विज्ञान व्रत का जन्म 17जुलाई 1943 को मेरठ के टेरा गांव में हुआ था |कृतियाँ -बाहर धूप खड़ी है ,चुप कि आवाज ,जैसे कोई लूटेगा ,तब तक हूँ ,महत्वपूर्ण गज़ल संग्रह हैं खिड़की भर आकाश इनके दोहों का संकलन है
१.
बरसों ख़ुद से रोज़ ठनी
तब जाकर कुछ बात बनी
तब जाकर कुछ बात बनी
वो दोनों हमराह न थे
पर दोनों में खूब छनी
घटना उसके साथ घटे
और लगे मुझको अपनी
इतने दिन बीमार रहा
ऊपर से तनख़ा कटनी
उसने ख़ुद को ख़र्च किया
और बताई आमदनी
२.
और सुनाओ कैसे हो तुम
अब तक पहले जैसे हो तुम
अब तक पहले जैसे हो तुम
अच्छा अब ये तो बतलाओ
कैसे अपने जैसे हो तुम
यार सुनो घबराते क्यूँ हो
क्या कुछ ऐसे वैसे हो तुम
क्या अब अपने साथ नहीं हो
तो फिर जैसे-तैसे हो तुम
ऐश परस्ती ! तुम से तौबा !!
मज़दूरी के पैसे हो तुम
३.
मुझको जब ऊँचाई दे
मुझको जमीं दिखाई दे
एक सदा ऐसी भी हो
मुझको साफ सुनाई दे
दूर रहूँ मैं खुद से भी
मुझको वो तनहाई दे
एक खुदी भी मुझमें हो
मुझको अगर खुदाई दे
४.
खुद से आंख मिलाता है
फिर बेहद शरमाता है
कितना कुछ उलझाता है
जब खुद को सुलझाता है
खुद को लिखते लिखते वो
कितनी बार मिटाता है
वो अपनी मुस्कानों में
कोई दर्द छुपाता है
५.
सुन लो जो सय्याद करेगा
वो मुझको आजाद करेगा
आँखों ने ही कह डाला है
तू जो कुछ इरशाद करेगा
एक जमाना भूला मुझको
एक जमाना याद करेगा
काम अभी कुछ ऐसे भी हैं
जो तू अपने बाद करेगा
तुझको बिलकुल भूल गया हूँ
जा तू भी क्या याद करेगा
६.
सारा ध्यान खजाने पर है
उसका तीर निशाने पर है
अब इस घर के बंटवारे में
झगड़ा बस तहखाने पर है
होरी सोच रहा हा उसका
नाम यहाँ किस दाने पर है
सबकी नजरों में हूँ जब से
मेरी आँख जमाने पर है
कांप रहा है आज शिकारी
ऐसा कौन निशाने पर है
७.
जुगनू ही दीवाने निकले अँधियारा झुठलाने निकले
ऊँचे लोग सयाने निकले
महलों में तहख़ाने निकले
वो तो सबकी ही ज़द में था
किसके ठीक निशाने निकले
आहों का अंदाज़ नया था
लेकिन ज़ख़्म पुराने निकले
जिनको पकड़ा हाथ समझकर
वो केवल दस्ताने निकले
८.
मुझको अपने पास बुलाकर
तू भी अपने साथ रहा कर
अपनी ही तस्वीर बनाकर
देख न पाया आँख उठाकर
बे-उन्वान रहेंगी वरना
तहरीरों पर नाम लिखा कर
सिर्फ़ ढलूँगा औज़ारों में
देखो तो मुझको पिघलाकर
सूरज बनकर देख लिया ना
अब सूरज-सा रोज़ जलाकर
९.
मैं कुछ बेहतर ढूँढ़ रहा हूँ
घर में हूँ घर ढूँढ़ रहा हूँ
घर की दीवारों के नीचे
नींव का पत्थर ढूँढ़ रहा हूँ
जाने किसकी गरदन पर है
मैं अपना सर ढूँढ़ रहा हूँ
हाथों में पैराहन थामे
अपना पैकर ढूँढ़ रहा हूँ
मेरे क़द के साथ बढ़े जो
ऐसी चादर ढूँढ़ रहा हूँ
१०.
तुम हो तो ये घर लगता है
वरना इसमें डर लगता है
कुछ भी नज़र न आए मुझको
आईना पत्थर लगता है
उसका मुझसे यूँ बतियाना
सच कहता हूँ डर लगता है
जो ऊँचा सर होता है ना
इक दिन धरती पर लगता है
चमक रहे हैं रेत के ज़र्रे
प्यासों को सागर लगता है
११.
सुन लो जो सय्याद करेगा
वो मुझको आज़ाद करेगा
आँखों ने वो कह डाला है
तू जो कुछ इरशाद करेगा
एक ज़माना भूला मुझको
एक ज़माना याद करेगा
काम अभी कुछ ऐसे भी हैं
जो तो अपने बाद करेगा
तुझको बिल्कुल भूल गया हूँ
जा तू भी क्या याद करेगा
१२.
बच्चे जब होते हैं बच्चे
ख़ुद में रब होते हैं बच्चे
सिर्फ़ अदब होते हैं बच्चे
इक मकतब होते हैं बच्चे
एक सबब होते हैं बच्चे
ग़ौरतलब होते हैं बच्चे
हमको ही लगते हैं वर्ना
बच्चे कब होते हैं बच्चे
तब घर में क्या रह जाता है
जब ग़ायब होते हैं बच्चे
१३.
मैं था तनहा एक तरफ
और ज़माना एक तरफ़
तू जो मेरा हो जाता
मैं हो जाता एक तरफ़
अब तू मेरा हिस्सा बन
मिलना-जुलना एक तरफ़
यूँ मैं एक हक़ीक़त हूँ
मेरा सपना एक तरफ़
फिर उससे सौ बार मिला
पहला लमहा एक तरफ़
१४.
वो सितमगर है तो है
अब मेरा सर है तो है
आप भी हैं मैं भी हूँ
अब जो बेहतर है तो है
जो हमारे दिल में था
अब ज़ुबाँ पर है तो है
दुश्मनों की राह में
है मेरा घर, है तो है
एक सच है मौत भी
वो सिकन्दर है तो है
पूजता हूँ मैं उसे
अब वो पत्थर है तो है