1.
इक समन्दर सा गिरा था मुझ में ।
फिर बहोत शोर हुआ था मुझ में ।
रास्ते सारे ही मानूस से थे
इक फ़कत मैं ही नया था मुझ में ।
ख़ाक और ख़ून में नहलाया हुआ
कब से इक शख़्स पड़ा था मुझ में ।
बर्फ़ की तह में लरज़ती हुई लाश
ऐसा मंज़र भी छुपा था मुझ में ।
था कोई मुझमें जो था मुझसे हक़ीर
और कोई मुझसे बड़ा था मुझ में ।
उसने क्यों छोड़ दिया ख़ाना-ए-दिल
नक़्श-ए-हर-लम्स हरा था मुझ में ।
मैं समझता था जिसे जान-ए-नफ़स
वो बहुत दूर खड़ा था मुझ में ।
मैं भी तस्वीर सा चस्पाँ था कहीं
सानेहा ये भी हुआ था मुझ में ।
रक़्स करते हुए तारों का हुजूम
ये ख़ज़ाना भी गड़ा था मुझ में ।
आसमाँ खौफ़ से तकता था मुझे
क्या कोई उससे बड़ा था मुझ में ।
2.
जुदा ख़ुद से होता हुआ सामने ।
ऐसा मंज़र के जैसे ख़ुदा सामने ।
फूल महका हुआ दिल में इम्कान का
और समंदर लहकता हुआ सामने ।
तन-बदन में सितारे उतरते हुए
रास्ता इक दहकता हुआ सामने ।
सानेहा इक नज़र से गुज़रता हुआ
एक मज़र बिछड़ता हुआ सामने ।
फिर अंधेरा नज़र में चमकता हुआ
फिर उभरता हुआ सर मेरा सामने ।
हाँ, निकालो मेरि जान सूरज कोई
वो देखो है काली घटा सामने ।
मैं तो अपना ही क़द पार कर न सका
आ गया कोई मुझसे बड़ा सामने ।
सामने टूटी-फूटी सदा का खंडर
दूर गहराई में इक ख़ला सामने ।
आसमाँ सर में फैलाव लेता हुआ
इक सिमटती हुई सी दुआ सामने ।
सब्ज़ जितने शजर थे वो कटते रहे
क्या बताएँ कि क्या-क्या हुआ सामने ।
न है धूप कोई परों के परे
न ख़ंजर चमकता हुआ सामने ।
ज़िंदगी एक मौज-ए-फ़ना का सुरूर
सर-बसर एक मौज-ए-हवा सामने ।
ये वही शख़्स है! क्या वही शख़्स है ?
वो जो आया था हँसता हुआ सामने ।
हादिसा जाने क्या उसके अन्दर हुआ
आज ‘अजमल’ है चुप-चुप खड़ा सामने ।
3.
आ मेरि जान कभी प्यार की पहचान में आ ।
तू अगर शोला है तो दीदा-ए-हैरान में आ ।
मुस्कुराता हुआ तू चाँद सितारों से निकल
और हँसता हुआ भूले से कभी जान में आ ।
तश्नगी ठहरी बुझाना तो बयाबाँ पे बरसा
गोद में माँ की उतर, धरती के पिस्तान में आ ।
दश्त-ए-वहशत से मेरि इस क़दर आसाँ न गुज़र
छोड़ आँखों को मेरि, दस्त-ओ-गिरेबान में आ ।
क़तरा-क़तरा मेरि आँखों से मेरे दिल में उतर
रफ़्ता-रफ़्ता मेरे सीने से मेरि जान मॆं आ ।
शोरिश-ए-जाँ से मेरि ऐसे न कतरा के गुज़र
मेरी साँसों का मज़ा ले, मेरे हैजान में आ ।
बर्ग-ए-आवारा पे ही लिख दे हिकायत अपनी
आ मेरि जान कभी हर्फ़-ए-परेशान में आ ।
देख ले अपनी ख़ुदाई का तमाशा ख़ुद ही
आस्माँ वाले कभी पैकर-ए-इंसान में आ ।
4.
कोई आहट न कोई डगर सामने ।
एक अक्स-ए-सफ़र सरबसर सामने ।
आसमाँ पर लहू गुल बिखरता हुआ
और उभरता हुआ मेरा सर सामने ।
वो अकेला हज़ारों से लड़ता रहा
जंग होती रहे रात भर सामने ।
नन्हीं मुन्नी दुआओं का हासिल है क्या
लुट गया सारा रख़्त-ए-सफ़र सामने ।
टूट कर सारे मंज़र बिखरने लगे
बेतहाशा उड़े बाम-ओ-दर सामने ।
यक-ब-यक सारा जंगल सिमटने लगा
हुए ज़ेर-ए-ज़मीं सब शजर सामने ।
कश्तियाँ टूट कर सब किनारे लगीं
कैसे आसेब का है सफ़र सामने ।
कोई अवतार तो इस ज़मीं पर मिले
आए कोई तो पैग़ाम्बर सामाने ।
फ़ासला मेरे पैरों में मंज़िल का है
वर्ना रहता कहाँ ये सफ़र सामने ।
उससे बिछड़े हुए एक मुद्दत हुई
फिर भी रहता है वो सरबसर सामने ।
टुकड़े-टुकड़े बदन, रक़्स करता हुआ
इक ज़रा सा उधर, बाम पर, सामने ।
इक झलक सब्ज़ मिट्टी की आँखों में बस
शोला-शोला शफ़क़, लम्हा भर सामने ।
सर पे बूढ़ा गगन कब से रखा हुआ
रक़्स-ए-शम्स-ओ-क़मर आँख भर सामने ।
कोई मुझमें मुझे क़ैद करता हुआ
फेंक कर ये लाल-ओ-गोहर सामने ।
क्या करूँ मेरा मन था ख़लाओं में गुम
वो दिखाता रहा सब हुनर सामने ।
सीना-सीना सफर, ये तिलिस्म-ए-हुनर
देख ‘अजमल’ है रफ़्तार भर सामने ।