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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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रविवार, 21 अप्रैल 2013

मोईन अहसन जज्बी


परिचय
मोईन अहसन जज्बी (1921-2005) उर्दू के एक श्रेष्ठ लोकप्रिय कवि थे.अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में लंबे समय तक अध्यापन से जुड़े रहे. रीडर पद से सेवामुक्त हुए.उनकी  लोकप्रिय ग़ज़लें प्रस्तुत की जा रही हैं...
१.
हम दह्र के इस वीराने में, जो कुछ भी नज़ारा करते हैं
अश्कों की ज़बां में कहते हैं, आहों में इशारा करते हैं

क्या तुझको पता, क्या तुझको ख़बर, दिन-रात ख़यालों में अपने
ऐ काकुले-गेती हम तुझको , जिस तरह संवारा करते हैं

ऐ मौजे-बला उनको भी ज़रा, दो-चार थपेडे हलके से
कुछ लोग अभी तक साहिल से, तूफाँ का नज़ारा करते हैं

क्या जानिए कब ये पाप कटे, क्या जानिए कब वो दिन आए
जिस दिन के लिए हम ऐ जज्बी, क्या कुछ न गवारा करते हैं

२.

मरने की दुआएं क्यों मांगूं, जीने की तमन्ना कौन करे
ये दुनिया हो या वो दुनिया, अब ख्वाहिशे-दुनिया कौन करे

जब कश्ती साबितो-सालिम थी, साहिल की तमन्ना किसको थी
अब ऐसी शिकस्ता कश्ती पर, साहिल की तमन्ना कौन करे

जो आग लगाई थी तुमने, उसको तो बुझाया अश्कों ने
जो अश्कों ने भड़काई है, उस आग को ठंडा कौन करे

दुनिया ने हमें छोड़ा जज्बी, हम छोड़ न दें क्यों दुनिया को
दुनिया को समझ कर बैठे हैं, अब दुनिया दुनिया कौन करे

३.

ऐश से क्यों खुश हुए, क्यों ग़म से घबराया किए
ज़िंदगी क्या जाने क्या थी, और क्या समझा किए

नालए बेताब लब तक आते-आते, रह गया
जाने क्या शर्मीली नज़रों से वो फरमाया किए

इश्क की मासूमियों का ये भी एक अंदाज़ था
हम निगाहे-लुत्फे-जानाँ से भी शरमाया किए

नाखुदा बेखुद, फिजा खामोश, साकित मौजे-आब
और हम साहिल से थोडी दूर पर डूबा किए

मुख्तसर ये है हमारी दास्ताने-ज़िंदगी
इक सुकूने-दिल की खातिर उम्र भर तड़पा किए

काट दी यूं हमने जज्बी राहे-मंज़िल काट दी
गिर पड़े हर गाम पर हर गाम पर संभला किए

४.

ज़िंदगी अब ज़िंदगी की दास्तानों में नहीं
बिजलियों का सोज़ शायद आशियानों में नहीं

जिस को कहते हैं मुहब्बत जिसको कहते हैं खुलूस
झोंपडों में हो तो हो पुख्ता मकानों में नहीं

खूँ-चकां आंखों पे धोका है खुमारे-इश्क का
हैफ ऐ साकी के तू भी राज़दानों में नहीं

ठह्र तो मुतरिब ! वो आई इक सदाए-दर्दनाक
आह मुतरिब, कुछ मज़ा अब तेरी तानों में नहीं

ज़िंदगी गो लाख बन जाए तबस्सुम-आफ्रीं
ज़िंदगी लेकिन तबस्सुम के फ़सानों में नहीं

यूं भी सुनता हूँ तराने ग़म के बज्मे-अश्क में
जैसे कोई बात ही ग़म के तरानों में नहीं

अब कहाँ मैं ढूँढने जाऊं सुकूँ को ऐ खुदा
इन ज़मीनों में नहीं इन आसमानों में नहीं

वो गुलामी का लहू जो था रगे-अस्लाफ़ में
शुक्र है जज्बी के अब हम नौजवानों में नहीं