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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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गुरुवार, 7 मार्च 2013

फानी बदायूँनी

(13 सितंबर 1879 - 1941)


1.
इश्क़ ने दिल में जगह की तो क़ज़ा भी आई
दर्द दुनिया में जब आया तो दवा भी आई
दिल की हस्ती से किया इश्क़ ने आगाह मुझे
दिल जब आया तो धड़कने की सदा भी आई
सदक़े उतारेंगे,असीरान-ए-क़फ़स छूटे हैं
बिजलियाँ लेके नशेमन पे घटा भी आई
हाँ! न था बाब-ए-असर बन्द,मगर क्या कहिये
आह पहुँची थी कि दुश्मन की दुआ भी आई
आप सोचा ही किये,उस से मिलूँ या न मिलूँ
मौत मुश्ताक़ को मिट्टी में मिला भी आई
लो! मसीहा ने भी,अल्लाह ने भी याद किया
आज बीमार को हिचकी भी, क़ज़ा भी आई
देख ये जादा-ए-हस्ती है,सम्भल कर `फ़ानी
पीछे पीछे वो दबे पावँ क़ज़ा भी आई
2.
करवाँ गुज़रा किया हम रहगुज़र देखा किये
हर क़दम पर नक़्श-ए-पा-ए-राहबर देखा किये
यास जब छाई उम्मीदें हाथ मल कर रह गईं
दिल की नब्ज़ें छुट गयीं और चारागर देखा किये
रुख़ मेरी जानिब निगाह-ए-लुत्फ़ दुश्मन की तरफ़
यूँ उधर देखा किये गोया इधर देखा किये
दर्द-मंदाने-वफ़ा की हाये रे मजबूरियाँ
दर्दे-दिल देखा न जाता था मगर देखा किये
तू कहाँ थी ऐ अज़ल!ऐ नामुरादों की मुराद!
मरने वाले राह तेरी उम्र भर देखा किये
3.
जी ढूँढता है घर कोई दोनों जहाँ से दूर
इस आपकी ज़मीं से अलग, आस्माँ से दूर
शायद मैं दरख़ुर-ए-निगह-ए-गर्म भी नहीं
बिजली तड़प रही है मेरे आशियाँ से दूर
आँखें चुराके आपने अफ़साना कर दिया
जो हाल था ज़बाँ से क़रीब और बयाँ से दूर
ता अर्ज़-ए-शौक़ में न रहे बन्दगी की लाग
इक सज्दा चाहता हूँ तेरी आस्तां से दूर
है मना राह-ए-इश्क़ में दैर-ओ-हरम का होश
यानि कहाँ से पास है मन्ज़िल, कहाँ से दूर
4.
माल-ए-सोज़-ए-ग़म हाए!निहानी देखते जाओ
भड़क उठी है शम्मा-ए-ज़िंदगानी देखते जाओ
चले भी आओ वो है क़ब्र-ए-फ़नि देखते जाओ
तुम अपने मरने वाले की निशानी देखते जाओ
अभी क्या है किसी दिन ख़ूँ रुलायेगा ये ख़ामोशी
ज़ुबान-ए-हाल कि जद्द-ओ-बयानी देखते जाओ
ग़रूर-ए-हुस्न का सदक़ा कोई जाता है दुनिया से
किसी की ख़ाक में मिलती जवानी देखते जाओ
उधर मुँह फेर कर क्या ज़िबाह करते हो, इधर देखो!
मेरी गर्दन पे ख़ंजर की रवनी देखते जाओ
बहार-ए-ज़िन्दगी का लुत्फ़ देखा है और देखोगे
किसी का ऐश मर्ग़-ए-नागहानी देखते जाओ
सुने जाते न थे तुम से मेरे दिन रात के शिकवे
कफ़न सरकाओ मेरी बे-ज़ुबानी देखते जाओ
वो उठा शोर-ए-माताम आख़री दीदार-ए-मय्यत पर
अब उठा चाहते हैं नाश-ए-फ़नि देखते जाओ
5.
एक मोअ'म्मा है समझने का ना समझाने का
ज़िन्दगी काहे को है ख़्वाब है दीवाने का
ख़ल्क़ कहती है जिसे दिल तेरे दीवाने का
एक गोशा है यह दुनिया इसी वीराने का
मुख़्तसर क़िस्सा-ए-ग़म यह है कि दिल रखता हूँ
राज़-ए-कौनैन ख़ुलासा है इस अफ़साने का
तुमने देखा है कभी घर को बदलते हुए रंग
आओ देखो ना तमाशा मेरे ग़मख़ाने का
दिल से पोंछीं तो हैं आँखों में लहू की बूंदें
सिलसिला शीशे से मिलता तो है पैमाने का
हमने छानी हैं बहुत दैर-ओ-हरम की गलियाँ
कहीं पाया न ठिकाना तेरे दीवाने का
हर नफ़स उम्र-ए-गुज़िश्ता की है मय्यत फ़ानी
ज़िन्दगी नाम है मर मर के जिये जाने का