जन्मतिथि 24 दिसंबर,मृत्यु 11 जुलाई 2001
1.
मंज़र समेट लाये हैं जो तेरे गाँव के
नींदे चुरा रहे हैं वो झोंके हवाओं के
तेरी गली से चाँद ज़ियादा हसीं नहीं
कहते सुने गए हैं मुसाफ़िर ख़लाओं के
पल भर को तेरी याद में धड़का था दिल मेरा
अब दूर तक भंवर से पड़े हैं सदाओं के
ज़ादे-सफर मिली है किसे राहे-शौक़ में
हमने मिटा दिए हैं निशाँ अपने पाँव के
जब तक न कोई आस थी ये प्यास भी न थी
बेचैन कर गये हमें साए घटाओं के
हमने लिया है जब भी किसी राह्ज़न का नाम
चेहरे उतर गये हैं कई रहनुमाओं के
उगलेगा आफताब कुछ ऐसी बला की धुप
रह जायेंगे ज़मीन पे कुछ दाग छाँव के
जिंदा थे जिन की सर्द हवाओं से हम 'क़तील'
अब ज़ेरे-आब हैं वो जज़ीरे वफ़ाओं के
2.
राब्ता लाख सही काफिला-सालार के साथ
हम को चलना है मगर वक्त की रफ़्तार के साथ
ग़म लगे रहते हैं हर आन खुशी के पीछे
दुश्मनी धूप की है सायए-दीवार के साथ
किस तरह अपनी मुहब्बत की मैं तक्मील करूँ
गमे-हस्ती भी तो शामिल है गमे-यार के साथ
लफ्ज़ चुनता हूँ तो मफ़हूम बदल जाता है
इक-न-इक खौफ भी है जुरअते -इजहार के साथ
दुश्मनी मुझ से किए जा मगर अपना बनकर
जान ले ले मेरी सैयाद मगर प्यार के साथ
दो घड़ी आओ मिल आयें किसी गालिब से 'क़तील'
हजरते-'जौक' तो वाबस्ता हैं दरबार के साथ
3.
रंग जुदा, आहंग जुदा, महकार जुदा
पहले से अब लगता है गुलज़ार जुदा
नग्मों की तख्लीक का मौसम बीत गया
टूटा साज़ तो हो गया तार से तार जुदा
बेज़ारी से अपना-अपना जाम लिये
बैठा है महफ़िल में हर मैख्वार जुदा
मिला था पहले दरवाज़े से दरवाज़ा
लेकिन अब दीवार से है दीवार जुदा
यारो मैं तो निकला हूँ जाँ बेचने को
तुम अब सोचो कोई कारोबार जुदा
सोचता है इक शायर भी, इक ताजिर भी
लेकिन सबकी सोच का है मेआर जुदा
क्या लेना इस गिरगिट जैसी दुनिया से
आए रंग नज़र जिसका हर बार जुदा
किस ने दिया है सदा किसी का साथ 'क़तील'
हो जाना है सबको आखिरकार जुदा
४.
दूर तक छाये थे बादल, पर कहीं साया न था.
इस तरह बरसात का मौसम कभी आया न था.
क्या मिला आख़िर तुझे सायों के पीछे भाग कर,
ऐ दिले-नादाँ, तुझे क्या हमने समझाया न था.
उफ़ ये सन्नाटा की आहट तक न हो जिसमें मुखिल,
ज़िन्दगी में इस कदर जमने सुकूँ पाया न था.
खूब रोये छुपके घर की चारदीवारी में हम,
हाले-दिल कहने के क़ाबिल कोई हमसाया न था.
हो गए कल्लाश जबसे आस की दौलत लुटी,
पास अपने और तो कोई भी सरमाया न था.
सिर्फ़ खुशबू की कमी थी गौर के क़ाबिल 'क़तील',
वरना गुलशन में कोई भी फूल मुरझाया न था.
५.
६.
८.
९.
1.
मंज़र समेट लाये हैं जो तेरे गाँव के
नींदे चुरा रहे हैं वो झोंके हवाओं के
तेरी गली से चाँद ज़ियादा हसीं नहीं
कहते सुने गए हैं मुसाफ़िर ख़लाओं के
पल भर को तेरी याद में धड़का था दिल मेरा
अब दूर तक भंवर से पड़े हैं सदाओं के
ज़ादे-सफर मिली है किसे राहे-शौक़ में
हमने मिटा दिए हैं निशाँ अपने पाँव के
जब तक न कोई आस थी ये प्यास भी न थी
बेचैन कर गये हमें साए घटाओं के
हमने लिया है जब भी किसी राह्ज़न का नाम
चेहरे उतर गये हैं कई रहनुमाओं के
उगलेगा आफताब कुछ ऐसी बला की धुप
रह जायेंगे ज़मीन पे कुछ दाग छाँव के
जिंदा थे जिन की सर्द हवाओं से हम 'क़तील'
अब ज़ेरे-आब हैं वो जज़ीरे वफ़ाओं के
2.
राब्ता लाख सही काफिला-सालार के साथ
हम को चलना है मगर वक्त की रफ़्तार के साथ
ग़म लगे रहते हैं हर आन खुशी के पीछे
दुश्मनी धूप की है सायए-दीवार के साथ
किस तरह अपनी मुहब्बत की मैं तक्मील करूँ
गमे-हस्ती भी तो शामिल है गमे-यार के साथ
लफ्ज़ चुनता हूँ तो मफ़हूम बदल जाता है
इक-न-इक खौफ भी है जुरअते -इजहार के साथ
दुश्मनी मुझ से किए जा मगर अपना बनकर
जान ले ले मेरी सैयाद मगर प्यार के साथ
दो घड़ी आओ मिल आयें किसी गालिब से 'क़तील'
हजरते-'जौक' तो वाबस्ता हैं दरबार के साथ
3.
रंग जुदा, आहंग जुदा, महकार जुदा
पहले से अब लगता है गुलज़ार जुदा
नग्मों की तख्लीक का मौसम बीत गया
टूटा साज़ तो हो गया तार से तार जुदा
बेज़ारी से अपना-अपना जाम लिये
बैठा है महफ़िल में हर मैख्वार जुदा
मिला था पहले दरवाज़े से दरवाज़ा
लेकिन अब दीवार से है दीवार जुदा
यारो मैं तो निकला हूँ जाँ बेचने को
तुम अब सोचो कोई कारोबार जुदा
सोचता है इक शायर भी, इक ताजिर भी
लेकिन सबकी सोच का है मेआर जुदा
क्या लेना इस गिरगिट जैसी दुनिया से
आए रंग नज़र जिसका हर बार जुदा
किस ने दिया है सदा किसी का साथ 'क़तील'
हो जाना है सबको आखिरकार जुदा
४.
दूर तक छाये थे बादल, पर कहीं साया न था.
इस तरह बरसात का मौसम कभी आया न था.
क्या मिला आख़िर तुझे सायों के पीछे भाग कर,
ऐ दिले-नादाँ, तुझे क्या हमने समझाया न था.
उफ़ ये सन्नाटा की आहट तक न हो जिसमें मुखिल,
ज़िन्दगी में इस कदर जमने सुकूँ पाया न था.
खूब रोये छुपके घर की चारदीवारी में हम,
हाले-दिल कहने के क़ाबिल कोई हमसाया न था.
हो गए कल्लाश जबसे आस की दौलत लुटी,
पास अपने और तो कोई भी सरमाया न था.
सिर्फ़ खुशबू की कमी थी गौर के क़ाबिल 'क़तील',
वरना गुलशन में कोई भी फूल मुरझाया न था.
५.
तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं
किस को ख़बर थी सँवले बादल बिन बरसे उड़ जाते हैं
सावन आया लेकिन अपनी क़िस्मत में बरसात नहीं
माना जीवन में औरत एक बार मोहब्बत करती है
लेकिन मुझको ये तो बता दे क्या तू औरत ज़ात नहीं
ख़त्म हुआ मेरा अफ़साना अब ये आँसू पोँछ भी लो
जिस में कोई तारा चमके आज की रात वो रात नहीं
मेरे ग़म-गीं होने पर अहबाब हैं यों हैरान "क़तील"
जैसे मैं पत्थर हूँ मेरे सीने में जज़्बात नहीं
६.
किया है प्यार जिसे हमने ज़िन्दगी की तरह
वो आशना भी मिला हमसे अजनबी की तरह
बड़ा के प्यास मेरी उस ने हाथ छोड़ दिया
वो कर रहा था मुरव्वत भी दिल्लगी की तरह
किसे ख़बर थी बड़ेगी कुछ और तारीकी
छुपेगा वो किसी बदली में चाँदनी की तरह
कभी न सोचा था हमने "क़तील"उस के लिये
करेगा हम पे सितम वो भी हर किसी की तरह
७.
तूने ये फूल जो ज़ुल्फ़ों में लगा रखा है
इक दिया है जो अँधेरों में जला रखा है
जीत ले जाये कोई मुझको नसीबों वाला
ज़िन्दगी ने मुझे दा ओ पे लगा रखा है
जाने कब आये कोई दिल में झाँकने वाला
इस लिये मैं ने ग़िरेबाँ को खुला रखा है
इम्तेहाँ और मेरी ज़ब्त का तुम क्या लोगे
मैं ने धड़कन को भी सीने में छुपा रखा है
८.
जो भी गुंचा तेरे होठों पर खिला करता है
वो मेरी तंगी-ए-दामाँ का गिला करता है
देर से आज मेरा सर है तेरे ज़ानों पर
ये वो रुत्बा है जो शाहों को मिला करता है
मैं तो बैठा हूँ दबाये हुये तूफ़ानों को
तू मेरे दिल के धड़कने का गिला करता है
रात यों चाँद को देखा है नदी में रक्साँ
जैसे झूमर तेरे माथे पे हिला करता है
कौन काफ़िर तुझे इल्ज़ाम-ए-तग़ाफ़ुल देगा
जो भी करता है मुहब्बत का गिला करता है
९.
तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते
जो वाबस्ता हुए तुम से वो अफ़साने कहाँ जाते
निकल कर दैर-ओ-काबा से अगर मिलता न मैख़ाना
तो ठुकराये हुए इंसाँ ख़ुदा जाने कहाँ जाते
तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादाख़ाने की
तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते
चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी
वगर्ना हम ज़माने भर को समझाने कहाँ जाते
"क़तील" अपना मुक़द्दर ग़म से बेगाना अगर होता
फिर तो अपने-पराये हमसे पहचाने कहाँ जाते
१०.
वफ़ा के शीश महल में सजा लिया मैंने
वो एक दिल जिसे पत्थर बना लिया मैंने
ये सोच कर कि न हो ताक में ख़ुशी कोई
ग़मों कि ओट में ख़ुद को छुपा लिया मैंने
कभी न ख़त्म किया मैं ने रोशनी का मुहाज़
अगर चिराग़ बुझा, दिल जला लिया मैंने
कमाल ये है कि जो दुश्मन पे चलाना था
वो तीर अपने कलेजे पे खा लिया मैं ने
"क़तील" जिसकी अदावत में एक प्यार भी था
उस आदमी को गले से लगा लिया मैं ने
११.
हर बेज़बाँ को शोलानवा कह लिया करो
यारो सुकूत ही को सदा कह लिया करो
ख़ुद को फ़रेब दो कि न हो तल्ख़ ज़िन्दगी
हर संगदिल को जाने-ए-वफ़ा कह लिया करो
गर चाहते हो ख़ुश रहें कुछ बन्दगान-ए-ख़ास
जितने सनम हैं उन को ख़ुदा कह लिया करो
इन्सान का अगर क़द-ओ-क़ामत न बढ़ सके
तुम इस को नुक़्स-ए-आब-ओ-हवा कह लिया करो
अपने लिये अब एक ही राह-ए-निजात है
हर ज़ुल्म को रज़ा-ए-ख़ुदा कह लिया करो
ले दे के अब यही है निशान-ए-ज़िया "क़तील"
जब दिल जले तो उस को दिया कह लिया करो
१२.
शाम के साँवले चेहरे को निखारा जाये
क्यों न सागर से कोई चाँद उभारा जाये
रास आया नहीं तस्कीं का साहिल कोई
फिर मुझे प्यास के दरिया में उतारा जाये
मेहरबाँ तेरी नज़र, तेरी अदायें क़ातिल
तुझको किस नाम से ऐ दोस्त पुकारा जये
मुझको डर है तेरे वादे पे भरोसा करके
मुफ़्त में ये दिल-ए-ख़ुशफ़हम न मारा जाये
जिसके दम से तेरे दिन-रात दरख़्शाँ थे "क़तील"
कैसे अब उस के बिना वक़्त गुज़ारा जाये
१३.
वो दिल ही क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे
मैं तुझ को भूल के ज़िंदा रहूँ ख़ुदा न करे
रहेगा साथ तेरा प्यार ज़िन्दगी बनकर
ये और बात मेरी ज़िन्दगी वफ़ा न करे
ये ठीक है नहीं मरता कोई जुदाई में
ख़ुदा किसी से किसी को मगर जुदा न करे
सुना है उसको मोहब्बत दूआयेँ देती है
जो दिल पे चोट तो खाये मगर गिला न करे
ज़माना देख चुका है परख चुका है उसे
"क़तील" जान से जाये पर इल्तजा न करे
१४.
गुज़रे दिनों की याद बरसती घटा लगे
गुज़रूँ जो उस गली से तो ठंडी हवा लगे
मेहमान बनके आये किसी रोज़ अगर वो शख़्स
उस रोज़ बिन सजाये मेरा घर सजा लगे
मैं इस लिये मनाता नहीं वस्ल की ख़ुशी
मेरे रक़ीब की न मुझे बददुआ लगे
वो क़हत दोस्ती का पड़ा है कि इन दिनों
जो मुस्कुरा के बात करे आश्ना लगे
तर्क-ए-वफ़ा के बाद ये उस की अदा "क़तील"
मुझको सताये कोई तो उस को बुरा लगे
१५.
यारो किसी क़ातिल से कभी प्यार न माँगो
अपने ही गले के लिये तलवार न माँगो
गिर जाओगे तुम अपने मसीहा की नज़र से
मर कर भी इलाज-ए-दिल-ए-बीमार न माँगो
खुल जायेगा इस तरह निगाहों का भरम बी
काँटों से कभी फूल की महकार न माँगो
सच बात पे मिलता है सदा ज़हर का प्याला
जीना है तो फिर जीने के इज़हार न माँगो
उस चीज़ का क्या ज़िक्र जो मुम्किन ही नहीं है
सेहरा में कभी साया-ए-दीवार ना माँगो