१.
दश्ते-वफ़ा में प्यास का आलम अजीब था.
देखा तो एक दर्द का दरया करीब था.
गुज़रे जिधर-जिधर से तमन्ना के क़ाफ़ले,
हर-हर क़दम पे एक निशाने-सलीब था.
कुछ ऐसी मेहरबाँ तो न थी हम पे ज़िन्दगी,
क्यों हर कोई जहाँ में हमारा रक़ीब था.
क्या-क्या लहू से अपने किया हमने सुर्खरू,
इस दौर के नगर को जो दिल के करीब था.
अपना पता तो उसने दिया था हमें करम,
वो हमसे खो गया ये हमारा नसीब था.