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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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गुरुवार, 28 मार्च 2013

अख्तर शीरानी

जन्म: 1905-निधन: 1948,

१.

काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएं तो क्या करें
उस बे-वफ़ा को भूल न जाएँ तो क्या करें

मुझ को है एतराफ दुआओं में है असर
जाएँ न अर्श पर जो दुआएं तो क्या करें

एक दिन की बात हो तो उसे भूल जाएँ हम
नाज़िल हों रोज़ दिल पे बालाएं तो क्या करें

शब् भर तो उनकी याद में तारे गिना किए
तारे से दिन को भी नज़र आयें तो क्या करें

अहदे-तलब की याद में रोया किए बहोत
अब मुस्कुरा के भूल न जाएँ तो क्या करें

अब जी में है कि उनको भुला कर ही देख लें
वो बार-बार याद जो आयें तो क्या करें

२.

निकहते-ज़ुल्फ़ से नींदों को बसा दे आकर
मेरी जागी हुई रातों को सुला दे आकर

किस क़दर तीरओ-तारीक है दुनिया मेरी
जल्वए-हुस्न की इक शमअ जला दे आकर

इश्क़ की चाँदनी रातें मुझे याद आती हैं
उम्रे-रफ़्ता को मेरी मुझसे मिला दे आकर

जौके-नादीद में लज्ज़त है मगर नाज़ नहीं
आ मेरे इश्क़ को मगरूर बना दे आकर

३.

मस्ताना पिए जा यूँ ही मस्ताना पिए जा
पैमाना तो क्या चीज़ है मयखाना पिए जा

कर गर्क मयो-जाम गमे-गर्दिशे अयियाम
अब ए दिले नाकाम तू रिन्दाना पिए जा

मयनोशी के आदाब से आगाह नहीं तू
जिया तरह कहे साक़िए-मयखाना पिए जा

इस बस्ती में है वहशते-मस्ती ही से हस्ती
दीवाना बन औ बादिले दीवाना पिए जा
मयखाने के हंगामे हैं कुछ देर के मेहमाँ
है सुब्ह करीब अख्तरे-दीवाना पिए जा

४.
ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए
वो उम्र क्या हुई वो ज़माने किधर गए

वीराँ हैं सहन ओ बाग़ बहारों को क्या हुआ
वो बुलबुलें कहाँ वो तराने किधर गए

है नज्द में सुकूत हवाओं को क्या हुआ
लैलाएँ हैं ख़मोश दिवाने किधर गए

उजड़े पड़े हैं दश्त ग़ज़ालों पे क्या बनी
सूने हैं कोह-सार दिवाने किधर गए

वो हिज्र में विसाल की उम्मीद क्या हुई
वो रंज में ख़ुशी के बहाने किधर गए

दिन रात मय-कदे में गुज़रती थी ज़िन्दगी
'अख़्तर' वो बे-ख़ुदी के ज़माने किधर गए


५.
झूम कर बदली उठी और छा गई
सारी दुनिया पर जवानी आ गई

आह वो उस की निगाह-ए-मय-फ़रोश
जब भी उट्ठी मस्तियाँ बरसा गई

गेसू-ए-मुश्कीं में वो रू-ए-हसीं
अब्र में बिजली सी इक लहरा गई

आलम-ए-मस्ती की तौबा अल-अमाँ
पारसाई नश्शा बन कर छा गई

आह उस की बे-नियाज़ी की नज़र
आरज़ू क्या फूल सी कुम्हला गई

साज़-ए-दिल को गुदगुदाया इश्क़ ने
मौत को ले कर जवानी आ गई

पारसाई की जवाँ-मर्गी न पूछ
तौबा करनी थी के बदली छा गई

'अख़्तर' उस जान-ए-तमन्ना की अदा
जब कभी याद आ गई तड़पा गई


६.
किस को देखा है ये हुआ क्या है
दिल धड़कता है माजरा क्या है

इक मोहब्बत थी मिट चुकी या रब
तेरी दुनिया में अब धरा क्या है

दिल में लेता है चुटकियाँ कोई
है इस दर्द की दवा क्या है

हूरें नेकों में बात चुकी होंगी
बाग़-ए-रिज़वाँ में अब रखा क्या है

उस के अहद-ए-शबाब में जीना
जीने वालो तुम्हें हुआ क्या है

अब दवा कैसी है दुआ का वक़्त
तेरे बीमार में रहा क्या है

याद आता है लखनऊ 'अख़्तर'
ख़ुल्द हो आएँ तो बुरा क्या है.


७.
कुछ तो तंहाई की रातों में सहारा होता
तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता

तर्क-ए-दुनिया का ये दावा है फ़ुज़ूल ऐ ज़ाहिद
बार-ए-हस्ती तो ज़रा सर से उतारा होता

वो अगर आ न सके मौत ही आई होती
हिज्र में कोई तो ग़म-ख़्वार हमारा होता

ज़िन्दगी कितनी मुसर्रत से गुज़रती या रब
ऐश की तरह अगर ग़म भी गवारा होता

अज़मत-ए-गिर्या को कोताह-नज़र क्या समझें
अश्क अगर अश्क न होता तो सितारा होता

लब-ए-ज़ाहिद पे है अफ़साना-ए-हूर-ए-जन्नत
काश इस वक़्त मेरा अंजुमन-आरा होता

ग़म-ए-उल्फ़त जो न मिलता ग़म-ए-हस्ती मिलता
किसी सूरत तो ज़माने में गुज़ारा होता

किस को फ़ुर्सत थी ज़माने के सितम सहने की
गर न उस शोख़ की आँखों का इशारा होता

कोई हम-दर्द ज़माने में न पाया 'अख़्तर'
दिल को हसरत ही रही कोई हमारा होता.


८.
वादा उस माह-रू के आने का
ये नसीबा सियाह-ख़ाने का

कह रही है निगाह-ए-दुज़-दीदा
रुख़ बदलने को है ज़माने का

ज़र्रे ज़र्रे में बे-हिजाब हैं वो
जिन को दावा है मुँह छुपाने का

हासिल-ए-उम्र है शबाब मगर
इक यही वक़्त है गँवाने का

चाँदनी ख़ामोशी और आख़िर शब
आ के है वक़्त दिल लगाने का

है क़यामत तेरे शबाब का रंग
रंग बदलेगा फिर ज़माने का

तेरी आँखों की हो न हो तक़सीर
नाम रुसवा शराब-ख़ाने का

रह गए बन के हम सरापा ग़म
ये नतीजा है दिल लगाने का

जिस का हर लफ़्ज़ है सरापा ग़म
मैं हूँ उनवान उस फ़साने का

उस की बदली हुई नज़र तौबा
यूँ बदलता है रुख़ ज़माने का

देखते हैं हमें वो छुप छुप कर
पर्दा रह जाए मुँह छुपाने का

कर दिया ख़ूगर-ए-सितम 'अख़्तर'
हम पे एहसान है ज़माने का.


९.
यारो कू-ए-यार की बातें करें
फिर गुल ओ गुल-ज़ार की बातें करें

चाँदनी में ऐ दिल इक इक फूल से
अपने गुल-रुख़्सार की बातें करें

आँखों आँखों में लुटाए मै-कदे
दीदा-ए-सरशार की बातें करें

अब तो मिलिए बस लड़ाई हो चुकी
अब तो चलिए प्यार की बातें करें

फिर महक उट्ठे फ़ज़ा-ए-ज़िंदगी
फिर गुल ओ रुख़सार की बातें करें

महशर-ए-अनवार कर दें बज़्म को
जलवा-ए-दीदार की बातें करें

अपनी आँखों से बहाएँ सैल-ए-अश्क
अब्र-ए-गौहर-बार की बातें करें

उन को उल्फ़त ही सही अग़्यार से
हम से क्यूँ अग़्यार की बातें करें

'अख़्तर' उस रंगीं अदा से रात भर
ताला-ए-बीमार की बातें करें.


१०.
वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए
रात दिन सूरत को देखा कीजिए

चाँदनी रातों में इक इक फूल को
बे-ख़ुदी कहती है सजदा कीजिए

जो तमन्ना बर न आए उम्र भर
उम्र भर उस की तमन्ना कीजिए

इश्क़ की रंगीनियों में डूब कर
चाँदनी रातों में रोया कीजिए

पूछ बैठे हैं हमारा हाल वो
बे-ख़ुदी तू ही बता क्या कीजिए

हम ही उस के इश्क़ के क़ाबिल न थे
क्यूँ किसी ज़ालिम का शिकवा कीजिए

आप ही ने दर्द-ए-दिल बख़्शा हमें
आप ही इस का मुदावा कीजिए

कहते हैं 'अख़्तर' वो सुन कर मेरे शेर
इस तरह हम को न रुसवा कीजिए.