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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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शनिवार, 20 अप्रैल 2013

हफ़ीज़ जालंधरी

पंजाब के जालंधर शहर में १४ जनवरी १९०० को पैदा हुए . इनके वालिद शमसुद्दीन साहब को कुरआन जुबानी याद थी और वो फौज़ के लिए वर्दियां बनाने का धंधा करते थे . जो 'हफ़ीज़' कभी हिंदुस्तान के इस कोने से उस कोने तक अपनी तरन्नुम भरी शायरी के लिए मशहूर थे, जिन्हें शायरी की बदौलत बरतानवी हुकूमत ने खानबहादुर का ख़िताब दिया था.निधन: 21 दिसंबर 1983

१.
कोई दवा न दे सके, मश्वरा दुआ दिया
चारागरों ने और भी दिल का दर्द बढ़ा दिया

ज़ौक़-ए-निगाह के सिवा शौक़-ए-गुनाह के सिवा
मुझको ख़ुदा से क्या मिला मुझको बुतों ने क्या दिया

थी न ख़िज़ाँ की रोक-थाम दामन-ए-इख़्तियार में
हमने भरी बहार में अपनाअ चमन लुटा दिया

हुस्न-ए-नज़र की आबरू सनअत-ए-बराहेमन से है
जिसको सनम समझ लियाउसको ख़ुदा बना दिया

दाग़ है मुझपे इश्क़ का मेरा गुनाह भी तो देख
उसकी निगाह भी तो देख जिसने ये गुल खिला दिया


२.
हम ही में थी न कोई बात, याद न तुम को आ सके
तुमने हमें भुला दिया, हम न तुम्हें भुला सके

तुम ही न सुन सके अगर, क़िस्सा-ए-ग़म सुनेगा कौन
किस की ज़ुबाँ खुलेगी फिर, हम न अगर सुना सके

होश में आ चुके थे हम जोश में आ चुके थे हम
बज़्म का रंग देख कर सर न मगर उठा सके

शौक़-ए-विसाल है यहाँ, लब पे सवाल है यहाँ
किस की मजाल है यहाँ, हम से नज़र मिला सके

रौनक़-ए-बज़्म बन गए लब पे हिकायतें रहीं
दिल में शिकायतेन रहीं लब न मगर हिला सके

ऐसा भी कोई नामाबर बात पे कान धर सके
सुन कर यकीन कर सके जा के उंहें सुना सके

अहल-ए-ज़बाँ तो हैं बहुत कोई नहीं है अहल-ए-दिल
कौन तेरी तरह "हफ़ीज़" दर्द के गीत गा सके


३.
कोई चारा नहीं दुआ के सिवा
कोई सुनता नहीं ख़ुदा के सिवा

मुझसे क्या हो सका वफ़ा के सिवा
मुझको मिलता भी क्या सज़ा के सिवा

दिल सभी कुछ ज़बान पर लाया
इक फ़क़त अर्ज़-ए-मुद्द'अ के सिवा

बरसर-ए-साहिल-ए-मुक़ाम यहाँ
कौन उभरा है नाख़ुदा के सिवा

दिल सभी कुछ ज़ुबाँ पर लाया
इक फ़क़त अर्ज़-ए-मुद्दा के सिवा

दोस्तों के ये मुखली साना तीर
कुछ नहीं मेरी ही ख़ता के सिवा

ये "हफ़ीज़" आह आह पर आख़िर
क्य कहें दोस्त वाह वाह के सिवा


४.
ख़ून बन कर मुनासिब नहीं दिल बहे
दिल नहीं मानता कौन दिल से कहे

तेरी दुनिया में आये बहुत दिन रहे
सुख ये पाया कि हमने बहुत दुख सहे

बुलबुलें गुल के आँसू नहीं चाटतीं
उनको अपने ही मर्ग़ूब हैं चहचहे

आलम-ए-नज़'अ में सुन रहा हूँ मैं क्या
ये अज़ीज़ों की चीख़ें है या क़हक़हे

इस नये हुस्न की भी अदायों पे हम
मर मिटेंगे बशर्ते कि ज़िंदा रहे


५.
ऐ दोस्त मिट गया हूँ फ़ना हो गया हूँ मैं
इस दौर-ए-दोस्ती की दवा हो गया हूँ मैं

क़ायम किया है मैने अदम के वजूद को
दुनिया समझ रही है फ़ना हो गया हूँ मैं

हिम्मत बुलंद थी मगर उफ़्ताद देखना
चुपचाप आज महव-ए-दुआ हो गया हूँ मैं

ये ज़िन्दगी फ़रेब-ए-मुसलसल न हो कहीं
शायद असीर-ए-दाम-ए-बला हो गया हूँ मैं

हाँ कैफ़-ए-बेख़ुदी की वो साअत भी याद है
महसूस कर रहा था ख़ुदा हो गया हूँ मैं


६.
क्यों हिज्र के शिकवे करता है क्यों दर्द के रोने रोता है
अब इश्क़ किया है तो सब्र भी कर इस में तो यही कुछ होता है

आग़ाज़-ए-मुसीबत होता है अपने ही दिल की शरारत से
आँखों में फूल खिलाता है तलवों में काँटें बोता है

अहबाब का शिकवा क्या कीजिये ख़ुद ज़ाहिर व बातिन एक नहीं
लब ऊपर ऊपर हँसते हैं दिल अन्दर अन्दर रोता है

मल्लाहों को इल्ज़ाम ना दो तुम साहिल वाले क्या जानों
ये तूफ़ान कौन उठाता है ये किश्ती कौन डुबोता है

क्या जाने क्या ये खोयेगा क्या जाने क्या ये पायेगा
मन्दिर का पुजारी जागता है मस्जिद का नमाज़ी सोता है


७.
तू भी किसी का प्यार न पाये ख़ुदा करे
तुझको तेरा नसीब रुलाये ख़ुदा करे

रातों में तुझको नींद न आये ख़ुदा करे
तू दर-ब-दर की ठोकरें खाये ख़ुदा करे

आये बहार तेरे गुलिस्ताँ में बार बार
तुझ पर कभी निखार न आये ख़ुदा करे

मेरी तरह तुझे भी जवानी में ग़म मिले
तेरा न कोई साथ निभाये ख़ुदा करे

मंज़िल कभी भी प्यार की तुझ को न मिल सके
तू भी दुआ को हाथ उठाये ख़ुदा करे

तुझ पर शब-ए-विसाल की रातें हराम हों
शम्में जला जला के बुझाये ख़ुदा करे

हो जायें बद-दुआयें मेरी दोस्तो ग़लत
अब उन पे कोई हर्फ़ न आये ख़ुदा करे


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