" हिन्दी काव्य संकलन में आपका स्वागत है "


"इसे समृद्ध करने में अपना सहयोग दें"

सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
हिन्दी काव्य संकलन में उपल्ब्ध सभी रचनायें उन सभी रचनाकारों/ कवियों के नाम से ही प्रकाशित की गयी है। मेरा यह प्रयास सभी रचनाकारों को अधिक प्रसिद्धि प्रदान करना है न की अपनी। इन महान साहित्यकारों की कृतियाँ अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाना ही इस ब्लॉग का मुख्य उद्देश्य है। यदि किसी रचनाकार अथवा वैध स्वामित्व वाले व्यक्ति को "हिन्दी काव्य संकलन" के किसी रचना से कोई आपत्ति हो या कोई सलाह हो तो वह हमें मेल कर सकते हैं। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जायेगी। यदि आप अपने किसी भी रचना को इस पृष्ठ पर प्रकाशित कराना चाहते हों तो आपका स्वागत है। आप अपनी रचनाओं को मेरे दिए हुए पते पर अपने संक्षिप्त परिचय के साथ भेज सकते है या लिंक्स दे सकते हैं। इस ब्लॉग के निरंतर समृद्ध करने और त्रुटिरहित बनाने में सहयोग की अपेक्षा है। आशा है मेरा यह प्रयास पाठकों के लिए लाभकारी होगा.(rajendra651@gmail.com)

फ़ॉलोअर

सोमवार, 1 अप्रैल 2013

दुर्गा सहाय सुरूर जहानाबदी



१.

किधर गया आह मेरा बचपन, निजात थी जब गमे-जहाँ से.
न दिल था हसरत-कशे-तमन्ना, न थी ज़बां आशना फुगाँ से
कहाँ गई वो बहारे-तिफली, किधर गए वो निशात के दिन
गुलाब का सा ये मेरा चेहरा, न ज़र्द था जब गमे-खिजां से
मैं खुश था दिल में की गा रही है मेरी मुहब्बत का ये तराना
खुला न था राज़ इश्के-गुल का, जो मुझ को बुलबुल की दास्ताँ से
बहोत दिनों हमसफीर तेरा रहा हूँ बचपन की सुह्बतों में
हज़ार नगमे सुना किया हूँ मैं ऐ पपीहे तेरी ज़बां से
कभी शिगूफों को चुनता था मैं, कभी था कलियों को प्यार करता
निसार मैं भी था आह बुलबुल अदाए-गुल पर हज़ार जां से
कभी तमन्ना के चाँद को मैं, घर अपने लाऊं बना के मेहमां
कभी ये हसरत के तोड़ लाऊं मैं जा के तारे को आसमां से.
कभी जो आईने में यकायक नज़र पड़ी मुझ को अपनी सूरत
रहा हूँ पहरों मैं महवे-हसरत, की प्यारी शक्ल आई ये कहाँ से
लबों पे बचपन की क्या न आएगी अब वो मासूम मुस्कराहट
अधूरे अल्फाज़ ऐ जवानी वो क्या न निकलेंगे अब ज़बां से
नसीम देने को मुझ को लोरी, न शाम-फुरक़त में आएगी क्या
जिगर के टुकड़े उडेंगे कबतक, हवा में आहे-शरर-फिशां से
न थी गिरांबारिए-मशागिल न थी ये पाबंदिये-अलायक
असीरे-जंजीरे-गम न था मैं, निजात थी शोरिशे जहाँ से
मेरा घरौंदा था मेरा आँगन, उसी में मेहमां था मेरा बचपन
तुझे बुलाया था किसने जालिम शबाब तू आ गया कहाँ से.
हज़ार झगडे हैं ज़िन्दगी के हज़ार दुनिया के हैं बखेडे
सुरूर सदमे उठें तो क्योंकर उठें ये इक मुश्ते-नातवाँ से।