१.
कुछ इस अदा से मिलते हो जानाँ कभी कभी
काँटे भी लगने लगते हैं कलियाँ कभी कभी
जब ज़ब्त-ए-ग़म दिल पे न जानाँ कोई रहा
मोती सजा लिये हैं सर-ए-मिज़्गाँ कभी कभी
शायद के नाख़ुदा को भी लोगो ख़बर न थी
रुख़ अपना मोड़ लेता है तूफ़ाँ कभी कभी
कुछ यूँ लगा कि हुस्न सितारों में घिर गया
देखी जो उनिकी माँग में अफ़्शाँ कभी कभी
दिल पर लगी जो चोट तो जी भर के रो लिये
यूँ भी किया है दर्द का दरमाँ कभी कभी
२.
नादाँ हो इस क़दर तुम्हे ये भी ख़बर नहीं
चलता है मसलेहत से भी इंसा कभी कभी
तुम उनको क्या कहोगे जो झूठी अना के साथ
देखे गये लिबास में उरियाँ कभी कभी
ईसार में वफ़ा में अक़ीदत में प्यार में
एजाज़ वो लगा है नुमायाँ कभी कभी