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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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गुरुवार, 21 मार्च 2013

जमाल एह्सानी



१.

होने की गवाही के लिए ख़ाक बहोत है।
या कुछ भी नहीं होने का इदराक बहोत है।
इक भूली हुई बात है, इक टूटा हुआ ख्वाब,
हम अहले-मुहब्बत को ये इम्लाक बहोत है।
कुछ दर-बदरी रास बहोत आई है मुझको,
कुछ खाना-खराबों में मेरी धाक बहोत है।
परवाज़ को पर खोल नहीं पाता हूँ अपने,
और देखने में वुसअते अफ्लाक बहोत है।
क्या उस से मुलाक़ात का इम्काँ भी नहीं अब,
क्यों इन दिनों मैली तेरी पोशाक बहोत है।
आंखों में हैं महफूज़ तेरे इश्क के लमहात ,
दरया को खयाले-खसो-खाशाक बहोत है।
तनहाई में जो बात भी करता नहीं पूरी,
तक़रीब में मिल जाए तो बेबाक बहोत है।
नादिम है बहोत तू भी जमाल अपने किए पर,
ले देख ले, वो आँख भी नमनाक बहोत है।