"'आलम खुर्शीद"
जन्म:११ जुलाई,१९५९
जन्म स्थान :आरा,बिहार
प्रकाशित कृतियाँ: ग़ज़ल संग्रह- नए मौसम की तलाश (१९८८) तथा ज़हरे गुल, ख्यलाबाद उर्दू में। एक दरिया ख़्वाब में तथा कारे जियाँ हिंदी में।
ये सोचा नहीं है किधर जाएँगे
मगर हम यहाँ से गुज़र जाएँगे
इसी खौफ से नींद आती नहीं
कि हम ख्वाब देखेंगे डर जाएँग
डराता बहुत है समन्दर हमें
समन्दर में इक दिन उतर जाएँगे
जो रोकेगी रस्ता कभी मंज़िलें
घड़ी दो घड़ी को ठहर जाएँगे
कहाँ देर तक रात ठहरी कोई
किसी तरह ये दिन गुज़र जाएँगे
इसी खुशगुमानी ने तनहा किया
जिधर जाऊँगा, हमसफ़र जाएँगे
बदलता है सब कुछ तो 'आलम' कभी
ज़मीं पर सितारे बिखर जाएँगे
२.
हर घर में कोई तहख़ाना होता है
तहख़ाने में इक अफ़साना होता है
किसी पूरानी अलमारी के ख़ानों में
यादों का अनमोल ख़ज़ाना होता है
रात गए अक्सर दिल के वीराने में
इक साए का आना-जाना होता है
दिल रोता है, चेहरा हँसता रहता है
कैसा-कैसा फ़र्ज़ निभाना होता है
बढती जाती है बेचैनी नाख़ून की
जैस- जैसे ज़ख्म पुराना होता है
ज़िंदा रहने की ख़ातिर इन आँखों में
कोई न कोई ख़्वाब सजाना होता है
तन्हाई का ज़हर तो वो भी पीते हैं
हर पल जिनके साथ ज़माना होता है
क्यों लोगों को याद नहीं रहता आलम
इस दुनिया से वापस जाना होता है
३.
याद आता हूँ तुम्हें सूरज निकल जाने के बाद
इक सितारे ने ये पूछा रात ढल जाने के बाद
मैं ज़मीं पर हूँ तो फिर क्यों देखता हूँ आसमां
यह ख्याल आया मुझे अक्सर फिसल जाने के बाद
दोस्तों के साथ चलने में भी हैं खतरे हज़ार
भूल जाता हूँ हमेशा मैं संभल जाने के बाद
फासला भी कुछ ज़रूरी है चरागाँ करते वक्त
तजरबा ये हाथ आया , हाथ जल जाने के बाद
एक ही मंज़िल पे जाते हैं यहाँ रस्ते तमाम
यह खुला मुझ पर मगर रस्ता बदल जाने के बाद
वहशते-दिल को बयाबां से ताल्लुक है अजीब
कोई घर लौटा नहीं घर से निकल जाने के बाद
आगही ने हम पे नाज़िल कर दिया कैसा अज़ाब
हैरती कोई नहीं मंज़र बदल जाने के बाद
अब हवा ने हुक्म जारी कर दिया बादल के नाम
खूब बरसेंगी घटायें शहर जल जाने के बाद
तोड़ दो 'आलम' कमां या अब क़लम कर लो ये हाथ
लौट कर आते नहीं हैं तीर चल जाने के बाद
४.
क्यों आँखें बंद कर के रस्ते में चल रहा हूँ
क्या मैं भी रफ्ता रफ्ता पत्थर में ढल रहा हूँ
चारों तरफ हैं शोले हमसाये जल रहे हैं
मैं घर में बैठा बैठा बस हाथ मल रहा हूँ
मेरे धुएं से मेरी हर साँस घुट रही है
मैं राह का दिया हूँ और घर में जल रहा हूँ
आँखों पे छा गया है जादू ही कोई शायद
पलकें झपक रहा हूँ , मंज़र बदल रहा हूँ
तब्दीलियों का नश्शा मुझ पर चढ़ा हुआ है
कपड़े बदल रहा हूँ , चेहरा बदल रहा हूँ
इस फैसले से खुश हैं , अफ़राद घर के सारे
अपनी खुशी से कब मैं घर से निकल रहा हूँ
इन पत्थरों पे चलना आ जायेगा मुझे भी
ठोकर तो खा रहा हूँ , लेकिन संभल रहा हूँ
काँटों पे जब चलूँगा , रफ़्तार तेज़ होगी
फूलों भरी रविश है,बच बच के चल रहा हूँ
चश्मे की तरह 'आलम' अशआर फूटते हैं
कोहे-गिरां की सूरत , मैं भी उबल रहा हूँ
किस भरोसे पर किसी से आश्नाई कीजिये
आशना चेहरे भी तो नाआशना रहने लगे
हर सदा ख़ाली मकानों से पलट आने लगी
क्या पता अब किस जगह अहलेवफ़ा रहने लगे
रंग ओ रौगन बाम ओ दर के उड़ ही जाते हैं जनाब
जब किसी के घर में कोई दूसरा रहने लगे
हिज्र कि लज़्ज़त जरा उस के मकीं से पूछिये
हर घड़ी जिस घर का दरवाज़ा खुला रहने लगे
इश्क़ में तहजीब के हैं और ही कुछ सिलसिले
तुझ से हो कर हम खफ़ा, खुद से खफ़ा रहने लगे
फिर पुरानी याद कोई दिल में यूँ रहने लगी
इक खंडहर में जिस तरह जलता दिया रहने लगे
आसमाँ से चाँद उतरेगा भला क्यों ख़ाक पर
तुम भी आलम वाहमों में मुब्तला रहने लगे
भीड़ बहुत है इस मेले में खो सकता हूँ मैं
पीछे छूटे साथी मुझको याद आ जाते हैं
वरना दौड़ में सबसे आगे हो सकता हूँ मैं
कब समझेंगे जिनकी ख़ातिर फूल बिछाता हूँ
इन रस्तों पर कांटे भी तो बो सकता हूँ मैं
इक छोटा-सा बच्चा मुझ में अब तक ज़िंदा है
छोटी छोटी बात पे अब भी रो सकता हूँ मैं
सन्नाटे में दहशत हर पल गूँजा करत्ती है
इस जंगल में चैन से कैसे सो सकता हूँ मैं
सोच-समझ कर चट्टानों से उलझा हूँ वरना
जन्म:११ जुलाई,१९५९
जन्म स्थान :आरा,बिहार
प्रकाशित कृतियाँ: ग़ज़ल संग्रह- नए मौसम की तलाश (१९८८) तथा ज़हरे गुल, ख्यलाबाद उर्दू में। एक दरिया ख़्वाब में तथा कारे जियाँ हिंदी में।
१.
मगर हम यहाँ से गुज़र जाएँगे
इसी खौफ से नींद आती नहीं
कि हम ख्वाब देखेंगे डर जाएँग
डराता बहुत है समन्दर हमें
समन्दर में इक दिन उतर जाएँगे
जो रोकेगी रस्ता कभी मंज़िलें
घड़ी दो घड़ी को ठहर जाएँगे
कहाँ देर तक रात ठहरी कोई
किसी तरह ये दिन गुज़र जाएँगे
इसी खुशगुमानी ने तनहा किया
जिधर जाऊँगा, हमसफ़र जाएँगे
बदलता है सब कुछ तो 'आलम' कभी
ज़मीं पर सितारे बिखर जाएँगे
२.
हर घर में कोई तहख़ाना होता है
तहख़ाने में इक अफ़साना होता है
किसी पूरानी अलमारी के ख़ानों में
यादों का अनमोल ख़ज़ाना होता है
रात गए अक्सर दिल के वीराने में
इक साए का आना-जाना होता है
दिल रोता है, चेहरा हँसता रहता है
कैसा-कैसा फ़र्ज़ निभाना होता है
बढती जाती है बेचैनी नाख़ून की
जैस- जैसे ज़ख्म पुराना होता है
ज़िंदा रहने की ख़ातिर इन आँखों में
कोई न कोई ख़्वाब सजाना होता है
तन्हाई का ज़हर तो वो भी पीते हैं
हर पल जिनके साथ ज़माना होता है
क्यों लोगों को याद नहीं रहता आलम
इस दुनिया से वापस जाना होता है
३.
याद आता हूँ तुम्हें सूरज निकल जाने के बाद
इक सितारे ने ये पूछा रात ढल जाने के बाद
मैं ज़मीं पर हूँ तो फिर क्यों देखता हूँ आसमां
यह ख्याल आया मुझे अक्सर फिसल जाने के बाद
दोस्तों के साथ चलने में भी हैं खतरे हज़ार
भूल जाता हूँ हमेशा मैं संभल जाने के बाद
फासला भी कुछ ज़रूरी है चरागाँ करते वक्त
तजरबा ये हाथ आया , हाथ जल जाने के बाद
एक ही मंज़िल पे जाते हैं यहाँ रस्ते तमाम
यह खुला मुझ पर मगर रस्ता बदल जाने के बाद
वहशते-दिल को बयाबां से ताल्लुक है अजीब
कोई घर लौटा नहीं घर से निकल जाने के बाद
आगही ने हम पे नाज़िल कर दिया कैसा अज़ाब
हैरती कोई नहीं मंज़र बदल जाने के बाद
अब हवा ने हुक्म जारी कर दिया बादल के नाम
खूब बरसेंगी घटायें शहर जल जाने के बाद
तोड़ दो 'आलम' कमां या अब क़लम कर लो ये हाथ
लौट कर आते नहीं हैं तीर चल जाने के बाद
४.
क्यों आँखें बंद कर के रस्ते में चल रहा हूँ
क्या मैं भी रफ्ता रफ्ता पत्थर में ढल रहा हूँ
चारों तरफ हैं शोले हमसाये जल रहे हैं
मैं घर में बैठा बैठा बस हाथ मल रहा हूँ
मेरे धुएं से मेरी हर साँस घुट रही है
मैं राह का दिया हूँ और घर में जल रहा हूँ
आँखों पे छा गया है जादू ही कोई शायद
पलकें झपक रहा हूँ , मंज़र बदल रहा हूँ
तब्दीलियों का नश्शा मुझ पर चढ़ा हुआ है
कपड़े बदल रहा हूँ , चेहरा बदल रहा हूँ
इस फैसले से खुश हैं , अफ़राद घर के सारे
अपनी खुशी से कब मैं घर से निकल रहा हूँ
इन पत्थरों पे चलना आ जायेगा मुझे भी
ठोकर तो खा रहा हूँ , लेकिन संभल रहा हूँ
काँटों पे जब चलूँगा , रफ़्तार तेज़ होगी
फूलों भरी रविश है,बच बच के चल रहा हूँ
चश्मे की तरह 'आलम' अशआर फूटते हैं
कोहे-गिरां की सूरत , मैं भी उबल रहा हूँ
५.
रंग बिरंगे सपने रोज़ दिखा जाता है क्यों
बैरी चाँद हमारी छत पर आ जाता है क्यों
क्या रिश्ता है आखिर मेरा एक सितारे से
रोज़ वो कोई राज़ मुझे बतला जाता है क्यों
पलकें बंद करूं तो सब कुछ अच्छा लगता है
आँखें खोलूँ तो कोहरा सा छा जाता है क्यों
हर पैकर का अपना अपना साया होता है
लेकिन साये को साया ही खा जाता है क्यों
मेरे हिस्से की किरणें जब कोई चुराता है
नील गगन पर सूरज वो शरमा जाता है क्यों
शायद उसके दिल में कोई चोर समाया है
देख के मुझको यार मेरा घबरा जाता है क्यों
बैरी चाँद हमारी छत पर आ जाता है क्यों
क्या रिश्ता है आखिर मेरा एक सितारे से
रोज़ वो कोई राज़ मुझे बतला जाता है क्यों
पलकें बंद करूं तो सब कुछ अच्छा लगता है
आँखें खोलूँ तो कोहरा सा छा जाता है क्यों
हर पैकर का अपना अपना साया होता है
लेकिन साये को साया ही खा जाता है क्यों
मेरे हिस्से की किरणें जब कोई चुराता है
नील गगन पर सूरज वो शरमा जाता है क्यों
शायद उसके दिल में कोई चोर समाया है
देख के मुझको यार मेरा घबरा जाता है क्यों
६.
तोड़ के इसको वर्षो रोना होता है
दिल शीशे का एक खिलौना होता है
महफ़िल में सब हँसते-गाते रहते है
तन्हाई में रोना-धोना होता है
कोई जहाँ से रोज़ पुकारा करता है
हर दिल में इक ऐसा कोना होता है
बेमतलब कि चालाकी हम करते हैं
हो जाता है जो भी होना होता है
दुनिया हासिल करने वालों से पूछो
इस चक्कर में क्या-क्या खोना होता है
सुनता हूँ उनको भी नींद नहीं आती
जिनके घर में चांदी-सोना होता है
खुद ही अपनी शाखें काट रहे हैं हम
क्या बस्ती में जादू-टोना होता है
काँटे-वाँटे चुभते रहते हैं आलम
लेकिन हम को फूल पिरोना होता है
दिल शीशे का एक खिलौना होता है
महफ़िल में सब हँसते-गाते रहते है
तन्हाई में रोना-धोना होता है
कोई जहाँ से रोज़ पुकारा करता है
हर दिल में इक ऐसा कोना होता है
बेमतलब कि चालाकी हम करते हैं
हो जाता है जो भी होना होता है
दुनिया हासिल करने वालों से पूछो
इस चक्कर में क्या-क्या खोना होता है
सुनता हूँ उनको भी नींद नहीं आती
जिनके घर में चांदी-सोना होता है
खुद ही अपनी शाखें काट रहे हैं हम
क्या बस्ती में जादू-टोना होता है
काँटे-वाँटे चुभते रहते हैं आलम
लेकिन हम को फूल पिरोना होता है
७.
थपक-थपक के जिन्हें हम सुलाते रहते हैं
वो ख्वाब हम को हमेशा जगाते रहते हैं
उम्मीदें जागती रहती हैं, सोती रहती हैं
दरीचे शम्मा जलाते-बुझाते रहते हैं
न जाने किस का हमें इन्तिज़ार रहता है
कि बाम ओ दर को हमेशा सजाते रहते हैं
किसी को खोजते हैं हम किसी के पैकर में
किसी का चेहरा किसी से मिलाते रहते हैं
वो नक़्शे ख्वाब मुकम्मल कभी नहीं होता
तमाम उम्र जिसे हम बनाते रहते हैं
उसी का अक्स हर इक रंग में झळकता है
वो एक दर्द जिसे हम छुपाते रहते हैं
हमें खबर है दोबारा कभी न आएंगे
गए दिनों को मगर हम बुलाते रहते हैं
ये खेल सिर्फ तुम्हीं खेलते नहीं आलम
सभी हवा में लकीरे बनाते रहते हैं
वो ख्वाब हम को हमेशा जगाते रहते हैं
उम्मीदें जागती रहती हैं, सोती रहती हैं
दरीचे शम्मा जलाते-बुझाते रहते हैं
न जाने किस का हमें इन्तिज़ार रहता है
कि बाम ओ दर को हमेशा सजाते रहते हैं
किसी को खोजते हैं हम किसी के पैकर में
किसी का चेहरा किसी से मिलाते रहते हैं
वो नक़्शे ख्वाब मुकम्मल कभी नहीं होता
तमाम उम्र जिसे हम बनाते रहते हैं
उसी का अक्स हर इक रंग में झळकता है
वो एक दर्द जिसे हम छुपाते रहते हैं
हमें खबर है दोबारा कभी न आएंगे
गए दिनों को मगर हम बुलाते रहते हैं
ये खेल सिर्फ तुम्हीं खेलते नहीं आलम
सभी हवा में लकीरे बनाते रहते हैं
८.
लुत्फ़ हम को आता है अब फ़रेब खाने में
आज़माए लोगों को रोज़ आज़माने में
दो घड़ी के साथी को हमसफ़र समझते हैं
किस क़दर पुराने हैं , हम नए ज़माने में
एहतियात रखने की कोई हद भी होती है
भेद हम ने खोले हैं , भेद को छुपाने में
तेरे पास आने में आधी उम्र गुजरी है
आधी उम्र गुज़रेगी तुझ से दूर जाने में
ज़िन्दगी तमाशा है और इस तमाशे में
खेल हम बिगाड़ेंगे , खेल को बनाने में
कारवां को उनका भी कुछ ख्याल आता है
जो सफ़र में पिछड़े हैं , रास्ता बनाने में
आज़माए लोगों को रोज़ आज़माने में
दो घड़ी के साथी को हमसफ़र समझते हैं
किस क़दर पुराने हैं , हम नए ज़माने में
एहतियात रखने की कोई हद भी होती है
भेद हम ने खोले हैं , भेद को छुपाने में
तेरे पास आने में आधी उम्र गुजरी है
आधी उम्र गुज़रेगी तुझ से दूर जाने में
ज़िन्दगी तमाशा है और इस तमाशे में
खेल हम बिगाड़ेंगे , खेल को बनाने में
कारवां को उनका भी कुछ ख्याल आता है
जो सफ़र में पिछड़े हैं , रास्ता बनाने में
९.
हमेशा दिल में रहता है, कभी गोया नहीं जाता
जिसे पाया नहीं जाता, उसे खोया नहीं जाता
कुछ ऐसे ज़ख्म हैं जिनको सभी शादाब रखते हैं
कुछ ऐसे दाग़ हैं जिनको कभी धोया नहीं जाता
बहुत हँसने कि आदत का यही अंजाम होता है
कि हम रोना भी चाहें तो कभी रोया नहीं जाता
अजब सी गूँज उठती है दरो-दीवार से हरदम
ये उजड़े ख़्वाब का घर है यहाँ सोया नहीं जाता
ज़रा सोचो ये दुनिया किस क़दर बेरंग हो जाती
अगर आँखों में कोई ख़्वाब ही बोया नहीं जाता
न जाने अब मुहब्बत पर मुसीबत क्या पड़ी आलम
कि अहले दिल से दिल का बोझ भी ढोया नहीं जाता
जिसे पाया नहीं जाता, उसे खोया नहीं जाता
कुछ ऐसे ज़ख्म हैं जिनको सभी शादाब रखते हैं
कुछ ऐसे दाग़ हैं जिनको कभी धोया नहीं जाता
बहुत हँसने कि आदत का यही अंजाम होता है
कि हम रोना भी चाहें तो कभी रोया नहीं जाता
अजब सी गूँज उठती है दरो-दीवार से हरदम
ये उजड़े ख़्वाब का घर है यहाँ सोया नहीं जाता
ज़रा सोचो ये दुनिया किस क़दर बेरंग हो जाती
अगर आँखों में कोई ख़्वाब ही बोया नहीं जाता
न जाने अब मुहब्बत पर मुसीबत क्या पड़ी आलम
कि अहले दिल से दिल का बोझ भी ढोया नहीं जाता
१०.
एक हम हैं कि कभी याद भी आया न गया
एक वो है कि कभी उसको भुलाया न गया
उसकी तस्वीर उतारे तो ज़माना गुज़रा
फिर भी दीवार से तस्वीर का साया न गया
इस तरह टूट के बिखरा है कोई ख्वाब कि फिर
दूसरा ख्वाब इन आँखों से सजाया न गया
कैसे वीरान जज़ीरे से है निस्बत दिल को
भूले भटके भी यहाँ कोई न आया न गया
कितने नाजां थे कभी मेरी रिफाक़त पे वही
दो क़दम जिनसे मेरा साथ निभाया न गया
चारागर! तुझ से शिकायत नहीं हमको कोई
ज़ख्म जो तूने दिए थे वो दिखाया न गया
११.
क़ुर्बतो के बीच जैसे फ़ासला रहने लगे
यूँ किसी के साथ रहकर हम जुदा रहने लगे किस भरोसे पर किसी से आश्नाई कीजिये
आशना चेहरे भी तो नाआशना रहने लगे
हर सदा ख़ाली मकानों से पलट आने लगी
क्या पता अब किस जगह अहलेवफ़ा रहने लगे
रंग ओ रौगन बाम ओ दर के उड़ ही जाते हैं जनाब
जब किसी के घर में कोई दूसरा रहने लगे
हिज्र कि लज़्ज़त जरा उस के मकीं से पूछिये
हर घड़ी जिस घर का दरवाज़ा खुला रहने लगे
इश्क़ में तहजीब के हैं और ही कुछ सिलसिले
तुझ से हो कर हम खफ़ा, खुद से खफ़ा रहने लगे
फिर पुरानी याद कोई दिल में यूँ रहने लगी
इक खंडहर में जिस तरह जलता दिया रहने लगे
आसमाँ से चाँद उतरेगा भला क्यों ख़ाक पर
तुम भी आलम वाहमों में मुब्तला रहने लगे
१२.
अपने घर में ख़ुद ही आग लगा लेते हैं
पागल हैं हम अपनी नींद उड़ा लेते हैं
जीवन अमृत कब हमको अच्छा लगता है
ज़हर हमें अच्छा लगता है खा लेते हैं
क़त्ल किया करते हैं कितनी चालाकी से
हम ख़ंजर पर नाम अपना लिखवा लेते हैं
रास नहीं आता है हमको उजला दामन
रुसवाई के गुल-बूटे बनवा लेते हैं
पंछी हैं लेकिन उड़ने से डर लगता है
अक्सर अपने बाल ओ पर कटवा लेते हैं
सत्ता की लालच ने धरती बाँटी लेकिन
अपने सीने पर तमगा लटका लेते हैं
याद नहीं है मुझको भी अब दीन का रस्ता
नाम मुहम्मद का लेकिन अपना लेते हैं
औरों को मुजरिम ठहरा कर अब हम आलम
अपने गुनाहों से छुटकारा पा लेते हैं
१३.
उम्र सफर में गुजरी लेकिन शौके-सियाह्त बाकी है
कोई मुसाफत खत्म हुई है कोई मुसाफत बाकी है
ऐसे बहुत से रस्ते हैं जो रोज पुकारा करते हैं
कई मनाज़िल सर करने की अब तक चाहत बाकी है
एक सितारा हाथ पकड़ कर दूर कहीं ले जाता है
रोज़ गगन में खो जाने की अबतक आदत बाकी है
चश्मे -बसीरत कुछ तो बता दे कब वो लम्हे आयेंगे
जिन की खातिर इन आँखों में इतनी बसारत बाकी है
खत्म कहानी हो जाती तो नींद मुझे भी आ जाती
कोई फ़साना भूल गया हूँ कोई हिकायत बाकी है
दुनिया के गम फुर्सत दें तो दिल के तकाजे पूरे हों
कूचा-ए-जानां! तेरी भी तो सैर ओ सियाहत बाकी है
शहरे-तमन्ना! बाज़ आया मैं तेरे नाज़ उठाने से
एक शिकायत दूर करूँ तो एक शिकायत बाक़ी है
एक जरा सी उम्र में 'आलम ' कहाँ कहाँ की सैर करूँ
जाने मेरे हिस्से में अब कितनी मुहलत बाकी है
१४.
एक अजब सी दुनिया देखा करता था
दिन में भी मैं सपना देखा करता था
एक ख्यालाबाद था मेरे दिल में भी
खुद को मैं शहजादा देखा करता था
सब्ज़ परी का उड़नखटोला हर लम्हे
अपनी जानिब आता देखा करता था
उड़ जाता था रूप बदलकर चिड़ियों के
जंगल सेहरा दरिया देखा करता था
हीरे जैसा लगता था इक-इक कंकर
हर मिट्टी में सोना देखा करता था
कोई नहीं था प्यासा रेगिस्तानो में
हर सेहरा में दरिया देखा करता था
हर जानिब हरियाली थी ख़ुशहाली थी
हर चेहरे को हँसता देखा करता था
बचपन के दिन कितने अच्छे होते हैं
सब कुछ ही मैं अच्छा देखा करता था
आँख खुली तो सारे मंज़र ग़ायब हैं
बंद आँखों से क्या-क्या देखा करता था
१५.
कोई मौक़ा नहीं मिलता हमें अब मुस्कुराने का
बला का शौक़ था हम को कभी हँसने-हँसाने का
हमें भी टीस की लज्ज़त पसंद आने लगी है क्या
ख़याल आता नहीं ज़ख्मों प अब मरहम लगाने का
मेरी दीवानगी क्यों मुन्तज़िर है रुत बदलने की
कोई मौसम भी होता है जुनूँ को आज़माने का
उन्हें मालूम है फिर लौट आएंगे असीर उनके
खुला रहता है दरवाज़ा हमेशा क़ैदखाने का
चटानों को मिली है छूट रस्ता रोक लेने की
मेरी लहरों को हक़ हासिल नहीं है सर उठाने का
अकड़ती जा रही हैं रोज़ गर्दन की रगें आलम
हमें ए काश! आ जाए हुनर भी सर झुकाने का
१६.
क्या अँधेरों से वही हाथ मिलाए हुए हैं
जो हथेली पे चिराग़ों को सजाए हुए हैं
रात के खौफ़ से किस दर्जा परीशाँ हैं हम
शाम से पहले चिराग़ों को सजाए हुए हैं
कोई सैलाब न आ जाए इसी खौफ़ से हम
अपनी पलकों से समुन्दर को दबाए हुए हैं
कैसे दीवार-ओ- दर-ओ बाम की इज्ज़त होगी
अपने ही घर में अगर लोग पराए हुए हैं
यूँ मेरी गोशानशीनी से शिकायत है उन्हें
जैसे वो मेरे लिए पलकें बिछाए हुए हैं
एक होने नहीं देती है सियासत लेकिन
हम भी दीवार प दीवार उठाए हुए हैं
बस यही जुर्म हमारा है कि हम भी आलम
अपनी आँखों में हसीं ख़्वाब सजाए हुए हैं
१७.
ख़बर सच्ची नहीं लगती नए मौसम के आने की
मेरी बस्ती में चलती है हवा पिछले ज़माने की
मेरी हर शाख को मौसम दिलासे रोज़ देता है
मगर अब तक नहीं आई वो साअत गुल खिलाने की
सुना है और की ख़ातिर वो अब पलकें बिछाती हैं
जो राहें मुन्तज़िर रहती थीं मेरे आने जाने की
हमारे ज़ख्म ही ये कम अब अंजाम देते हैं
ज़रुरत ही नहीं पड़ती लबों को मुस्कुराने की
ज़माना चाहता है क्यों मेरी फ़ितरत बदल देना
इसे क्यों ज़िद है आख़िर फूल को पत्थर बनाने की
बुरी अब हो गई दुनिया शिकायत सब को है लेकिन
कोई कोशिश नहीं करता इसे बेहतर बनाने की
हमारे कैन्वस पर यूँ स्याही फिर गई आलम
कि अब जुर्रत नहीं होती नया मंज़र बनाने की
१८.
चारों तरफ जमीं को शादाब देखता हूँ
क्या खूब देखता हूँजब ख़्वाब देखता हूँ
इस बात से मुझे भी हैरानी हो रही है
सेहरा में हर तरफ मैं सैलाब देखता हूँ
यह सच अगर कहूँगा सब लोग हंस पड़ेंगे
मैं दिन में भी फलक पर महताब देखता हूँ
बरसों पुराना रिश्ता दरिया से आज भी है
लहरों को अपनी खातिर बेताब देखता हूँ
मौजों से खेलती थीं जो कश्तियाँ भंवर में
अब उन को साहिलों पर गरकाब देखता हूँ
सरे मकीन बाहर सड़कों पे भागते हैं
घर घर में बे-घरी के असबाब देखता हूँ
मुझ को यकीं नहीं है इंसान मर चुका है
इंसानियत को लेकिन कमयाब देखता हूँ
दिल की कुशादगी में शायद कमी हुई है
अपने करीब कम कम अहबाब देखता हूँ
दरिया की सैर करते गुजरी है उम्र आलम
खुश्की पे भी चलूं तो गिर्दाब देखता हूँ
१९.
जब मिटटी खून से गीली हो जाती है
कोई न कोई तह पथरीली हो जाती है
वक़्त बदन के ज़ख्म तो भर देता है लेकिन
दिल के अन्दर कुछ तब्दीली हो जाती है
पी लेता हूँ अमृत जब मैं ज़ह्र के बदले
काया रंगत और भी नीली हो जाती है
मुद्दत में उल्फ़त के फूल खिला करते हैं
पल में नफरत छैल-छबीली हो जाती है
पूछ रहे हैं मुझ से पेड़ों के सौदागर
आब ओ हवा कैसे ज़हरीली हो जाती है
मूरख! उसके मायाजाल से बच के रहना
जब तब उसकी रस्सी ढीली हो जाती है
गूंध रहा हूँ शब्दों को नरमी से लेकिन
जाने कैसे बात नुकीली हो जाती है
दर्द की लहरों को सुर में तो ढालो आलम
बंसी की हर तान सुरीली हो जाती है
२०.
जिस कि दूरी वज्हे-ग़म हो जाती है
पास आकर वो ग़ैर अहम हो जाती है
मैं शबनम का क़िस्सा लिखता रहता हूँ
और काग़ज़ पर धूप रक़म हो जाती है
आन बसा है सेहरा मेरी आँखों में
दिल की मिट्टी कैसे नम हो जाती है
जिसने इस को ठुकराने की जुर्रत की
दुनिया उसके आगे ख़म हो जाती है
ऊँचे सुर में हम भी गाया करते थे
रफ़्ता रफ़्ता लय मद्धम हो जाती है
मैं जितनी रफ़्तार बढ़ाता हूँ आलम
मंज़िल उतनी तेज़ क़दम हो जाती है
२१.
दरवाज़े पर दस्तक देते डर लगता है
सहमा-सहमा-सा अब मेरा घर लगता है
साज़िश होती रहती है दीवार ओ दर में
घर से अच्छा अब मुझको बाहर लगता है
झुक कर चलने की आदत पड़ जाए शायद
सर जो उठाऊँ दरवाज़े में सर लगता है
क्यों हर बार निशाना मैं ही बन जाता हूँ
क्यों हर पत्थर मेरे ही सर पर लगता है
ज़िक्र करूँ क्या उस की ज़ुल्म ओ तशद्दुद का मैं
फूल भी जिसके हाथों में पत्थर लगता है
लौट के आया हूँ मैं तपते सहराओं से
शबनम का क़तरा मुझको सागर लगता है
ठीक नहीं है इतना अच्छा बन जाना भी
जिस को देखूँ वो मुझ से बेहतर लगता है
इक मुद्दत पर आलम बाग़ में आया हूँ मैं
बदला-बदला-सा हर इक मंज़र लगता है
२२.
दरियाओं पर अब्र बरसते रहते हैं
और हमारे खेत तरसते रहते हैं
अपना ही वीरानी से कुछ रिश्ता है
वरना दिल भी उजड़ते बसते रहते हैं
उनको भी पहचान बनानी है अपनी
औरों पर आवाज़ें कसते रहते हैं
बच्चे कैसे उछलें कूदें जस्त भरें
उन की पीठ पे भारी बसते रहते हैं
उनके दिल में झाँकें इक दिन हम आलम
जिन के हाथों में गुलदस्ते रहते हैं
२३.
देख रहा है दरिया भी हैरानी से
मैं ने कैसे पार किया आसानी से
नदी किनारे पहरों बैठा रहता हूँ
कुछ रिश्ता है मेरा बहते पानी से
हर कमरे से धूप हवा की यारी थी
घर का नक्शा बिगड़ा है मनमानी से
अब जंगल में चैन से सोया करता हूँ
डर लगता था बचपन में वीरानी से
दिल पागल है रोज़ पशीमाँ होता है
फिर भी बाज़ नहीं आता मनमानी से
अपना फ़र्ज़ निभाना एक इबादत है
आलम हम ने सीखा इक जापानी से
२४.
नींद पलकों में धरी रहती थी
जब ख़यालों में परी रहती थी
ख़्वाब जब तक थे मेरी आंखों में
शाख़े- उम्मीद हरी रहती थी
एक दरिया था तेरी यादों का
दिल के सेहरा में तरी रहती थी
कोई चिड़िया थी मेरे अंदर भी
जो हर इक ग़म से बरी रहती थी
हैरती अब हैं सभी पैमाने
ये सुराही तो भरी रहती थी
कितने पैबन्द नज़र आते हैं
जिन लिबासों में ज़री रहती थी
एक आलम था मेरे क़दमों में
पास जादू की दरी रहती थी
२५.
बह रहा था एक दरिया ख़्वाब में
रह गया मैं फिर भी प्यासा ख़्वाब में
जी रहा हूँ और दुनिया में मगर
देखता हूँ और दुनिया ख़्वाब में
रोज़ आता है मेरा ग़म बाँटने
आसमाँ से इक सितारा ख़्वाब में
इस जमीं पर तो नज़र आता नहीं
बस गया है जो सरापा ख़्वाब में
मुद्दतों से दिल है उसका मुन्तजीर
कोई वादा कर गया था ख़्वाब में
एक बस्ती है जहाँ खुश हैं सभी
देख लेता हूँ मैं क्या-क्या ख़्वाब में
असल दुनिया में तमाशे कम हैं क्या
क्यों नजर आये तमाशा ख़्वाब में
खोल कर आँखें पशेमा हूँ बहुत
खो गया जो कुछ मिला था ख़्वाब में
२६.
बीच भँवर में पहले उतारा जाता है
फिर साहिल से हमें पुकारा जाता है
ख़ुश हैं यार हमारी सादालौही पर
हम ख़ुश हैं क्या इसमें हमारा जाता है
पहले भी वो चाँद हमारा साथी था
देखें! कितनी दूर सितारा जाता है
कब तक अपनी पलकें बंद रखोगे तुम
क्या आँखों से कोई नज़ारा जाता है
दुनिया की आदत है इसमें हैरत क्या
काँच के घर पर पत्थर मारा जाता है
कब आएगा तेरा सुनहरा कल आलम
इस चक्कर में आज हमारा जाता है
२७.
मिल के रहने की ज़रूरत ही भुला दी गई क्या
याँ मुहब्बत की रिवायत थी मिटा दी गई क्या
बेनिशाँ कब के हुए सारे पुराने नक़शे
और बेहतर कोई तस्वीर बना दी गई क्या
अब के दरिया में नज़र आती है सुर्ख़ी कैसी
बहते पानी में कोई चीज़ मिला दी गई क्या
एक बन्दे की हुकूमत है खुदाई सारी
सारी दुनिया में मुनादी ये करा दी गई क्या
मुँह उठाए चले आते हैं अन्धेरों के सफ़ीर
वो जो इक रस्म ए चिरागाँ थी उठा दी गई क्या
मैं अन्धेरों में भटकता हूँ तो हैरत कैसी
मेरे रस्ते में कोई शम्मा जला दी गई क्या
२८.
सियाहियों को निगलता हुआ नज़र आया
कोई चिराग तो जलता हुआ नज़र आया
दुखों ने राब्ते मज़बूत कर दिए अपने
तमाम शहर बदलता हुआ नज़र आया
ये प्यास मुझको जमीं पर गिराने वाली थी
कि एक चश्मा उबलता हुआ नज़र आया
वो मेरे साथ भला कितनी दूर जाएगा
जो हर कदम पे सँभलता हुआ नज़र आया
नई हवा से बचूँ कैसे मैं कि शहर मेरा
नए मिज़ाज में ढलता हुआ नज़र आया
तवकआत ही उठने लगीं ज़माने से
जो एक शख़्स बदलता हुआ नज़र आया
शिकस्त दे के मुझे खुश तो था बहुत 'आलम'
मगर वो हाथ भी मलता हुआ नज़र आया।
२९.
रंग-बिरंगे ख़्वाबों के असबाब कहाँ रखते हैं हम
अपनी आँखों में कोई महताब कहाँ रखते हैं हम
यह अपनी ज़रखेज़ी है जो खिल जाते हैं फूल नए
वरना अपनी मिटटी को शादाब कहाँ रखते हैं हम
हम जैसों कि नाकामी पर क्यों हैरत है दुनिया को
हर मौसम में जीने के आदाब कहाँ रखते हैं हम
महरूमी ने ख़्वाबों में भी हिज्र के काँटे बोए हैं
उस का पैकर मर्मर का किम्ख्वाब कहाँ रखते हैं हम
तेज़ हवा के साथ उड़े हैं जो अवराक़ सुनहरे थे
अब क़िस्से में दिलचस्पी का बाब कहाँ रखते हैं हम
सुब्ह सवेरे आँगन अपना गूँज उठे चहकारों से
तोता मैना बुलबुल या सुर्खाब कहाँ रखते हैं हम
पागल हैं हम अपनी नींद उड़ा लेते हैं
जीवन अमृत कब हमको अच्छा लगता है
ज़हर हमें अच्छा लगता है खा लेते हैं
क़त्ल किया करते हैं कितनी चालाकी से
हम ख़ंजर पर नाम अपना लिखवा लेते हैं
रास नहीं आता है हमको उजला दामन
रुसवाई के गुल-बूटे बनवा लेते हैं
पंछी हैं लेकिन उड़ने से डर लगता है
अक्सर अपने बाल ओ पर कटवा लेते हैं
सत्ता की लालच ने धरती बाँटी लेकिन
अपने सीने पर तमगा लटका लेते हैं
याद नहीं है मुझको भी अब दीन का रस्ता
नाम मुहम्मद का लेकिन अपना लेते हैं
औरों को मुजरिम ठहरा कर अब हम आलम
अपने गुनाहों से छुटकारा पा लेते हैं
१३.
उम्र सफर में गुजरी लेकिन शौके-सियाह्त बाकी है
कोई मुसाफत खत्म हुई है कोई मुसाफत बाकी है
ऐसे बहुत से रस्ते हैं जो रोज पुकारा करते हैं
कई मनाज़िल सर करने की अब तक चाहत बाकी है
एक सितारा हाथ पकड़ कर दूर कहीं ले जाता है
रोज़ गगन में खो जाने की अबतक आदत बाकी है
चश्मे -बसीरत कुछ तो बता दे कब वो लम्हे आयेंगे
जिन की खातिर इन आँखों में इतनी बसारत बाकी है
खत्म कहानी हो जाती तो नींद मुझे भी आ जाती
कोई फ़साना भूल गया हूँ कोई हिकायत बाकी है
दुनिया के गम फुर्सत दें तो दिल के तकाजे पूरे हों
कूचा-ए-जानां! तेरी भी तो सैर ओ सियाहत बाकी है
शहरे-तमन्ना! बाज़ आया मैं तेरे नाज़ उठाने से
एक शिकायत दूर करूँ तो एक शिकायत बाक़ी है
एक जरा सी उम्र में 'आलम ' कहाँ कहाँ की सैर करूँ
जाने मेरे हिस्से में अब कितनी मुहलत बाकी है
१४.
एक अजब सी दुनिया देखा करता था
दिन में भी मैं सपना देखा करता था
एक ख्यालाबाद था मेरे दिल में भी
खुद को मैं शहजादा देखा करता था
सब्ज़ परी का उड़नखटोला हर लम्हे
अपनी जानिब आता देखा करता था
उड़ जाता था रूप बदलकर चिड़ियों के
जंगल सेहरा दरिया देखा करता था
हीरे जैसा लगता था इक-इक कंकर
हर मिट्टी में सोना देखा करता था
कोई नहीं था प्यासा रेगिस्तानो में
हर सेहरा में दरिया देखा करता था
हर जानिब हरियाली थी ख़ुशहाली थी
हर चेहरे को हँसता देखा करता था
बचपन के दिन कितने अच्छे होते हैं
सब कुछ ही मैं अच्छा देखा करता था
आँख खुली तो सारे मंज़र ग़ायब हैं
बंद आँखों से क्या-क्या देखा करता था
१५.
कोई मौक़ा नहीं मिलता हमें अब मुस्कुराने का
बला का शौक़ था हम को कभी हँसने-हँसाने का
हमें भी टीस की लज्ज़त पसंद आने लगी है क्या
ख़याल आता नहीं ज़ख्मों प अब मरहम लगाने का
मेरी दीवानगी क्यों मुन्तज़िर है रुत बदलने की
कोई मौसम भी होता है जुनूँ को आज़माने का
उन्हें मालूम है फिर लौट आएंगे असीर उनके
खुला रहता है दरवाज़ा हमेशा क़ैदखाने का
चटानों को मिली है छूट रस्ता रोक लेने की
मेरी लहरों को हक़ हासिल नहीं है सर उठाने का
अकड़ती जा रही हैं रोज़ गर्दन की रगें आलम
हमें ए काश! आ जाए हुनर भी सर झुकाने का
१६.
क्या अँधेरों से वही हाथ मिलाए हुए हैं
जो हथेली पे चिराग़ों को सजाए हुए हैं
रात के खौफ़ से किस दर्जा परीशाँ हैं हम
शाम से पहले चिराग़ों को सजाए हुए हैं
कोई सैलाब न आ जाए इसी खौफ़ से हम
अपनी पलकों से समुन्दर को दबाए हुए हैं
कैसे दीवार-ओ- दर-ओ बाम की इज्ज़त होगी
अपने ही घर में अगर लोग पराए हुए हैं
यूँ मेरी गोशानशीनी से शिकायत है उन्हें
जैसे वो मेरे लिए पलकें बिछाए हुए हैं
एक होने नहीं देती है सियासत लेकिन
हम भी दीवार प दीवार उठाए हुए हैं
बस यही जुर्म हमारा है कि हम भी आलम
अपनी आँखों में हसीं ख़्वाब सजाए हुए हैं
१७.
ख़बर सच्ची नहीं लगती नए मौसम के आने की
मेरी बस्ती में चलती है हवा पिछले ज़माने की
मेरी हर शाख को मौसम दिलासे रोज़ देता है
मगर अब तक नहीं आई वो साअत गुल खिलाने की
सुना है और की ख़ातिर वो अब पलकें बिछाती हैं
जो राहें मुन्तज़िर रहती थीं मेरे आने जाने की
हमारे ज़ख्म ही ये कम अब अंजाम देते हैं
ज़रुरत ही नहीं पड़ती लबों को मुस्कुराने की
ज़माना चाहता है क्यों मेरी फ़ितरत बदल देना
इसे क्यों ज़िद है आख़िर फूल को पत्थर बनाने की
बुरी अब हो गई दुनिया शिकायत सब को है लेकिन
कोई कोशिश नहीं करता इसे बेहतर बनाने की
हमारे कैन्वस पर यूँ स्याही फिर गई आलम
कि अब जुर्रत नहीं होती नया मंज़र बनाने की
१८.
चारों तरफ जमीं को शादाब देखता हूँ
क्या खूब देखता हूँजब ख़्वाब देखता हूँ
इस बात से मुझे भी हैरानी हो रही है
सेहरा में हर तरफ मैं सैलाब देखता हूँ
यह सच अगर कहूँगा सब लोग हंस पड़ेंगे
मैं दिन में भी फलक पर महताब देखता हूँ
बरसों पुराना रिश्ता दरिया से आज भी है
लहरों को अपनी खातिर बेताब देखता हूँ
मौजों से खेलती थीं जो कश्तियाँ भंवर में
अब उन को साहिलों पर गरकाब देखता हूँ
सरे मकीन बाहर सड़कों पे भागते हैं
घर घर में बे-घरी के असबाब देखता हूँ
मुझ को यकीं नहीं है इंसान मर चुका है
इंसानियत को लेकिन कमयाब देखता हूँ
दिल की कुशादगी में शायद कमी हुई है
अपने करीब कम कम अहबाब देखता हूँ
दरिया की सैर करते गुजरी है उम्र आलम
खुश्की पे भी चलूं तो गिर्दाब देखता हूँ
१९.
जब मिटटी खून से गीली हो जाती है
कोई न कोई तह पथरीली हो जाती है
वक़्त बदन के ज़ख्म तो भर देता है लेकिन
दिल के अन्दर कुछ तब्दीली हो जाती है
पी लेता हूँ अमृत जब मैं ज़ह्र के बदले
काया रंगत और भी नीली हो जाती है
मुद्दत में उल्फ़त के फूल खिला करते हैं
पल में नफरत छैल-छबीली हो जाती है
पूछ रहे हैं मुझ से पेड़ों के सौदागर
आब ओ हवा कैसे ज़हरीली हो जाती है
मूरख! उसके मायाजाल से बच के रहना
जब तब उसकी रस्सी ढीली हो जाती है
गूंध रहा हूँ शब्दों को नरमी से लेकिन
जाने कैसे बात नुकीली हो जाती है
दर्द की लहरों को सुर में तो ढालो आलम
बंसी की हर तान सुरीली हो जाती है
२०.
जिस कि दूरी वज्हे-ग़म हो जाती है
पास आकर वो ग़ैर अहम हो जाती है
मैं शबनम का क़िस्सा लिखता रहता हूँ
और काग़ज़ पर धूप रक़म हो जाती है
आन बसा है सेहरा मेरी आँखों में
दिल की मिट्टी कैसे नम हो जाती है
जिसने इस को ठुकराने की जुर्रत की
दुनिया उसके आगे ख़म हो जाती है
ऊँचे सुर में हम भी गाया करते थे
रफ़्ता रफ़्ता लय मद्धम हो जाती है
मैं जितनी रफ़्तार बढ़ाता हूँ आलम
मंज़िल उतनी तेज़ क़दम हो जाती है
२१.
दरवाज़े पर दस्तक देते डर लगता है
सहमा-सहमा-सा अब मेरा घर लगता है
साज़िश होती रहती है दीवार ओ दर में
घर से अच्छा अब मुझको बाहर लगता है
झुक कर चलने की आदत पड़ जाए शायद
सर जो उठाऊँ दरवाज़े में सर लगता है
क्यों हर बार निशाना मैं ही बन जाता हूँ
क्यों हर पत्थर मेरे ही सर पर लगता है
ज़िक्र करूँ क्या उस की ज़ुल्म ओ तशद्दुद का मैं
फूल भी जिसके हाथों में पत्थर लगता है
लौट के आया हूँ मैं तपते सहराओं से
शबनम का क़तरा मुझको सागर लगता है
ठीक नहीं है इतना अच्छा बन जाना भी
जिस को देखूँ वो मुझ से बेहतर लगता है
इक मुद्दत पर आलम बाग़ में आया हूँ मैं
बदला-बदला-सा हर इक मंज़र लगता है
२२.
दरियाओं पर अब्र बरसते रहते हैं
और हमारे खेत तरसते रहते हैं
अपना ही वीरानी से कुछ रिश्ता है
वरना दिल भी उजड़ते बसते रहते हैं
उनको भी पहचान बनानी है अपनी
औरों पर आवाज़ें कसते रहते हैं
बच्चे कैसे उछलें कूदें जस्त भरें
उन की पीठ पे भारी बसते रहते हैं
उनके दिल में झाँकें इक दिन हम आलम
जिन के हाथों में गुलदस्ते रहते हैं
२३.
देख रहा है दरिया भी हैरानी से
मैं ने कैसे पार किया आसानी से
नदी किनारे पहरों बैठा रहता हूँ
कुछ रिश्ता है मेरा बहते पानी से
हर कमरे से धूप हवा की यारी थी
घर का नक्शा बिगड़ा है मनमानी से
अब जंगल में चैन से सोया करता हूँ
डर लगता था बचपन में वीरानी से
दिल पागल है रोज़ पशीमाँ होता है
फिर भी बाज़ नहीं आता मनमानी से
अपना फ़र्ज़ निभाना एक इबादत है
आलम हम ने सीखा इक जापानी से
२४.
नींद पलकों में धरी रहती थी
जब ख़यालों में परी रहती थी
ख़्वाब जब तक थे मेरी आंखों में
शाख़े- उम्मीद हरी रहती थी
एक दरिया था तेरी यादों का
दिल के सेहरा में तरी रहती थी
कोई चिड़िया थी मेरे अंदर भी
जो हर इक ग़म से बरी रहती थी
हैरती अब हैं सभी पैमाने
ये सुराही तो भरी रहती थी
कितने पैबन्द नज़र आते हैं
जिन लिबासों में ज़री रहती थी
एक आलम था मेरे क़दमों में
पास जादू की दरी रहती थी
२५.
बह रहा था एक दरिया ख़्वाब में
रह गया मैं फिर भी प्यासा ख़्वाब में
जी रहा हूँ और दुनिया में मगर
देखता हूँ और दुनिया ख़्वाब में
रोज़ आता है मेरा ग़म बाँटने
आसमाँ से इक सितारा ख़्वाब में
इस जमीं पर तो नज़र आता नहीं
बस गया है जो सरापा ख़्वाब में
मुद्दतों से दिल है उसका मुन्तजीर
कोई वादा कर गया था ख़्वाब में
एक बस्ती है जहाँ खुश हैं सभी
देख लेता हूँ मैं क्या-क्या ख़्वाब में
असल दुनिया में तमाशे कम हैं क्या
क्यों नजर आये तमाशा ख़्वाब में
खोल कर आँखें पशेमा हूँ बहुत
खो गया जो कुछ मिला था ख़्वाब में
२६.
बीच भँवर में पहले उतारा जाता है
फिर साहिल से हमें पुकारा जाता है
ख़ुश हैं यार हमारी सादालौही पर
हम ख़ुश हैं क्या इसमें हमारा जाता है
पहले भी वो चाँद हमारा साथी था
देखें! कितनी दूर सितारा जाता है
कब तक अपनी पलकें बंद रखोगे तुम
क्या आँखों से कोई नज़ारा जाता है
दुनिया की आदत है इसमें हैरत क्या
काँच के घर पर पत्थर मारा जाता है
कब आएगा तेरा सुनहरा कल आलम
इस चक्कर में आज हमारा जाता है
२७.
मिल के रहने की ज़रूरत ही भुला दी गई क्या
याँ मुहब्बत की रिवायत थी मिटा दी गई क्या
बेनिशाँ कब के हुए सारे पुराने नक़शे
और बेहतर कोई तस्वीर बना दी गई क्या
अब के दरिया में नज़र आती है सुर्ख़ी कैसी
बहते पानी में कोई चीज़ मिला दी गई क्या
एक बन्दे की हुकूमत है खुदाई सारी
सारी दुनिया में मुनादी ये करा दी गई क्या
मुँह उठाए चले आते हैं अन्धेरों के सफ़ीर
वो जो इक रस्म ए चिरागाँ थी उठा दी गई क्या
मैं अन्धेरों में भटकता हूँ तो हैरत कैसी
मेरे रस्ते में कोई शम्मा जला दी गई क्या
२८.
सियाहियों को निगलता हुआ नज़र आया
कोई चिराग तो जलता हुआ नज़र आया
दुखों ने राब्ते मज़बूत कर दिए अपने
तमाम शहर बदलता हुआ नज़र आया
ये प्यास मुझको जमीं पर गिराने वाली थी
कि एक चश्मा उबलता हुआ नज़र आया
वो मेरे साथ भला कितनी दूर जाएगा
जो हर कदम पे सँभलता हुआ नज़र आया
नई हवा से बचूँ कैसे मैं कि शहर मेरा
नए मिज़ाज में ढलता हुआ नज़र आया
तवकआत ही उठने लगीं ज़माने से
जो एक शख़्स बदलता हुआ नज़र आया
शिकस्त दे के मुझे खुश तो था बहुत 'आलम'
मगर वो हाथ भी मलता हुआ नज़र आया।
२९.
रंग-बिरंगे ख़्वाबों के असबाब कहाँ रखते हैं हम
अपनी आँखों में कोई महताब कहाँ रखते हैं हम
यह अपनी ज़रखेज़ी है जो खिल जाते हैं फूल नए
वरना अपनी मिटटी को शादाब कहाँ रखते हैं हम
हम जैसों कि नाकामी पर क्यों हैरत है दुनिया को
हर मौसम में जीने के आदाब कहाँ रखते हैं हम
महरूमी ने ख़्वाबों में भी हिज्र के काँटे बोए हैं
उस का पैकर मर्मर का किम्ख्वाब कहाँ रखते हैं हम
तेज़ हवा के साथ उड़े हैं जो अवराक़ सुनहरे थे
अब क़िस्से में दिलचस्पी का बाब कहाँ रखते हैं हम
सुब्ह सवेरे आँगन अपना गूँज उठे चहकारों से
तोता मैना बुलबुल या सुर्खाब कहाँ रखते हैं हम
३०.
रेंग रहे हैं साये अब वीराने में
धूप उतर आई कैसे तहख़ाने में
जाने कब तक गहराई में डूबूँगा
तैर रहा है अक्स कोई पैमाने में
उस मोती को दरिया में फेंक आया हूँ
मैं ने सब कुछ खोया जिसको पाने में
हम प्यासे हैं ख़ुद अपनी कोताही से
देर लगाई हम ने हाथ बढ़ाने में
क्या अपना हक़ है हमको मालूम नहीं
उम्र गुज़ारी हम ने फ़र्ज़ निभाने में
वो मुझ को आवारा कहकर हँसते हैं
मैं भटका हूँ जिनको राह पे लाने में
कब समझेगा मेरे दिल का चारागर
वक़्त लगेगा ज़ख्मों को भर जाने में
हँस कर कोई ज़ह्र नहीं पीता आलम
किस को अच्छा लगता है मर जाने में
धूप उतर आई कैसे तहख़ाने में
जाने कब तक गहराई में डूबूँगा
तैर रहा है अक्स कोई पैमाने में
उस मोती को दरिया में फेंक आया हूँ
मैं ने सब कुछ खोया जिसको पाने में
हम प्यासे हैं ख़ुद अपनी कोताही से
देर लगाई हम ने हाथ बढ़ाने में
क्या अपना हक़ है हमको मालूम नहीं
उम्र गुज़ारी हम ने फ़र्ज़ निभाने में
वो मुझ को आवारा कहकर हँसते हैं
मैं भटका हूँ जिनको राह पे लाने में
कब समझेगा मेरे दिल का चारागर
वक़्त लगेगा ज़ख्मों को भर जाने में
हँस कर कोई ज़ह्र नहीं पीता आलम
किस को अच्छा लगता है मर जाने में
३१.
हथेली की लकीरों में इशारा और है कोई
मगर मेरे तआकुब में सितारा और है कोई
किसी साहिल पे जाऊं एक ही आवाज़ आती है
तुझे रुकना जहाँ है वो किनारा और है कोई
न गुंबद इस ईमारत का न फाटक उस हवेली का
कबूतर ढूँढता है जो मिनारा और है कोई
तमाज़त है वही बाक़ी अगरचे अब्र भी बरसे
हमारी राख में शायद शरारा और है कोई
अभी तक तो वही शिद्दत हवाओं के जुनूँ में है
अभी तक झील में शायद शिकारा और है कोई
मैं बाहर के मनाज़िर से अलग हूँ इसलिए'आलम'
मेरे अंदर की दुनिया में नज़ारा और है कोई
मगर मेरे तआकुब में सितारा और है कोई
किसी साहिल पे जाऊं एक ही आवाज़ आती है
तुझे रुकना जहाँ है वो किनारा और है कोई
न गुंबद इस ईमारत का न फाटक उस हवेली का
कबूतर ढूँढता है जो मिनारा और है कोई
तमाज़त है वही बाक़ी अगरचे अब्र भी बरसे
हमारी राख में शायद शरारा और है कोई
अभी तक तो वही शिद्दत हवाओं के जुनूँ में है
अभी तक झील में शायद शिकारा और है कोई
मैं बाहर के मनाज़िर से अलग हूँ इसलिए'आलम'
मेरे अंदर की दुनिया में नज़ारा और है कोई
३२.
हम को गुमाँ था परियों जैसी शहजादी होगी
किस को ख़बर थी वह भी महलों की बांदी होगी
काश! मुअब्बिर बतला देता पहले ही ताबीर
खुशहाली के ख़्वाब में इतनी बर्बादी होगी
सच लिक्खा था एक मुबस्सिर ने बरसों पहले
सच्चाई बातिल के दर पर फर्यादी होगी
इस ने तो सरतान की सूरत जाल बिछाए हैं
खाम ख्याली थी ये नफ़रत मीयादी होगी
इक झोंके से हिल जाती है क्यों घर की बुनियाद
इस की जड़ में चूक यक़ीनन बुनियादी होगी
इतने सारे लोग कहाँ ग़ायब हो जाते हैं
धरती के नीचे भी शायद आबादी होगी
किस को ख़बर थी वह भी महलों की बांदी होगी
काश! मुअब्बिर बतला देता पहले ही ताबीर
खुशहाली के ख़्वाब में इतनी बर्बादी होगी
सच लिक्खा था एक मुबस्सिर ने बरसों पहले
सच्चाई बातिल के दर पर फर्यादी होगी
इस ने तो सरतान की सूरत जाल बिछाए हैं
खाम ख्याली थी ये नफ़रत मीयादी होगी
इक झोंके से हिल जाती है क्यों घर की बुनियाद
इस की जड़ में चूक यक़ीनन बुनियादी होगी
इतने सारे लोग कहाँ ग़ायब हो जाते हैं
धरती के नीचे भी शायद आबादी होगी
३३.
हमारे सर प ही वक़्त की तलवार गिरती है
कभी छत बैठ जाती है कभी दीवार गिरती है
पसन्द आई नहीं बिजली को भी तक़सीम आँगन की
कभी इस पार गिरती है कभी उस पार गिरती है
क़लम होने का ख़तरा है अगर मैं सर उठता हूँ
जो गर्दन को झुकाऊँ तो मेरी दस्तार गिरती है
मैं अपने दस्त ओ बाज़ू पर भरोसा क्यों नहीं करता
हमेशा नाख़ुदा के हाथ से पतवार गिरती है
शराफ़त को ठिकाना ही कहीं मिलता नहीं है क्या
मेरी दहलीज़ पर आकर वो क्यों हर बार गिरती है
वो अमृत के जो झरने थे हुए हैं खुश्क क्यों आलम
अब उस पर्वत की छोटी से लहू की धार गिरती है
कभी छत बैठ जाती है कभी दीवार गिरती है
पसन्द आई नहीं बिजली को भी तक़सीम आँगन की
कभी इस पार गिरती है कभी उस पार गिरती है
क़लम होने का ख़तरा है अगर मैं सर उठता हूँ
जो गर्दन को झुकाऊँ तो मेरी दस्तार गिरती है
मैं अपने दस्त ओ बाज़ू पर भरोसा क्यों नहीं करता
हमेशा नाख़ुदा के हाथ से पतवार गिरती है
शराफ़त को ठिकाना ही कहीं मिलता नहीं है क्या
मेरी दहलीज़ पर आकर वो क्यों हर बार गिरती है
वो अमृत के जो झरने थे हुए हैं खुश्क क्यों आलम
अब उस पर्वत की छोटी से लहू की धार गिरती है
३४.
हर इक दीवार में अब दर बनाना चाहता हूँ
खुदा जाने मैं कैसा घर बनाना चाहता हूँ
ज़मीं पर एक मिटटी का मकां बनता नहीं है
मगर हर दिल में अपना घर बनाना चाहता हूँ
नज़र के सामने जो है उसे सब देखते हैं
मैं पसमंज़र का हर मंज़र बनाना चाहता हूँ
धनक रंगों से भी बनती नहीं तस्वीर उसकी
मैं कैसे शख्स का पैकर बनाना चाहता हूँ
मेरे ख्वाबों में है दुनिया की जो तस्वीर 'आलम '
नहीं बनती मगर अक्सर बनाना चाहता हूँ
खुदा जाने मैं कैसा घर बनाना चाहता हूँ
ज़मीं पर एक मिटटी का मकां बनता नहीं है
मगर हर दिल में अपना घर बनाना चाहता हूँ
नज़र के सामने जो है उसे सब देखते हैं
मैं पसमंज़र का हर मंज़र बनाना चाहता हूँ
धनक रंगों से भी बनती नहीं तस्वीर उसकी
मैं कैसे शख्स का पैकर बनाना चाहता हूँ
मेरे ख्वाबों में है दुनिया की जो तस्वीर 'आलम '
नहीं बनती मगर अक्सर बनाना चाहता हूँ
३५.
हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हूँ मैंभीड़ बहुत है इस मेले में खो सकता हूँ मैं
पीछे छूटे साथी मुझको याद आ जाते हैं
वरना दौड़ में सबसे आगे हो सकता हूँ मैं
कब समझेंगे जिनकी ख़ातिर फूल बिछाता हूँ
इन रस्तों पर कांटे भी तो बो सकता हूँ मैं
इक छोटा-सा बच्चा मुझ में अब तक ज़िंदा है
छोटी छोटी बात पे अब भी रो सकता हूँ मैं
सन्नाटे में दहशत हर पल गूँजा करत्ती है
इस जंगल में चैन से कैसे सो सकता हूँ मैं
सोच-समझ कर चट्टानों से उलझा हूँ वरना
बहती गंगा में हाथों को धो सकता हूँ मैं
३६.
उठाए संग खड़े हैं सभी समर के लिए
दुआएँ खैर भी माँगे कोई शज़र के लिए
हमेशा घर का अंधेरा डराने लगता है
मैं जब चिराग जलाता हूँ रहगुज़र के लिए
ख़याल आता है मंज़िल के पास आते ही
कि कूच करना है इक दूसरे सफ़र के लिए
कतार बाँधे हुए, टकटकी लगाए हुए
खड़े हैं आज भी कुछ लोग इक नज़र के लिए
वहाँ भी अहले-हुनर सर झुकाए बैठे हैं
जहाँ पे कद्र नहीं इक ज़रा हुनर के लिए
तमाम रात कहाँ यों भी नींद आती है
मुझे तो सोना है इक ख़्वाबे-मुख्तसर के लिए
हम अपने आगे पशीमान तो नहीं 'आलम'
हमें कुबूल है रुसवाई उम्र भर के लिए।
३७.
जब खुली आँखें तो इन आँखों को रोना आ गया
मैंने समझा वाकई मौसम सलोना आ गया
डर रहा हूँ बेनियाज़ी अब कहाँ ले जाएगी
चलते-फिरते भी मेरी आँखों को सोना आ गया
एक चुल्लू आब लेकर फिर रहा है इस तरह
जैसे गागर में उसे सागर समोना आ गया
देखकर अंजाम फूलों का मैं घबराया बहुत
खुशगुमानी थी कि धागों में पिरोना आ गया
क्यों शिकायत है भला दरिया की वुसअत से हमें
चंद कतरों ही से जब लब को भिगोना आ गया
तख़्त पर बैठा हुआ यों खेलता हूँ ताज से
जैसे इक बच्चे के हाथों में खिलौना आ गया
कोई भी 'आलम' लबे दरिया अभी पहुँचा नहीं
नाखुदाओं को मगर कश्ती डुबोना आ गया।
३८.
मानूस कुछ ज़रूर है इस जलतरंग में
एक लहर झूमती है मेरे अंग-अंग में
खामोश बह रहा था ये दरिया अभी-अभी
देखा मुझे तो आ गई मौजे तरंग में
वुसअत में आसमान भी लगता था कम मुझे
पर ज़िंदगी गुज़र गई इक शहरे-तंग में
किरदार क्या है मेरा- यही सोचता हूँ मैं
मर्ज़ी नहीं है, फिर भी मैं शामिल हूँ जंग में
शीशा मिज़ाज हूँ मैं, मगर ये भी खूब है
अपना सुराग ढूँढ़ता रहता हूँ संग में
इक-दूसरे से टूट के मिलते तो हैं मगर
मसरूफ़ सारे लोग हैं इक सर्द जंग में
क्या फ़र्क है ये अहले-नज़र ही बताएँगे
कुछ फ़र्क तो ज़रूर है फूलों के रंग में।
३९.
याद करते हो मुझे क्या दिन निकल जाने के बाद
इक सितारे ने ये पूछा रात ढल जाने के बाद
मैं ज़मीं पर हूँ तो फिर क्यों देखता हूँ आसमान
यह ख़याल आया मुझे अक्सर फिसल जाने के बाद
एक ही मंज़िल पे जाते हैं यहाँ रस्ते तमाम
भेद यह मुझ पर खुला रस्ता बदल जाने के बाद
दोस्तों के साथ चलने में भी हैं खतरे हज़ार
भूल जाता हूँ हमेशा मैं सँभल जाने के बाद
फासला भी कुछ ज़रूरी है चिरागां करते वक्त
तजुर्बा यह हाथ आया हाथ जल जाने के बाद
वहशते-दिल को बियाबाँ से है इक निस्बत अजीब
कोई घर लौटा नहीं घर से निकल जाने के बाद
आग ही ने हम पे नाज़िल कर दिया कैसा अजाब
कोई भी हैरां नहीं मंज़र बदल जाने के बाद
अब हवा ने हुक्म जारी कर दिया बादल के नाम
खूब बरसेगी घटाएँ शहर जल जाने के बाद
तोड़ दो 'आलम' कमाँ या तुम कलम कर लो ये हाथ
लौटकर आते नहीं हैं तीर चल जाने के बाद।
४०.
सुलगती रेत पे रौशन सराब रख देना
उदास आँखों में खुशरंग ख़्वाब रख देना
सदा से प्यास ही इस ज़िन्दगी का हासिल है
मेरे हिसाब में ये बेहिसाब रख देना
वफ़ा, ख़ुलूस, मुहब्बत, सराब ख़्वाबों के
हमारे नाम ये सारे अज़ाब रख देना
सुना है चाँद की धरती पे कुछ नहीं उगता
वहाँ भी गोमती, झेलम, चिनाब रख देना
क़दम क़दम पे घने कैक्टस उग आए हैं
मेरी निगाह में अक्से-गुलाब रख देना
मैं खो न जाऊँ कहीं तीरगी के जंगल में
किसी शज़र के तले आफ़ताब रख देना
४१.
अपने पिछले हमसफ़र कि कोई तो पहचान रख
कुछ नहीं तो मेज़ पर काँटों भरा गुलदान रख
तपते रेगिस्तान का लम्बा सफ़र कट जाएगा
अपनी आँखों में मगर छोटा-सा नाख्लिस्तान रख
दोस्ती, नेकी, शराफत, आदमियत और वफ़ा
अपनी छोटी नाव में इतना भी मत सामान रख
सरकशी पे आ गई हैं मेरी लहरें ए खुदा!
मैं समुन्दर हूँ मेरे सीने में भी चट्टान रख
घर के बाहर की फिजा का कुछ तो अंदाज़ा लगे
खोल कर सारे दरीचे और रौशनदान रख
नंगे पाँव घास पर चलने में भी इक लुत्फ़ है
ओस के कतरों से आलम खुद को मत अंजन रख
४२.
जब भी फसलों को पानी की ख्वाहिश हुई
मेरे खेतों में शोलों की बारिश हुई
मेरा घर टुकड़ों, टुकड़ों, में बँटने को है
मेरे आँगन में कैसी ये साजिश हुई
मकड़ियों ने वहाँ जाल फैला दिए
जिस जगह भी हमारी रिहाइश हुई
चीखता हूँ मगर कोई सुनता नहीं
मेरी आवाज़ पर कैसी बंदिश हुई
जिस्म पर रेंगती छिपकिली देखकर
मेरे बेजान हाथों में जुंबिश हुई
लोग आए थे हाथों में पत्थर लिए
कल मेरे शहर में इक नुमाइश हुई
४३.
फूल की डाली है या शमसीर है
दुआएँ खैर भी माँगे कोई शज़र के लिए
हमेशा घर का अंधेरा डराने लगता है
मैं जब चिराग जलाता हूँ रहगुज़र के लिए
ख़याल आता है मंज़िल के पास आते ही
कि कूच करना है इक दूसरे सफ़र के लिए
कतार बाँधे हुए, टकटकी लगाए हुए
खड़े हैं आज भी कुछ लोग इक नज़र के लिए
वहाँ भी अहले-हुनर सर झुकाए बैठे हैं
जहाँ पे कद्र नहीं इक ज़रा हुनर के लिए
तमाम रात कहाँ यों भी नींद आती है
मुझे तो सोना है इक ख़्वाबे-मुख्तसर के लिए
हम अपने आगे पशीमान तो नहीं 'आलम'
हमें कुबूल है रुसवाई उम्र भर के लिए।
३७.
जब खुली आँखें तो इन आँखों को रोना आ गया
मैंने समझा वाकई मौसम सलोना आ गया
डर रहा हूँ बेनियाज़ी अब कहाँ ले जाएगी
चलते-फिरते भी मेरी आँखों को सोना आ गया
एक चुल्लू आब लेकर फिर रहा है इस तरह
जैसे गागर में उसे सागर समोना आ गया
देखकर अंजाम फूलों का मैं घबराया बहुत
खुशगुमानी थी कि धागों में पिरोना आ गया
क्यों शिकायत है भला दरिया की वुसअत से हमें
चंद कतरों ही से जब लब को भिगोना आ गया
तख़्त पर बैठा हुआ यों खेलता हूँ ताज से
जैसे इक बच्चे के हाथों में खिलौना आ गया
कोई भी 'आलम' लबे दरिया अभी पहुँचा नहीं
नाखुदाओं को मगर कश्ती डुबोना आ गया।
३८.
मानूस कुछ ज़रूर है इस जलतरंग में
एक लहर झूमती है मेरे अंग-अंग में
खामोश बह रहा था ये दरिया अभी-अभी
देखा मुझे तो आ गई मौजे तरंग में
वुसअत में आसमान भी लगता था कम मुझे
पर ज़िंदगी गुज़र गई इक शहरे-तंग में
किरदार क्या है मेरा- यही सोचता हूँ मैं
मर्ज़ी नहीं है, फिर भी मैं शामिल हूँ जंग में
शीशा मिज़ाज हूँ मैं, मगर ये भी खूब है
अपना सुराग ढूँढ़ता रहता हूँ संग में
इक-दूसरे से टूट के मिलते तो हैं मगर
मसरूफ़ सारे लोग हैं इक सर्द जंग में
क्या फ़र्क है ये अहले-नज़र ही बताएँगे
कुछ फ़र्क तो ज़रूर है फूलों के रंग में।
३९.
याद करते हो मुझे क्या दिन निकल जाने के बाद
इक सितारे ने ये पूछा रात ढल जाने के बाद
मैं ज़मीं पर हूँ तो फिर क्यों देखता हूँ आसमान
यह ख़याल आया मुझे अक्सर फिसल जाने के बाद
एक ही मंज़िल पे जाते हैं यहाँ रस्ते तमाम
भेद यह मुझ पर खुला रस्ता बदल जाने के बाद
दोस्तों के साथ चलने में भी हैं खतरे हज़ार
भूल जाता हूँ हमेशा मैं सँभल जाने के बाद
फासला भी कुछ ज़रूरी है चिरागां करते वक्त
तजुर्बा यह हाथ आया हाथ जल जाने के बाद
वहशते-दिल को बियाबाँ से है इक निस्बत अजीब
कोई घर लौटा नहीं घर से निकल जाने के बाद
आग ही ने हम पे नाज़िल कर दिया कैसा अजाब
कोई भी हैरां नहीं मंज़र बदल जाने के बाद
अब हवा ने हुक्म जारी कर दिया बादल के नाम
खूब बरसेगी घटाएँ शहर जल जाने के बाद
तोड़ दो 'आलम' कमाँ या तुम कलम कर लो ये हाथ
लौटकर आते नहीं हैं तीर चल जाने के बाद।
४०.
सुलगती रेत पे रौशन सराब रख देना
उदास आँखों में खुशरंग ख़्वाब रख देना
सदा से प्यास ही इस ज़िन्दगी का हासिल है
मेरे हिसाब में ये बेहिसाब रख देना
वफ़ा, ख़ुलूस, मुहब्बत, सराब ख़्वाबों के
हमारे नाम ये सारे अज़ाब रख देना
सुना है चाँद की धरती पे कुछ नहीं उगता
वहाँ भी गोमती, झेलम, चिनाब रख देना
क़दम क़दम पे घने कैक्टस उग आए हैं
मेरी निगाह में अक्से-गुलाब रख देना
मैं खो न जाऊँ कहीं तीरगी के जंगल में
किसी शज़र के तले आफ़ताब रख देना
४१.
अपने पिछले हमसफ़र कि कोई तो पहचान रख
कुछ नहीं तो मेज़ पर काँटों भरा गुलदान रख
तपते रेगिस्तान का लम्बा सफ़र कट जाएगा
अपनी आँखों में मगर छोटा-सा नाख्लिस्तान रख
दोस्ती, नेकी, शराफत, आदमियत और वफ़ा
अपनी छोटी नाव में इतना भी मत सामान रख
सरकशी पे आ गई हैं मेरी लहरें ए खुदा!
मैं समुन्दर हूँ मेरे सीने में भी चट्टान रख
घर के बाहर की फिजा का कुछ तो अंदाज़ा लगे
खोल कर सारे दरीचे और रौशनदान रख
नंगे पाँव घास पर चलने में भी इक लुत्फ़ है
ओस के कतरों से आलम खुद को मत अंजन रख
४२.
जब भी फसलों को पानी की ख्वाहिश हुई
मेरे खेतों में शोलों की बारिश हुई
मेरा घर टुकड़ों, टुकड़ों, में बँटने को है
मेरे आँगन में कैसी ये साजिश हुई
मकड़ियों ने वहाँ जाल फैला दिए
जिस जगह भी हमारी रिहाइश हुई
चीखता हूँ मगर कोई सुनता नहीं
मेरी आवाज़ पर कैसी बंदिश हुई
जिस्म पर रेंगती छिपकिली देखकर
मेरे बेजान हाथों में जुंबिश हुई
लोग आए थे हाथों में पत्थर लिए
कल मेरे शहर में इक नुमाइश हुई
४३.
फूल की डाली है या शमसीर है
ऐ मुसव्विर ! खूब ये तस्वीर है
सोचता रहता हूँ उसको देखकर
ख्वाब है या ख्वाब की ताबीर है
चुप हूँ मैं और बोलती जाती है वो
सामने मेरे अजब तस्वीर है
दिल खिंचा जाता है खुद उसकी तरफ़
हाय! कितना खूबसूरत तीर है
भूल बैठा हूँ मैं अब तर्ज़े सुखन
उसके लफ़्ज़ों में अजब तासीर है
वो तो आलम खूबसूरत हार है
तुम समझते थे जिसे ज़ंजीर है