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शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

‘नज़ीर बनारसी’

१.

बुझा है दिल भरी महफ़िल में रौशनी देकर
मरूँगा भी तो हज़ारों को ज़िन्दगी देकर

क़दम-क़दम पे रहे अपनी आबरू का ख़याल
गई तो हाथ न आएगी जान भी देकर

बुज़ुर्गवार ने इसके लिए तो कुछ न कहा
गए हैं मुझको दुआ-ए-सलामती देकर

हमारी तल्ख़-नवाई को मौत आ न सकी
किसी ने देख लिया हमको ज़हर भी देकर

न रस्मे दोस्ती उठ जाए सारी दुनिया से
उठा न बज़्म से इल्ज़ामे दुश्मनी देकर

तिरे सिवा कोई क़ीमत चुका नहीं सकता
लिया है ग़म तिरा दो नयन की ख़ुशी देकर


२.
इक रात में सौ बार जला और बुझा हूँ
मुफ़लिस का दिया हूँ मगर आँधी से लड़ा हूँ

जो कहना हो कहिए कि अभी जाग रहा हूँ
सोऊँगा तो सो जाऊँगा दिन भर का थका हूँ

कंदील समझ कर कोई सर काट न ले जाए
ताजिर हूँ उजाले का अँधेरे में खड़ा हूँ

सब एक नज़र फेंक के बढ़ जाते हैं आगे
मैं वक़्त के शोकेस में चुपचाप खड़ा हूँ

वो आईना हूँ जो कभी कमरे में सजा था
अब गिर के जो टूटा हूँ तो रस्ते में पड़ा हूँ

दुनिया का कोई हादसा ख़ाली नहीं मुझसे
मैं ख़ाक हूँ, मैं आग हूँ, पानी हूँ, हवा हूँ

मिल जाऊँगा दरिया में तो हो जाऊँगा दरिया
सिर्फ़ इसलिए क़तरा हूँ कि मैं दरिया से जुदा हूँ

हर दौर ने बख़्शी मुझे मेराजे मौहब्बत
नेज़े पे चढ़ा हूँ कभी सूलह पे चढ़ा हूँ

दुनिया से निराली है ‘नज़ीर’ अपनी कहानी
अंगारों से बच निकला हूँ फूलों से जला हूँ


३.
हर गाम पे हुशियार बनारस की गली में
फ़ितने भी हैं बेदार बनारस की गली में

ऐसा भी है बाज़ार बनारस की गली में
बिक जाएँ ख़रीदार बनारस की गली में

हुशियारी से रहना नहीं आता जिन्हें इस पार
हो जाते हैं उस पार बनारस की गली में

सड़कों पर दिखाओगे अगर अपनी रईसी
लुट जाओगे सरकार, बनारस की गली में

दुकान पे रुकिएगा तो फिर आपके पीछे
लग जाएँगे दो-चार बनारस की गली में

हैरत का यह आलम है कि हर देखने वाला
है नक़्श ब दीवार बनारस की गली में

मिलता है निगाहों को सुकूँ हृदय को आराम
क्या प्रेम है क्या प्यार बनारस की गली में

हर सन्त के, साधु के, ऋषि और मुनि के
सपने हुए साकार बनारस की गली में

शंकर की जटाओं की तरह साया फ़िगन है
हर साया-ए-दीवार बनारस की गली में

गर स्वर्ग में जाना हो तो जी खोल के ख़रचो
मुक्ति का है व्योपार बनारस की गली में।


४.
मुफ़लिसी थी तो उसमें भी एक शान थी
कुछ न था, कुछ न होने पे भी आन थी

चोट खाती गई, चोट करती गई
ज़िन्दगी किस क़दर मर्द मैदान थी

जो बज़ाहिर शिकस्त-सा इक साज़ था
वह करोड़ों दुखे-दिल की आवाज़ था

राह में गिरते-पड़ते सँभलते हुए
साम्राजी से तेवर बदलते हुए

आ गए ज़िन्दगी के नए मोड़ पर
मौत के रास्ते से टहलते हुए

बनके बादल उठे, देश पर छा गए
प्रेम रस, सूखे खेतों पे बरसा गए

अब वो जनता की सम्पत हैं, धनपत नहीं
सिर्फ़ दो-चार के घर की दौलत नहीं

लाखों दिल एक हों जिसमें वो प्रेम है
दो दिलों की मुहब्बत मुहब्बत नहीं

अपने सन्देश से सबको चौंका दिया
प्रेम पे प्रेम का अर्थ समझा दिया

फ़र्द था, फ़र्द से कारवाँ बन गया
एक था, एक से इक जहाँ बन गया

ऐ बनारस तिरा एक मुश्त-गुबार
उठ के मेमारे-हिन्दुस्ताँ बन गया

मरने वाले के जीने का अंदाज़ देख
देख काशी की मिट्टी का एज़ाज़ देख ।


५.
बुतख़ाना नया है न ख़ुदाख़ाना नया है
जज़्बा है अक़ीदत का जो रोज़ाना नया है

इक रंग पे रहता ही नहीं रंगे ज़माना
जब देखिए तब जल्वाए जानानां नया है

दम ले लो तमाज़त की सताई हुई रूहो
पलक की घनी छाँव में ख़सख़ाना नया है

रहने दो अभी साया-ए-गेसू ही में इसको
मुमकिन है सँभल जाए ये दीवाना नया है

बेशीशा-ओ-पैमाना भी चल जाती है अक्सर
इक अपना टहलता हुआ मैख़ाना नया है

बुत कोई नया हो तो बता मुझको बरहमन
ये तो मुझे मालूम है बुतख़ाना नया है

जब थोड़ी-सी ले लीजिए, हो जाता है दिल साफ़
जब गर्द हटा दीजिए पैमाना नया है

काशी का मुसलमाँ है ‘नज़ीर’ उससे भी मिलिए
उसका भी एक अन्दाज़ फ़क़ीराना नया है


६.
गंगा का है लड़कपन गंगा की है जवानी
इतरा रही हैं लहरें शरमा रहा है पानी

दोहराए जा रही है बरसात की कहानी
बीते हुए ज़माने गुज़री हुई कहानी

रुक-रुक के चल रही है बरसात की कहानी
थम-थम के बढ़ रही है दरियाओं की रवानी

बादल बरस रहा है बिजली चमक रही है
खिलवाड़ कर रहे हैं आपस में आग पानी

जाओ ख़ुशी से लेकिन जाती हुई घटाओ
हर साल आ के भरना तुम साल भर का पानी

जैसे बजा रहा है उस पार कोई बंसी
सतरंगी सारी बाँधे नाचे है रुत सुहानी

पानी बरस रहा है निकलो ‘नज़ीर’ घर से
हम-तुम भी तो लें अपने हिस्से की ज़िन्दगानी ।


७.
ख़मे मेहराबे हरम भी ख़मे अबू तो नहीं
कहीं काबे में भी काशी के सनम तू तो नहीं

तिरे आँचल में गमकती हुई क्या शै है बहार
उनके गेसू की चुराई हुई ख़ुशबू तो नहीं

कहते हैं क़तरा-ए-शबनम जिसे ऐ सुबह चमन
रात की आँख से टपका हुआ आँसू तो नहीं

इसको तो चाहिए इक उम्र सँवरने के लिए
ज़िन्दगी है तिरा उलझा हुआ गेसू तो नहीं

हिन्दुओं को तो यक़ीं हैं कि मुसलमाँ है ‘नज़ीर’
कुछ मुसलमाँ हैं जिन्हें शक है कि हिन्दू तो नहीं ।