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सन्देश

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और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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रविवार, 24 मार्च 2013

महबूब खिज़ाँ


१.
जुनूँ से खेलते हैं, आगही से खेलते हैं।
यहाँ तो अहले-सुखन आदमी से खेलते हैं।

तमाम उम्र ये अफ़्सुर्दगाने-मह्फ़िले-गुल,
कली को छेड़ते हैं, बेकली से खेलते हैं।

फराज़े-इश्क़ नशेबे-जहाँ से पहले था,
किसी से खेल चुके हैं, किसी से खेलते हैं।

नहा रही है धनक ज़िन्दगी के संगम पर,
पुराने रंग नई रोशनी से खेलते हैं।


जो खेल जानते हैं उनके और हैं अंदाज़,
बड़े सुकून, बड़ी सादगी से खेलते हैं।

खिज़ाँ कभी तो कहो एक इस तरह की ग़ज़ल,
की जैसे राह में बच्चे खुशी से खेलते हैं।