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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

अजमल नियाज़ी



१.

हम अकेले ही सही शह्र में क्या रखते थे
दिल में झांको तो कई शह्र बसा रखते थे
अब किसे देखने बैठे हो लिए दर्द की ज़ौ
उठ गए लोग जो आंखों में हया रखते थे
इस तरह ताज़ा खुदाओं से पड़ा है पाला
ये भी अब याद नहीं है कि खुदा रखते थे
छीन कर किसने बिखेरा है शुआओं की तरह
रात का दर्द ज़माने से छुपा रखते थे
ले गयीं जाने कहाँ गर्म हवाएं उनको
फूल से लोग जो दामन में सबा रखते थे
ताज़ा ज़ख्मों से छलक उटठीं पुरानी टीसें
वरना हम दर्द का एहसास नया रखते थे.