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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

एहसान "दानिश"


१.
कभी मुझको साथ लेकर, कभी मेरे साथ चल कर
वो बदल गये अचानक मेरी ज़िन्दगी बदल कर

हुये जिसपे मेहरबाँ तुम कोई ख़ुशनसीब होगा
मेरी हसरतें तो निकलीं मेरे आँसूओं में ढल के

तेरी ज़ुल्फ़-ओ-रुख़ के क़ुर्बाँ दिल-ए-ज़ार ढूँढता है
वही चम्पई उजाले वही सुरमई धुंदलके

कोई फूल बन गया है कोई चाँद कोई तारा
जो चिराग़ बुझ गये हैं तेरी अंजुमन में जल के

मेरे दोस्तो ख़ुदारा मेरे साथ तुम भी ढूँडो
वो यहीं कहीं छुपे हैं मेरे ग़म का रुख़ बदल के


२.
यूँ न मिल मुझसे ख़फ़ा हो जैसे
साथ चल मौज-ए-सबा हो जैसे

लोग यूँ देख कर हँस देते हैं
तू मुझे भूल गया हो जैसे

इश्क़ को शिर्क की हद तक न बढ़ा
यूँ न मिल हमसे ख़ुदा हो जैसे

मौत भी आई तो इस नाज़ के साथ
मुझपे एहसान किया हो जैसे

ऐसे अंजान बने बैठे हो
तुम को कुछ भी न पता हो जैसे

हिचकियाँ रात को आती ही रहीं
तू ने फिर याद किया हो जैसे

ज़िन्दगी बीत रही है "दानिश"
एक बेजुर्म सज़ा हो जैसे


३.
सिर्फ़ अश्क-ओ-तबस्सुम में उलझे रहे
हमने देखा नहीं ज़िन्दगी की तरफ़

रात ढलते जब उनका ख़याल आ गया
टिक-टिकी बँध गई चाँदनी की तरफ़

कौन सा जुर्म है,क्या सितम हो गया
आँख अगर उठ गई, आप ही की तरफ़

जाने वो मुल्तफ़ित हों किधर बज़्म में
आँसूओं की तरफ़ या हँसी की तरफ़

तेरी बेझिझक हँसी से न किसी का दिल हो मैला
ये नगर है आईनों का यहाँ साँस ले सम्भल के


४.
पुरसिश-ए-ग़म का शुक्रिया, क्या तुझे आगाही नहीं
तेरे बग़ैर ज़िन्दगी दर्द है, ज़िन्दगी नहीं

दौर था एक गुज़र गया, नशा था एक उतर गया
अब वो मुक़ाम है जहाँ शिक्वा-ए-बेरुख़ी नहीं

तेरे सिवा करूँ पसंद क्या तेरी क़ायनात में
दोनों जहाँ की नेअमतें, क़ीमत-ए-बंदगी नहीं

लाख ज़माना ज़ुल्म ढाये, वक़्त न वो ख़ुदा दिखाये
जब मुझे हो यक़ीं कि तू हासिल-ए-ज़िन्दगी नहीं

दिल की शगुफ़्तगी के साथ राहत-ए-मयकदा गई
फ़ुर्सत-ए-मयकशि तो है, हसरत-ए-मयकशी गई

ज़ख़्म पे ज़ख़्म खाके जी, अपने लहू के घूँट पी
आह न कर, लबों को सी, इश्क़ है दिल्लगी नहीं

देख के ख़ुश्क-ओ-ज़र्द फूल, दिल है कुछ इस तरह मलूल
जैसे तेरी ख़िज़ाँ के बाद, दौर-ए-बहार ही नहीं


५.
नज़र फ़रेब-ए-कज़ा खा गई तो क्या होगा
हयात मौत से टकरा गई तो क्या होगा

नई सहर के बहुत लोग मुंतज़िर हैं मगर
न-ई सहर भी कजला गई तो क्या होगा

न रहनुमाओं की मजलिस में ले चलो मुझको
मैं बे-अदब हूँ हँसी आ गई तो क्या होगा

ग़म-ए-हयात से बेशक़ है ख़ुदकुशी आसाँ
मगर जो मौत भी शर्मा गई तो क्या होगा

शबाब-ए-लाला-ओ-गुल को पुकारने वालों
ख़िज़ाँ-सिरिश्त बहार आ गई तो क्य होगा

ये फ़िक्र कर कि इस आसूदगी के धोके में
तेरी ख़ुदी को भी मौत आ गई तो क्या होगा

ख़ुशी छिनी है तो ग़म का भी ऐतमाद न कर
जो रूह ग़म से भी उकता गई तो क्या होगा