१.
संग जब आईना दिखाता है
तेशा क्या क्या नज़र चुराता है
सिलसिला प्यास का बताता है
प्यास दरिया कहाँ बुझाता है
रैग-ज़रों में जैसे तपती धूप
यूँ भी उस का ख़याल आता है
सुन रहा हूँ ख़िराम-ए-उम्र की चाप
अक्स आवाज़ बनता जाता है
वो भी क्या शख़्स है के पास आ कर
फ़ासले दूर तक बिछाता है
२.
कब तलक प्यास के सहरा में झुलसते जायें
अब ये बादल जो उठे हैं तो बरसते जायें
कौन बतलाये तुम्हें कैसे वो मौसम हैं कि जो
मुझसे ही दूर रहें मुझ में ही बसते जायें
हाये क्या लोग ये आबाद हुये हैं मुझ में
प्यार के लफ़्ज़ लिखें लहजे से डसते जायें
आईना देखूँ तो इक चेहरे के बे-रन्ग नुक़ूश
एक नादीद्दा-सी ज़ंजीर में कसते जायें
जुज़ मुहब्बत किसे आया है मयस्सर उम्मीद
ऐसा लम्हा कि जिधर सदियों के रस्ते जायें