" हिन्दी काव्य संकलन में आपका स्वागत है "


"इसे समृद्ध करने में अपना सहयोग दें"

सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
हिन्दी काव्य संकलन में उपल्ब्ध सभी रचनायें उन सभी रचनाकारों/ कवियों के नाम से ही प्रकाशित की गयी है। मेरा यह प्रयास सभी रचनाकारों को अधिक प्रसिद्धि प्रदान करना है न की अपनी। इन महान साहित्यकारों की कृतियाँ अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाना ही इस ब्लॉग का मुख्य उद्देश्य है। यदि किसी रचनाकार अथवा वैध स्वामित्व वाले व्यक्ति को "हिन्दी काव्य संकलन" के किसी रचना से कोई आपत्ति हो या कोई सलाह हो तो वह हमें मेल कर सकते हैं। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जायेगी। यदि आप अपने किसी भी रचना को इस पृष्ठ पर प्रकाशित कराना चाहते हों तो आपका स्वागत है। आप अपनी रचनाओं को मेरे दिए हुए पते पर अपने संक्षिप्त परिचय के साथ भेज सकते है या लिंक्स दे सकते हैं। इस ब्लॉग के निरंतर समृद्ध करने और त्रुटिरहित बनाने में सहयोग की अपेक्षा है। आशा है मेरा यह प्रयास पाठकों के लिए लाभकारी होगा.(rajendra651@gmail.com)

फ़ॉलोअर

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

सुरेन्द्र सिंघल

 25 मई 1948 को बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश में जन्म. सवाल ये है गज़ल पर इनकी चर्चित पुस्तक है जो मेधा बुक्स, दिल्ली से प्रकाशित है.सहारनपुर महोत्सव-२००५ में 'रामधारी सिंह दिनकर' सम्मान से समादृत।

१.

वो केवल हुक़्म देता है, सिपहसालार जो ठहरा
मैं उसकी जंग लड़ता हूँ, मैं बस हथियार जो ठहरा

दिखावे की ये हमदर्दी, तसल्ली, खोखले वादे
मुझे सब झेलने पड़ते हैं, मैं बेकार जो ठहरा

तू भागमभाग में इस दौर की शामिल हुई ही क्यों
मैं कैसे साथ दूँ तेरा, मैं कम-रफ़्तार जो ठहरा

मुहब्बत, दोस्ती, चाहत, वफ़ा, दिल और कविता से
मेरे इस दौर को परहेज़ है, बीमार जो ठहरा

घुटन लगती न यूँ, कमरे में इक दो खिड़कियाँ होतीं
मैं केवल सोच सकता हूँ, किरायेदार जो ठहरा

उसे हर शख़्स को अपना बनाना ख़ूब आता है
मगर वो ख़ुद किसी का भी नहीं, हुशियार जो ठहरा


२.

रूखी-सूखी-सी रोटियाँ भी छीन
तन पे बाकी हैं धज्जियाँ भी छीन

अंत में राक्षस ही मरता है
मुझसे ऐसी कहानियाँ भी छीन

मेरा घऱ-खेत छीनने वाले
मुझसे चंबल की घाटियाँ भी छीन

गंध माटी की मुझमें बाकी है
इस ख़ज़ाने की कुंजियाँ भी छीन

वरना ख़तरा ही रहेगा तुझको
मुझसे ग़ज़लों की बर्छियाँ भी छीन


३.

कहीं कुछ तो बदलना चाहिए अब
कि जैसी है न दुनिया चाहिए अब

मैं कब तक बैठ पाऊँगा लिहाज़न
मुझे महफ़िल से उठना चाहिए अब

ये बदबू मारते तालाब ठहरे
मुझे दरिया में बहना चाहिए अब

फिर उसके बाद हंगामा तो होगा
पर अपनी बात कहना चाहिए अब

लकीरें हाथ की कब तक कहेंगी
मेरे हाथों को कहना चाहिए अब

ख़ुदा को रख लिया ज़िंदा बहुत दिन
उसे हर हाल मरना चाहिए अब

मैं अपने आप से भागा फिरूँ हूँ
मुझे ख़ुद से भी लड़ना चाहिए अब


४.

इन दबी सिसकियों से क्या होगा
लोग बहरे हैं, चीख़ना होगा

सोचिये, क्यों वो दे गया गाली
टालिये मत, कि सिरफिरा होगा

आम लोगों की बात कर कर के
शख़्स वो शख़्स हो गया होगा

मेरा होना न होना बेमानी
कह रहा हूँ, मुझे लगा होगा

गर यही आपकी मुहब्बत है
फिर तो मुझको भी सोचना होगा


५.

सवाल ये तो नहीं है कि उसने देखा क्या
सवाल ये है गवाही में वो कहेगा क्या


अगर ये घर है, तो घर जैसा क्यों नहीं लगता
अगर नहीं है ,तो अब और इसमें रहना क्या


मैं सावधान हूँ तुझसे तू मुझसे चौकन्ना
तनिक तो सोच कि ये भी है कोई रिश्ता क्या


न मिलने पर है खुशी ,और न गम बिछुड़ने का
गुजर गया है तेरे मेरे बीच ऐसा क्या


जवाब सोच कर आया है सब सवालों के
गिला गर उससे करूँ भी तो इससे क्या होगा

६.
 मैं इतने शोर शराबे में बात क्या करता
बिता भी देता तेरे घर में रात क्या करता


मैं चाहता था तेरे साथ जीना और मरना
तेरे बगैर हुई वारदात क्या करता


तुम एक डाल पर खुश हो तो तुमसे क्या शिकवा
मुझे तो डोलना था पात -पात क्या करता


वो जंग लड़ता तो मैं सामना करता उसका
पर उसने मुझपे लगाई थी घात क्या करता


मैं जिंदगी को मुहब्बत ही मानता हूँ दोस्त
मैं फिर किसी को भी शह और मात क्या करता

७.

जिंदगी तुझसे मैं साँसों के सिवा चाहूँ हूँ
वरना तू साथ मेरा छोड़ क्षमा चाहूँ हूँ


तू खुदा है तो अलग रह के ही तनहाई झेल
आदमी है तो तेरे साथ जुड़ा चाहूँ हूँ


तंग दिल ,तंग -नज़र ,तंग -खयालों वाले
घेर कर मुझको खड़े हैं ,मैं हवा चाहूँ हूँ


यूँ तेरे रहमों करम पर मैं जियूँ ,नामंजूर
मैं खुदा फिर से बगावत की सजा चाहूँ हूँ


कोई दीवाना भी हो इतने सयानों में यहाँ
गर नहीं है तो यहाँ से मैं उठा चाहूँ हूँ 

८.

खुद अपने आप पे मुझको था ऐतबार बहुत
अब अपने आप से रहता हूँ होशियार बहुत


वो जिसने कोई भी वादा नहीं किया मुझसे
उस एक शख्स का रहता है इंतज़ार बहुत


वो खुद तो मेरी पहुँच से निकल गया बाहर
जता रहा है मगर मुझपे इख़्तियार बहुत


शरीक दिल से खुशी में न हो सका मेरी गी
वो लग रहा था मुझे मेरा गमगुसार बहुत


तमाम उम्र तजुर्बों में काट दी मैंने

मैं जिन्दगी का रहा हूँ कसूरवार बहुत

९.

खामुशी ओढ़ ली ,ख़ामोशी बिछा ली मैंने
अजनबी शोर में ऐसे ही निभा ली मैंने

देख बंजर में तेरी याद उगा ली मैंने
देख कंदील हवाओं में जला ली मैंने

यूँ नज़र तेरी निगाहों से चुरा ली मैंने
जैसे खुद प्यास समन्दर से छुपा ली मैंने

दिल बहलता ही नहीं कितना अकेलापन है
फिर किसी दर्द को आवाज़ लगा ली मैंने

जाने क्या सोच के महफ़िल में चला आया था
जाने क्या देख के महफ़िल से विदा ली मैंने

१०
 औरत से बस धोखा कर
फिर उसको ही रुसवा कर

फ़तवों का कर इस्तेमाल
औरत को इमराना कर

वो क्या चाहे है ,मत पूछ
हर औरत को गुड़िया कर

औरत जिंस है तेरे लिए
रोज़ ख़रीदा बेचा कर

औरत मर्द बराबर हैं
हाँ -हाँ कह कर ना -ना कर

नर्क बना इस जीवन को
उसमें स्वर्ग का वादा कर