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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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सोमवार, 1 अप्रैल 2013

अख्तर लखनवी



१.

अब दर्द का सूरज कभी ढलता ही नहीं है।
ये दिल किसी पहलू भी संभलता ही नहीं है।
बे-चैन किए रहती है जिसकी तलबे-दीद
अब बाम पे वो चाँद निकलता ही नहीं है।
एक उम्र से दुनिया का है बस एक ही आलम
ये क्या कि फलक रंग बदलता ही नहीं है ।
नाकाम रहा उनकी निगाहों का फुसून भी
इस वक्त तो जादू कोई चलता ही नहीं है।
जज़बे की कड़ी धुप हो तो क्या नहीं मुमकिन
ये किसने कहा संग पिघलता ही नहीं है।