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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

मनीष शुक्ल

मनीष शुक्ल का जन्म 24 जून 1971को पुरवा ,जिला उन्नाव में हुआ था.इनका गज़ल संग्रह ख़्वाब पत्थर हो गए हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओँ में प्रकाशित हो चुका है |

१.
गए मौसम का डर बांधे हुए है
परिंदा अब भी पर बांधे हुए है
बुलाती हैं चमकती शाह राहें
मगर कच्ची डगर बांधे हुए है
मुहब्बत की कशिश भी क्या कशिश है
समंदर को क़मर बांधे हुए है
बिखर जाता कभी का मैं खला में.
दुआओं का असर बांधे हुए है
चला जाऊं जुनूं के जंगलों में
ये रिश्तों का नगर बांधे हुए है
हक़ीक़त का पता कैसे चलेगा?नज़ारा ही नज़र बांधे हुए है
गए लम्हों की इक ज़ंजीर या रब
मिरे शाम ओ सहर बांधे हुए है


२.
आख़िरी कोशिश भी कर के देखते
फिर उसी दर से गुज़र के देखते
गुफ़्तगू का कोई तो मिलता सिरा
फिर उसे नाराज़ कर के देखते
काश जुड़ जाता वो टूटा आईना
हम भी कुछ दिन बन संवर के देखते
रास्ते को ही ठिकाना कर लिया
कब तलक हम ख़्वाब घर के देखते
काश मिल जाता कहीं साहिल कोई
हम भी कश्ती से उतर के देखते
हो गया तारी संवरने का नशा
वरना ख्वाहिश थी बिखर के देखते
दर्द ही गर हासिल ए हस्ती है तो
दर्द की हद से गुज़र के देखते


३.
फ़कीराना तबीयत थी बहुत बेबाक लहजा था
कभी मुझमें भी हँसता खेलता इक शख्स रहता था

बगूले ही बगूले हैं मिरी वीरान आँखों में
कभी इन रेगज़ारों में कोई दरिया भी बहता था

तुझे जब देखता हूँ तो ख़ुद अपनी याद आती है
मिरा अंदाज़ हंसने का कभी तेरे ही जैसा था

कभी परवाज़ पर मेरी हज़ारों दिल धड़कते थे
दुआ करता था कोई तो कोई ख़ुशबाश कहता था

कभी ऐसे ही छाईं थीं गुलाबी बदलियाँ मुझ पर.
कभी फूलों की सुहबत से मिरा दामन भी महका था

मैं था जब कारवां के साथ तो गुलज़ार थी दुनिया
मगर तन्हा हुआ तो हर तरफ सहरा ही सहरा था

बस इतना याद है सोया था इक उम्मीद सी लेकर
लहू से भर गयीं आंखें न जाने ख़्वाब कैसा था

४.

नए मंज़र सराबों के मिरी आँखों में भर देना

अगर मंजिल नज़र आये मुझे गुमराह कर देना

मुझे ये कशमकश ये शोर ओ ग़ुल सैराब करते हैं
मिरी कश्ती को दरिया और दरिया को भंवर देना

मिरी आवारगी ही मेरे होने की अलामत है
मुझे तर्क ए सफ़र के बाद भी कोई सफ़र देना

मिरी परवाज़ की हसरत यक़ीनन ज़ोर मारेगी
अगर उड़ने लगूं तो मेरे बाल ओ पर कतर देना

सुना है दश्त में आगे बहुत तारीक है रस्ता
मिरे रख्त ए सफ़र में चाँद या ख़ुर्शीद धर देना

बुझा देना ज़रा पहले दिया मेरी समाअत का
कभी मेरी रिहाई की मुझे जब तुम ख़बर देना

जुदा करना मिरे इस ख़्वाब से तुम दफ्फ़तन मुझको
जुदाई की मुझे घड़ियाँ ख़ुदाया मुख़्तसर देना

५.
रफ़्ता रफ़्ता रंग बिखरते जाते हैं
तस्वीरों के दाग़ उभरते जाते हैं
वक़्त की साज़िश गहरी होती जाती है
दीवारों के रंग उतरते जाते हैं
बन कर फिर आसेब भटकने लगते हैं
दिल के वो अहसास जो मरते जाते हैं
यादों में इक टीस बनी ही रहती है
धीरे धीरे ज़ख्म तो भरते जाते हैं
आब ओ दाना और घरौंदों के सपने
पंछी की परवाज़ कतरते जाते हैं
आख़िर तक इंसान अकेला रहता है
यूँ ही माह ओ साल गुज़रते जाते हैं
ज़ख्मों में हर रोज़ इज़ाफ़ा होता है
ग़ज़लों के मफ़हूम संवरते जाते हैं

६.
काग़ज़ों पर मुफ़लिसी के मोर्चे सर हो गए
और कहने के लिए हालात बेहतर हो गए

प्यास की शिद्दत के मारों की अज़ीयत देखिये
ख़ुश्क आँखों में नदी के ख़्वाब पत्थर हो गए,

ज़र्रा ज़र्रा खौफ़ में है, गोशा गोशा जल रहा
अबके मौसम के न जाने कैसे तेवर हो गए

सबके सब सुलझा रहे हैं आसमां की गुत्थियाँ
मसअले सारे ज़मीं के हाशिये पर हो गए

ख़ाक चेहरे जिस्म पत्थर मुन्जमिद तन्हाइयां
ऐसा लगता है कि जैसे लोग खंडहर हो गए

फूल अब करने लगे हैं ख़ुदकुशी का फैसला
बाग़ के हालात देखो कितने अबतर हो गए

हमने तो पास ए अदब में बंदापरवर कह दिया
और वो समझे कि सच में बंदापरवर हों गए

७.

इश्क़ के दर्द का चारा आख़िर किसके बस में होता है
जो पहले दिल में होता था अब नस नस में होता है


उड़ने के अरमान सभी के पूरे कब हो पाते हैं
उड़ने का अरमान अगरचे हर बेकस में होता है


चाँद सितारों पर रहने की ख्वाहिश अच्छी है लेकिन
चाँद सितारों पर रह पाना किसके बस में होता है


एक इरादा कर के घर से चलने में है दानाई
लोगों का नुक़सान हमेशा पेश ओ पस में होता है


रिश्तों की बुनियाद कहाँ हिलती है फिर अफ़वाहों से
पुखता पाएदार भरोसा जब आपस में होता है


प्यार की पहली बारिश में भी है बिलकुल वैसा जादू.
जैसा जादू भीनी भीनी मुश्क़ ए खस में होता है


मेरे जैसा लोहा आख़िर सोने में तब्दील हुआ
तुझमे शायद वो सब कुछ है जो पारस में होता है


उस से बातें करने में सब खौफ़ हवा हो जाते हैं
किस दरजा पुरजोर दिलासा इक ढाढ़स में होता है