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सन्देश

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और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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रविवार, 31 मार्च 2013

शुजा खावर

१.

दूसरी बातों में हमको हो गया घाटा बहुत
वरना फिक्र-ए-शऊर को दो वक़्त का आटा बहुत

आरजू का शोर बपा हिज्र की रातों में था

वस्ल की शब तो हुआ जाता है सन्नाटा बहुत

दिल की बातें दूसरों से मत कहो
,कट जाओगे
आजकल इजहार के धंधे में है घाटा बहुत

कायनात और ज़ात में कुछ चल रही है आजकल

जब से अन्दर शोर है बाहर है सन्नाटा बहुत

मौत की आज़ादियाँ भी ऎसी कुछ दिलकश न थीं

फिर भी हमने ज़िंदगी की क़ैद को काटा बहुत

२.

यहाँ तो काफिले भर को अकेला छोड़ देते हैं
सभी चलते हों जिस पर हम वो रास्ता छोड़ देते हैं

कलम में ज़ोर जितना है जुदाई की बदौलत है
मिलन के बाद लिखने वाले लिखना छोड़ देते हैं

ज़मीं के मसअलों का हल अगर यूँ ही निकलता है
तो लो जी आज से हम तुमसे मिलना छोड़ देते हैं

जो जिंदा हों उसे तो मार देते हैं जहाँवाले
जो मरना चाहता है उसको जिंदा छोड़ देते हैं

मुकम्मिल खुद तो हो जाते हैं सब किरदार आखिर में
मगर कमबख्त कारी को अधूरा छोड़ देते हैं

वो नंग-ए-आदमियत ही सही पर ये बता ऐ दिल
पुराने दोस्तों को इस कदर क्या छोड़ देते हैं

ये दुनियादारी और इरफ़ान का दावा शुजा खावर
मियां इरफ़ान हो जाये तो तो दुनिया छोड़ देते हैं

3.

लश्कर को बचाएंगी ये दो चार सफें क्या
और इनमें भी हर शख्स ये कहता है हमें क्या

ये तो सभी कहते हैं की कोई फिक्र न करना
ये कोई बताता नहीं हमको कि करें क्या

घर से तो चले जाते हैं बाजार की जानिब
बाजार में ये सोचते फिरते हैं कि लें क्या

आँखों को किये बंद पड़े रहते हैं हमलोग
इस पर भी तो ख्वाबों से हैं महरूम करें क्या

जिस्मानी ताअल्लुक पे ये शर्मिंदगी कैसी
आपस में बदन कुछ भी करें इससे हमें क्या

ख्वाबों में भी मिलते नहीं हालात के डर से
माथे से बड़ी हो गयीं यारों शिकअनें क्या

४.

पहुंचा हुजूर-ए-शाह हर एक रंग का फकीर

पहुंचा नहीं जो था, वही पहुंचा हुआ फकीर

वो वक्त का गुलाम तो यह नाम का फकीर

क्या बादशाह-ए-वक्त मियाँ और क्या फकीर

मंदर्जा जेल लफ्जों के मानी तालाश कर

दरवेश, मस्त, सूफी,कलंदर, गदा, फकीर

हम कुछ नहीं थे शहर में इसका मलाल है

एक शख्स शहरयार था और एक था फकीर

क्या दौर आ गया है कि रोज़ी की फिक्र में

हाकिम बना हुआ है एक अच्छा भला फकीर

इस कशमकश में कुछ नहीं बन पाओगे
शुजा
या शहरयार बन के रहो और या फकीर