हिंदी साहित्य क्षेत्र में प्रख्यात ग़ज़लकार, व्यंग्यकार, कहानीकार, नाटककार और स्वतंत्र लेखक निश्तर ख़ानक़ाही का जन्म भागीरथी के तट पर स्थित बिजनौर जनपद के ग्राम जहानाबाद में फरवरी सन् 1930 को सैयद मौहम्मद हुसैन के परिवार में हुआ।निधन: 7 मार्च 2006,कुछ प्रमुख कृतियाँ:-मोम की बैसाखियाँ (1987), ग़ज़ल मैंने छेड़ी (1997), कैसे-कैसे लोग मिले (1998), फिर लहू रोशन हुआ (2007) मेरे लहू की आग (पाँचों ग़ज़ल-संग्रह) ।
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१.ज़िन्दगी को ज़र-ब-कफ़, ज़रफाम करना सीखते
कौन था वो किससे हम आराम करना सीखते
वक़्त ने मोहलत न दी वरना हमें मुश्किल न था
सिरफिरी शामों को नज़रे-जाम करना सीखते
सीख लेते काश हम भी कोई कारे-सूद-मंद
शेर-गोई छोड़ देते, काम करना सीखते
खुद-ब-खुद तय हो गए शामो-सहर अच्छा था मैं
सुबह करना सीख लेते, शाम करना सीखते
क़द्र है जब शोरो-गोगा की तो हजरत आप भी
गीत क्यों गाते रहे, कोहराम करना सीखते
अर्थ: ज़र-ब-कफ़=मुट्ठियों में सोना, ज़रफाम=सोने जैसा रंग, नज़रे-जाम=शराब को समर्पित, कारे-सूद-मंद=लाभदायक, शेर-गोई=शेर कहना, शोरो-गोगा=शोर शराबा
२.
तुम्हारे बाद भी रातें सजी हुई हैं यहाँ
जले हैं दीप, पर आँखें बुझी हुई हैं यहाँ
तेरी विदाई को अर्सा गुज़र गया है मगर
इसी बेक़ुए पे घड़ियाँ रूकी हुई हैं यहाँ
चलो शुरू-ए-सफ़र अब नई जगह से करें
बड़ी तवील क़तारें लगी हुई हैं यहाँ
गुज़र गई शबे-वादा मगर उसी दिन से
तुम्हारी आस में रातें थमी हुई हैं यहाँ
चले तो आए हो महफ़िल में 'ख़ानक़ाही' तुम
मगर तमाम निशस्तें भरी हुई हैं यहाँ
बेक़ूए- स्थान
तवील- लंबी
३. भारी था जिसका बोझ वो लम्हा लिए फिरा
सर पर मैं इक पहाड़ को तन्हा लिए फिरा
आँखें थीं बंद देखने वाला कोई ना था
ऐसे में दिल का दाग़! तमन्ना लिए फिरा
इस फ़िक्र में कि चेहरा-ए-मौजूँ कोई मिले
होठों पे मैं ख़याल का बोसा लिए फिरा
समझा नहीं कि ख़िल्क़ को रास आ गई है धूप
नाहक़ मैं इस दयार में साया लिए फिरा
नादाँ हूँ दिल पे हर्फ़्र-वफ़ा लिख के शहर-शहर
मैं यादगारे-एहदे-गुज़िश्ता लिए फिरा
1-ख़िल्सा-संसार
2-नाहक़--व्यर्थ
3-यादगारे-एहदे-गुज़िश्ता -बीते दिनों की याद
४. ऐ हवाए-नग़मा* मेरे जह्न के अंदर तो आ
देखना है तुझको जलते शहर का मंज़र तो आ
संगरेजों* की तरह बिखरी हुई है कहकशाँ
मेरे सीने से निकल, ऐ आस्माँ बाहर तो आ
ले न यों कम-फ़ुर्सती* से मुद्दआ*, बे-रग़बती*
अब अगर अक्सर नहीं आता न आ, कमतर तो आ
अब हवा के सामने सीना-सियर* यों ही न हो
दिल को अपने दे सके फ़ौलाद का पैकर तो आ
कुछ-न-कुछ बाक़ी तो होगा, खुदफ़रोशी* से बदन
बर्फ़ अब गिरने को है ऐ जाँ तहे-चादर* तो आ
1- ऐ हवाए-नग़मा*--गीत लाने वाली हवा
2- संगरेजों--पत्थर के टुकड़ों
3- कहकशाँ--आकाश गंगा
4- कम-फ़ुर्सती--व्यवस्तता
5- मुद्दआ*-अर्थ
6- बे-रग़बती*--अलगाव
7- सीना-सियर*--आमने-सामने
8- खुदफ़रोशी*--स्वयं को बेचना
9-तहे-चादर*--चादर के नीचे
५. तपिश से आग की पानी बचा तो होगा ही
बदन को देख कहीं आबला* तो होगा ही
ये बर्गे-सब्ज़* भी आख़िर ज़मीं का हिस्सा है
जो कुछ नहीं है, यहाँ हादिसा तो होगा ही
अभी से ख़ौफ़-सा क्या है की क़ुर्ब* का ये पल
जुदा तो होना है आख़िर, जुदा तो होगा ही
बिछुड़ के ख़ुद से चला था कि मर गया इक शख़्स
नज़र से गर नहीं देखा, सुना तो होगा ही
हवा के रूख़ को रवादारियों* का पर्दा क्या?
वो आज दोस्त है, इकदिन ख़फ़ा तो होगा ही।
1-आबला*--फफोला
2-बर्गे-सब्ज़*--हरा पत्ता
3-क़ुर्ब*--मिलन
4-रवादारियों*--रख-रखाव
६.
धड़का था दिल की प्यार का मौसम गुज़र गया ।
हम डूबने चले थे कि दरिया उतर गया ।
तुमसे भी जब निशात का इक पल न मिल सका
मैं कासा-ए-सवाल[1] लिए दर-बदर गया ।
भूले से कल जो आइना देखा तो ज़ेहन में
इक मुन्हदिम[2] मकान का नक़्शा उभर गया ।
तेज़ आँधियों में पाँव ज़मीं पर न टिक सके
आख़िर को मैं ग़ुबार की सूरत बिखर गया ।
गहरा सुकूत[3], रात की तन्हाइयाँ, खंडर
ऐसे में अपने आपको देखा तो डर गया ।
कहता किसी से क्या कि कहाँ घूमता फिरा
सब लोग सो गए तो मैं चुपके से घर गया ।
1. ↑ सवाल का प्याला
2. ↑ गिरा हुआ
3. ↑ ख़ामोशी
७.
जाँ भी अपनी नहीं, दिल भी नहीं तन्हा अपनाकौन कहता है कि दुख-दर्द हैं अपना-अपना
दुश्मन-ए-जाँ ही सही, कोई शनासा* तो मिले
बस्ती-बस्ती लिए फिरता हूं सराया अपना
पुरसिशे-हाल* से ग़म और न बढ़ जाए कहीं
हमने इस डर से कभी हाल न पूछा अपना
ग़ैर फिर ग़ैर है क्यों आए हमारे-नजदीक
हम तो खुद दूर से करते हैं तमाशा अपना
लड़खड़ाया हूं, जो पहले तो पुकारा है तुम्हें
अब तो गिरता हूं तो लेता हूं सहारा अपना
अब न वो मैं हूं न वो तुम, न वो रिश्ता बाकी
यूं तो कहने को वही मैं हूं 'तुम्हारा अपना'
1. शनासा-परिचित
2. पुरसिशे-हाल- हाल पूछना
८.
कुश्तो-खूँ* है जिस्मों-जाँ* के दरमियाँ ऐसा न हो
मेरा अपना सर ही मेरे हाथ पर रक्खा न हो
ये भी मुमकिन है कि कज-बहसी* की आदत हो उसे
ये भी मुम्किन है वो मेरी बात ही समझा न हो
ख़ून की आँधी में सूरज डूबते देखा है रात
औऱ ख़्वाबों की तरह, यह ख़्वाब भी सच्चा न हो
कल का सूरज कौन से आलम में निकले क्या ख़बर
मैं जहाँ हूं, कल वहाँ बस धूल हो, दरिया न हो
मौसमों की धुंध में लिपटी हुई उम्रे-रवाँ*
सिर्फ इक लम्हा जिसे ढूँढ़ा तो हो, पाया न हो
आख़िरी चेहरा समझकर ज़ह्न में रख लो मुझे
क्या ख़बर फिर इस ज़मीं पर आदमी पैदा न हो।
1-कुश्तो-खूँ*--मार-काट
2- जिस्मों-जाँ*--शरीर और आत्मा
3-कज-बहसी*--अनुचित वाद-विवाद
4-उम्रे-रवाँ*--गुज़रती उम्र
मेरा अपना सर ही मेरे हाथ पर रक्खा न हो
ये भी मुमकिन है कि कज-बहसी* की आदत हो उसे
ये भी मुम्किन है वो मेरी बात ही समझा न हो
ख़ून की आँधी में सूरज डूबते देखा है रात
औऱ ख़्वाबों की तरह, यह ख़्वाब भी सच्चा न हो
कल का सूरज कौन से आलम में निकले क्या ख़बर
मैं जहाँ हूं, कल वहाँ बस धूल हो, दरिया न हो
मौसमों की धुंध में लिपटी हुई उम्रे-रवाँ*
सिर्फ इक लम्हा जिसे ढूँढ़ा तो हो, पाया न हो
आख़िरी चेहरा समझकर ज़ह्न में रख लो मुझे
क्या ख़बर फिर इस ज़मीं पर आदमी पैदा न हो।
1-कुश्तो-खूँ*--मार-काट
2- जिस्मों-जाँ*--शरीर और आत्मा
3-कज-बहसी*--अनुचित वाद-विवाद
4-उम्रे-रवाँ*--गुज़रती उम्र
९.
आप अपनी आग के शोलों में जल जाते थे लोग ।क्या अँधेरा था कि जिससे रोशनी पाते थे लोग ।
गुफ़्तगू में ढूँढ़ते थे कान जज़्बों का सुराग़[1]
और जो कुछ जी में आता था सो कह जाते थे लोग ।
रूप का मंदिर भी देखा हर दरीचा[2] बन्द था
नीम उर्यां[3] जिस्म दीवारों पे लटकाते थे लोग ।
तूने ऐ पतझड़ के मौसम वह समाँ देखा नहीं
घर वो जब काग़ज़ के गुल-बूटे लिए जाते थे लोग ।
ख़ुदफ़रेबी[4] का धुँदलका भी ग़नीमत था कि जब
दिल को बेबुनियाद उम्मीदों से बहलाते थे लोग ।
और बढ़ जाती थी बाज़ारों की रौनक़ दिन ढले
घर के सन्नाटे से घबराकर निकल जाते थे लोग ।
काश इक पल अपनी मर्ज़ी से भी जीकर देखते
जाने किस-किस के इशारे पर जिए जाते थे लोग ।
1. ↑ राज़
2. ↑ खिड़की
3. ↑ अर्धनग्न
4. ↑ स्वयं को धोखा देना
१०. तेज़ रौ पानी की तीखी धार पर चलते हुए
कौन जाने कब मिलें इस बार के बिछुड़े हुए ।
अपने जिस्मों को भी शायद खो चुका है आदमी
रास्तों में फिर रहे हैं पैरहन बिखरे हुए ।
अब ये आलम है कि मेरी ज़िंदगी के रात-दिन
सुबह मिलते हैं मुझे अख़बार में लिपटे हुए ।
अनगिनत जिस्मों का बहरे-बेकराँ[1] है और मैं
मुदद्तें गुज़री हैं अपने आप को देखे हुए ।
किन रुतों की आरज़ू शादाब रखती है उन्हें
ये खिज़ाँ की शाम और ज़ख़्मों के वन महके हुए ।
काट में बिजली से तीखी, बाल से बारीक़तर
ज़िंदगी गुज़री है उस तलवार पर चलते हुए ।
११.
दर्द की टीसें न थीं, आँसू न थे, नाला* न था
हमने शायद तुझको अगलों की तरह चाहा ना था
कितना मुश्किल है समझना और समझाना इसे
अब से पहले का ज़माना इतना पेचीदा न था
दम-बखुद* थे लोग अपने आपसे सहमे हुए
घर के अंदर आफ़ियत* का एक भी गोशा न था
बंद दरवाज़ों से अपना सर पटकती थी हवा
तंग गलियों से निकलने का कोई रस्ता न था
हम समझते थे कि है यह भी मताए-दीगराँ*
जिंदगी को हमने अपना जानकर बरता न था
गिर गया बर्गे-ख़िज़ाँ-आसार* तुझसे टूटकर
शाख़े-लरज़ाँ!* इसमें क्या तेरा कोई मंशा न था
जो समझ सकता पसे-अलफ़ाज़* मानी का तिलिस्म
इस भरी बस्ती में कोई शख़्स भी ऐसा न था।
1. नाला-फरियाद
2. दम बखुद-मौन
3. आफ़ियत-शांति
4. मताए -दीगराँ-पराया धन
5. बर्गे-ख़िज़ाँ-आसार-पतझड़ का पत्ता
6. शाख़े-लरज़ाँ-काँपती हुई डाली
7. पसे-अलफ़ाज़-शब्दों की पृष्ठभूमि
१२.
आगे पहुँची जल की धारा बजरा पीछे छूट गयारस्ता छोड़ सवारों को मैं प्यादा पीछे छूट गया
ये बस्ती कौन-सी बस्ती है, आके कहाँ बस ठहर गई
चाहा था जिस धाम रुकें, वो क़स्बा पीछे छूट गया
आगे-आगे लंबी डगर है रेत-भरे मैदानों की
जिस तट इक पल ठहरे थे, वह दरिया पीछे छूट गया
बैठे हैं सैलानी सारे,पतझड़ है विश्वासों का
मंदिर छूटा, गिरजा छूटा, काबा पीछे छूट गया
कितने कुछ थे जीवन-साथी, कितने कुछ थे लहू-शरीक
चेहरा सबका याद है लेकिन रिश्ता पीछे छूट गया
१३.
घर के रोशनदानों में अब काले पर्दे लटका दे
रातों के मटियालेपन को थोड़ा और अँधेरा दे
दिन में सपने देखने वाले रस्ता-रस्ता बिखरे हैं
प्यासे दिल को दे न तमन्ना, दे तो साथ वसीला दे
शहर से जब भी लौट के आऊँ, देखूँ, सोचूँ, हैरत हो
सीधा-सादा बरगद अब भी धूप सहे और साया दे
लौटा तो अख़बार पुराना, बोला मेरी तलावत* कर
कमरे की दीवार का धब्बा, चीख़ा मुझको चेहरा दे
शहर की छीना-झपटी में सब अपने लोग मुक़ाबिल हैं
आलम अफ़रा-तफ़री का है, कौन किसी को मौक़ा दे
अक़्लो-हुनर* का मोल नहीं है, बस्ती में बंजारों की
मुझसे मेरी दानिश ले ले, लेकिन मौला पैसा दे
1- तलावत--अध्ययन
2- अक़्लो-हुनर--बुद्धि
रातों के मटियालेपन को थोड़ा और अँधेरा दे
दिन में सपने देखने वाले रस्ता-रस्ता बिखरे हैं
प्यासे दिल को दे न तमन्ना, दे तो साथ वसीला दे
शहर से जब भी लौट के आऊँ, देखूँ, सोचूँ, हैरत हो
सीधा-सादा बरगद अब भी धूप सहे और साया दे
लौटा तो अख़बार पुराना, बोला मेरी तलावत* कर
कमरे की दीवार का धब्बा, चीख़ा मुझको चेहरा दे
शहर की छीना-झपटी में सब अपने लोग मुक़ाबिल हैं
आलम अफ़रा-तफ़री का है, कौन किसी को मौक़ा दे
अक़्लो-हुनर* का मोल नहीं है, बस्ती में बंजारों की
मुझसे मेरी दानिश ले ले, लेकिन मौला पैसा दे
1- तलावत--अध्ययन
2- अक़्लो-हुनर--बुद्धि
१४.
रूख़ बदलते हिचकिचाते थे कि डर ऐसा भी थाहम हवा के साथ चलते थे, मगर ऐसा भी था
लौट आती थीं कई साबिक़* पतों की चिट्ठियाँ
घर बदल देते थे बाशिंदे, नगर ऐसा भी था
वो किसी का भी न था लेकिन था सबका मोतबर*
कोई क्या जाने कि उसमें इक हुनर ऐसा भी था
तोलता था इक को इक अशयाए-मशरफ़* की तरह
दोस्ती थी और अंदाज़े-नज़र ऐसा भी था
पाँव आइंदा* की जानिब, सर गुजिश्ता* की तरफ़
यों भी चलते थे मुसाफिर, इक सफ़र ऐसा भी था
हर नई रूत में बदल जाती थी तख़्ती नाम की
जिसको हम अपना समझते कोई घर ऐसा भी था
1-पुराने2-विश्वसनीय
3-उपयोग की वस्तुएं
4-भविष्य
5-अतीत
१५.
दिल तेरे इंतज़ार में कल रात- भर जला नर्गिस का फूल पिछले पहर तक खिला रहा
पहले तो अपने आपसे बेजारियाँ(१)बढ़ी
फिर यों हुआ कि तुझसे भी दिल ऊबने लगा
अच्छा हुआ कि सारे खिलौने बिखर गए
गुंचे ,सुबू ,(२)शराब ,शफ़क ,चाँदनी सबा(३)
सहरा की वुसअतों(४)में न जब आफ़ियत मिली
मैं शहर-शहर दिल का सकूँ ढूंढ़ता फिरा
जागा हुआ था नींद की मदहोशियों में हुस्न
देखा-सकूते-शब(५)में बदन बोलता हुआ
पहले भी किसने प्यार के वादे वफ़ा किए
पहले भी कोई प्यार में सच बोलता न था
दफ़्तर से थक के लौट रहा था कि घर के पास
पहुँचा तो तेरे प्यार का दिन डूबने लगा
१- उकताहट
२- मदिरा- पात्र
३-समीर
४-फैलाव५-रात का सन्नाटा