(19 जनवरी 1919-10 मई 2002)
1.
इक यही सोज़े-निहां कुल मेरा सरमाया है
दोस्तों मैं किसे ये सोजे-निहां नज़्र करूँ
कोई क़ातिल सरे-मक़तल नज़र आता ही नहीं
किसको दिल नज़्र करूँ और किसे जां नज़्र करूँ
तुम भी महबूब मेरे तुम भी हो दिलदार मेरे
आशना मुझसे मगर तुम भी नहीं, तुम भी नहीं
ख़त्म है तुम पे मसीहा नफसी चारागरी
महरमे-दर्दे-जिगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं
अपनी लाश आप उठाना कोई आसन नहीं
दस्तो-बाजू मेरे नाकारा हुए जाते हैं
जिन से हर दौर में चमकी है तुम्हारी देहलीज़
आज सज्दे वही आवारा हुए जाते हैं
दूर मंजिल थी मगर ऐसी भी कुछ दूर न थी
लेके फिरती रही रस्ते ही में वहशत मुझ को
एक ज़ख्म ऐसा न खाया कि बहार आ जाती
दार तक एके गया शौके-शहादत मुझ को
राह में टूट गया पाँव तो मालूम हुआ
जुज़ मेरे और मेरा राहनुमा कोई नहीं
एक के बाद खुदा एक चला आता था
कह दिया अक्ल ने तंग आके खुदा कोई नहीं
२.
इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े
हँसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े
जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े
एक तुम के तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़ है
एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े
मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े
साक़ी सभी को है ग़म-ए-तश्नालबी मगर
मय है उसी के नाम पे जिस के उबल पड़े
३.
मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमाँ भी मिल जाये
नये बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता
वो तेग़ मिल गई जिस से हुआ है क़त्ल मेरा
किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता
वो मेरा गाँव है वो मेरे गाँव के चूल्हे
कि जिन में शोले तो शोले धुआँ नहीं मिलता
जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूँ
यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलता
खड़ा हूँ कब से मैं चेहरों के एक जंगल में
तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहाँ नहीं मिलता
४.
ऐ सबा! लौट के किस शहर से तू आती है?तेरी हर लहर से बारूद की बू आती है!
खून कहाँ बहता है इन्सान का पानी की तरह
जिस से तू रोज़ यहाँ करके वजू आती है?
धाज्जियाँ तूने नकाबों की गिनी तो होंगी
यूँ ही लौट आती है या कर के रफ़ू आती है?
अपने सीने में चुरा लाई है किसे की आहें
मल के रुखसार पे किस किस का लहू आती है!
ये शहर तो है आप का,आवाज़ किस की थी
देखा जो मुड़ के हमने तो पत्थर के हो गए
जब सर ढका तो पाँव खुले फिर ये सर खुला
टुकड़े इसी में पुरखों की चादर के हो गए
दिल में कोई सनम ही बचा, न ख़ुदा रहा
इस शहर पे ज़ुल्म भी लश्कर के हो गए
हम पे बहुत हँसे थे फ़रिश्ते सो देख लें
हम भी क़रीब गुम्बदे-बेदर के हो गए
६.
हाथ आ कर गया, गया कोई
मेरा छप्पर उठा गया कोई
लग गया इक मशीन में मैं भी
शहर में ले के आ गया कोई
मैं खड़ा था कि पीठ पर मेरी
इश्तिहार इक लगा गया कोई
ऐसी मंहगाई है कि चेहरा भी
बेच के अपना खा गया कोई
अब कुछ अरमाँ हैं न कुछ सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई
यह सदी धूप को तरसती है
जैसे सूरज को खा गया कोई
वो गए जब से ऐसा लगता है
छोटा-मोटा ख़ुदा गया कोई
मेरा बचपन भी साथ ले आया
गाँव से जब भी आ गया कोई
७.
सुना करो मेरी जाँ इन से उन से अफ़साने
सब अजनबी हैं यहाँ कौन किस को पहचाने
यहाँ से जल्द गुज़र जाओ क़ाफ़िले वालों
हैं मेरी प्यास के फूँके हुए ये वीराने
मेरी जुनून-ए-परस्तिश से तंग आ गये लोग
सुना है बंद किये जा रहे हैं बुत-ख़ाने
जहाँ से पिछले पहर कोई तश्ना-काम उठा
वहीं पे तोड़े हैं यारों ने आज पैमाने
बहार आये तो मेरा सलाम कह देना
मुझे तो आज तलब कर लिया है सेहरा ने
सिवा है हुक़्म कि ‘कैफ़ी’ को संगसार करो
मसीहा बैठे हैं छुप के कहाँ ख़ुदा जाने
८.
क्या जाने किसी की प्यास बुझाने किधर गयीं
उस सर पे झूम के जो घटाएँ गुज़र गयीं
दीवाना पूछता है यह लहरों से बार बार
कुछ बस्तियाँ यहाँ थीं बताओ किधर गयीँ
अब जिस तरफ से चाहे गुजर जाए कारवां
वीरानियाँ तो सब मिरे दिल में उतर गयीं
पैमाना टूटने का कोई गम नहीं मुझे
गम है तो ये कि चाँदनी रातें बिखर गयीं
पाया भी उन को खो भी दिया चुप भी ये हो रहे
इक मुख्तसर सी रात में सदियाँ गुजर गयीं
९.
शोर यूँ ही न परिंदों ने मचाया होगा,कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा
पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था
जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा
बानी-ए-जश्ने-बहाराँ ने ये सोचा भी नहीं
किस ने काटों को लहू अपना पिलाया होगा
अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे
ये सराब उन को समंदर नज़र आया होगा
बिजली के तार पर बैठा हुआ तनहा पंछी
सोचता है कि वो जंगल तो पराया होगा
१०.
वो कभी धूप कभी छाँव लगे
मुझे क्या-क्या न मेरा गाँव लगे
किसी पीपल के तले जा बैठे
अब भी अपना जो कोई दाँव लगे
एक रोटी के त'अक्कुब में चला हूँ इतना
कि मेरा पाँव किसी और ही का पाँव लगे
रोटी-रोज़ी की तलब जिसको कुचल देती है
उसकी ललकार भी एक सहमी हुई म्याँव लगे
जैसे देहात में लू लगती है चरवाहों को
बम्बई में यूँ ही तारों की हँसी छाँव लगे
११.
वो भी सरहाने लगे अरबाबे-फ़न के बाद
दादे-सुख़न मिली मुझे तर्के-सुखन के बाद
दीवानावार चाँद से आगे निकल गए
ठहरा न दिल कहीं भी तेरी अंजुमन के बाद
एलाने-हक़ में ख़तरा-ए-दारो-रसन तो है
लेकिन सवाल ये है कि दारो-रसन के बाद
होंटों को सी के देखिए पछताइयेगा आप
हंगामे जाग उठते हैं अकसर घुटन के बाद
गुरबत की ठंडी छाँव में याद आई है उसकी धूप
क़द्रे-वतन हुई हमें तर्के-वतन के बाद
इंसाँ की ख़ाहिशों की कोई इंतेहा नहीं
दो गज़ ज़मीन चाहिए,दो गज़ कफ़न के बाद
1.
इक यही सोज़े-निहां कुल मेरा सरमाया है
दोस्तों मैं किसे ये सोजे-निहां नज़्र करूँ
कोई क़ातिल सरे-मक़तल नज़र आता ही नहीं
किसको दिल नज़्र करूँ और किसे जां नज़्र करूँ
तुम भी महबूब मेरे तुम भी हो दिलदार मेरे
आशना मुझसे मगर तुम भी नहीं, तुम भी नहीं
ख़त्म है तुम पे मसीहा नफसी चारागरी
महरमे-दर्दे-जिगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं
अपनी लाश आप उठाना कोई आसन नहीं
दस्तो-बाजू मेरे नाकारा हुए जाते हैं
जिन से हर दौर में चमकी है तुम्हारी देहलीज़
आज सज्दे वही आवारा हुए जाते हैं
दूर मंजिल थी मगर ऐसी भी कुछ दूर न थी
लेके फिरती रही रस्ते ही में वहशत मुझ को
एक ज़ख्म ऐसा न खाया कि बहार आ जाती
दार तक एके गया शौके-शहादत मुझ को
राह में टूट गया पाँव तो मालूम हुआ
जुज़ मेरे और मेरा राहनुमा कोई नहीं
एक के बाद खुदा एक चला आता था
कह दिया अक्ल ने तंग आके खुदा कोई नहीं
२.
इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े
हँसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े
जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े
एक तुम के तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़ है
एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े
मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े
साक़ी सभी को है ग़म-ए-तश्नालबी मगर
मय है उसी के नाम पे जिस के उबल पड़े
३.
मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमाँ भी मिल जाये
नये बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता
वो तेग़ मिल गई जिस से हुआ है क़त्ल मेरा
किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता
वो मेरा गाँव है वो मेरे गाँव के चूल्हे
कि जिन में शोले तो शोले धुआँ नहीं मिलता
जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूँ
यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलता
खड़ा हूँ कब से मैं चेहरों के एक जंगल में
तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहाँ नहीं मिलता
४.
ऐ सबा! लौट के किस शहर से तू आती है?तेरी हर लहर से बारूद की बू आती है!
खून कहाँ बहता है इन्सान का पानी की तरह
जिस से तू रोज़ यहाँ करके वजू आती है?
धाज्जियाँ तूने नकाबों की गिनी तो होंगी
यूँ ही लौट आती है या कर के रफ़ू आती है?
अपने सीने में चुरा लाई है किसे की आहें
मल के रुखसार पे किस किस का लहू आती है!
५.
दस्तूर क्या ये शहरे-सितमगर के हो गए
जो सर उठा के निकले थे बे सर के हो गए
जो सर उठा के निकले थे बे सर के हो गए
ये शहर तो है आप का,आवाज़ किस की थी
देखा जो मुड़ के हमने तो पत्थर के हो गए
जब सर ढका तो पाँव खुले फिर ये सर खुला
टुकड़े इसी में पुरखों की चादर के हो गए
दिल में कोई सनम ही बचा, न ख़ुदा रहा
इस शहर पे ज़ुल्म भी लश्कर के हो गए
हम पे बहुत हँसे थे फ़रिश्ते सो देख लें
हम भी क़रीब गुम्बदे-बेदर के हो गए
६.
हाथ आ कर गया, गया कोई
मेरा छप्पर उठा गया कोई
लग गया इक मशीन में मैं भी
शहर में ले के आ गया कोई
मैं खड़ा था कि पीठ पर मेरी
इश्तिहार इक लगा गया कोई
ऐसी मंहगाई है कि चेहरा भी
बेच के अपना खा गया कोई
अब कुछ अरमाँ हैं न कुछ सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई
यह सदी धूप को तरसती है
जैसे सूरज को खा गया कोई
वो गए जब से ऐसा लगता है
छोटा-मोटा ख़ुदा गया कोई
मेरा बचपन भी साथ ले आया
गाँव से जब भी आ गया कोई
७.
सुना करो मेरी जाँ इन से उन से अफ़साने
सब अजनबी हैं यहाँ कौन किस को पहचाने
यहाँ से जल्द गुज़र जाओ क़ाफ़िले वालों
हैं मेरी प्यास के फूँके हुए ये वीराने
मेरी जुनून-ए-परस्तिश से तंग आ गये लोग
सुना है बंद किये जा रहे हैं बुत-ख़ाने
जहाँ से पिछले पहर कोई तश्ना-काम उठा
वहीं पे तोड़े हैं यारों ने आज पैमाने
बहार आये तो मेरा सलाम कह देना
मुझे तो आज तलब कर लिया है सेहरा ने
सिवा है हुक़्म कि ‘कैफ़ी’ को संगसार करो
मसीहा बैठे हैं छुप के कहाँ ख़ुदा जाने
८.
क्या जाने किसी की प्यास बुझाने किधर गयीं
उस सर पे झूम के जो घटाएँ गुज़र गयीं
दीवाना पूछता है यह लहरों से बार बार
कुछ बस्तियाँ यहाँ थीं बताओ किधर गयीँ
अब जिस तरफ से चाहे गुजर जाए कारवां
वीरानियाँ तो सब मिरे दिल में उतर गयीं
पैमाना टूटने का कोई गम नहीं मुझे
गम है तो ये कि चाँदनी रातें बिखर गयीं
पाया भी उन को खो भी दिया चुप भी ये हो रहे
इक मुख्तसर सी रात में सदियाँ गुजर गयीं
९.
शोर यूँ ही न परिंदों ने मचाया होगा,कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा
पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था
जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा
बानी-ए-जश्ने-बहाराँ ने ये सोचा भी नहीं
किस ने काटों को लहू अपना पिलाया होगा
अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे
ये सराब उन को समंदर नज़र आया होगा
बिजली के तार पर बैठा हुआ तनहा पंछी
सोचता है कि वो जंगल तो पराया होगा
१०.
वो कभी धूप कभी छाँव लगे
मुझे क्या-क्या न मेरा गाँव लगे
किसी पीपल के तले जा बैठे
अब भी अपना जो कोई दाँव लगे
एक रोटी के त'अक्कुब में चला हूँ इतना
कि मेरा पाँव किसी और ही का पाँव लगे
रोटी-रोज़ी की तलब जिसको कुचल देती है
उसकी ललकार भी एक सहमी हुई म्याँव लगे
जैसे देहात में लू लगती है चरवाहों को
बम्बई में यूँ ही तारों की हँसी छाँव लगे
११.
वो भी सरहाने लगे अरबाबे-फ़न के बाद
दादे-सुख़न मिली मुझे तर्के-सुखन के बाद
दीवानावार चाँद से आगे निकल गए
ठहरा न दिल कहीं भी तेरी अंजुमन के बाद
एलाने-हक़ में ख़तरा-ए-दारो-रसन तो है
लेकिन सवाल ये है कि दारो-रसन के बाद
होंटों को सी के देखिए पछताइयेगा आप
हंगामे जाग उठते हैं अकसर घुटन के बाद
गुरबत की ठंडी छाँव में याद आई है उसकी धूप
क़द्रे-वतन हुई हमें तर्के-वतन के बाद
इंसाँ की ख़ाहिशों की कोई इंतेहा नहीं
दो गज़ ज़मीन चाहिए,दो गज़ कफ़न के बाद