झांसा दे, आगे कहानी बढ़ गयी

‘वार्ड नं. छ’ को ‘टोबा टेक सिंह’ ने जब छुआ
किस कदर छोटी मिसाले-आसमानी पड़ गयी

दिल में फ़िर उट्ठे ख्याल ज़हन में ताज़ा सवाल
आए दिन कुछ इस तरह मुझपर जवानी चढ़ गयी

६.

उसको मैं अच्छा लगता था
मैं इसमें क्या कर सकता था

एक ग़ज़ब की सिफ़त थी मुझमें
रोते-रोते हंस सकता था

नज़र थी उसपे जिसके लिए मैं
फ़कत गली का इक लड़का था

जाने क्यूं सब दाँव पे रक्खा
चाहता तो मैं बच सकता था

मेरा ख़ुदको सच्चा कहना
उसे बुरा भी लग सकता था

मेरा उसको अच्छा कहना
उसे बुरा भी लग सकता था

बेहद ऊँचा उड़ा वो क्यूंकि
किसी भी हद तक गिर सकता था

ख़ानदान और वंश के झगड़े !
मै तो केवल हंस सकता था

७.

मोहरा, अफवाहें फैला कर
बात करे क्या आँख मिला कर

औरत को माँ-बहिन कहेगा
लेकिन, थोड़ा आँख दबाकर

पर्वत को राई कर देगा
अपने तिल का ताड़ बना कर

वक़्त है उसका, यारी कर ले
यार मेरे कुछ तो समझा कर

ख़ुदको ही कुछ समझ न आया
जब बाहर निकला समझा कर

८.
मंज़िलों की खोज में तुमको जो चलता सा लगा 
मुझको तो वो ज़िन्दगी भर घर बदलता सा लगा

धूप आयी तो हवा का दम निकलता सा लगा 
और सूरज भी हवा को देख जलता सा लगा

झूठ जबसे चाँदनी बन भीड़ को भरमा गया 
सच का सूरज झूठ के पाँवों पे चलता सा लगा

मेरे ख्वाबों पर ज़मीनी सच की बिजली जब गिरी 
आसमानी बर्क क़ा भी दिल दहलता सा लगा

चन्द क़तरे ठन्डे क़ागज़ के बदन को तब दिए 
खून जब अपनी रगों में कुछ उबलता सा लगा

९.

वो मेरा ही काम करेंगे 
जब मुझको बदनाम करेंगे

अपने ऐब छुपाने को वो 
मेरे क़िस्से आम करेंगे

क्यों अपने सर तोहमत लूं मैं 
वो होगा जो राम करेंगे

दीवारों पर खून छिड़क कर 
हाक़िम अपना नाम करेंगे

हैं जिनके किरदार अधूरे 
दूने अपने दाम करेंगे

अपनी नींदें पूरी करके 
मेरी नींद हराम करेंगे

जिस दिन मेरी प्यास मरेगी 
मेरे हवाले जाम करेंगे

कल कर लेंगे कल कर लेंगे 
यूँ हम उम्र तमाम करेंगे

सोच-सोच कर उम्र बिता दी 
कोई अच्छा काम करेंगे

कोई अच्छा काम करेंगे 
खुदको फिर बदनाम करेंगे