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सन्देश

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और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

सफ़दर हाशमी



१.

रस्सी पर लटके कपडों को सुखा रही थी धूप
चाची पीछे आँगन में जा फटक रही थी सूप
गैया पीपल की छैयां में चबा रही थी घास
झबरू कुत्ता प्यार से लेटा हुआ था उसके पास

राज मिस्त्री जी हौदी पर पोत रहे थे गारा
उसके बाद उन्हें करना था छज्जा ठीक हमारा
अम्मा दीदी को संग लेकर गई थीं राशन लाने
आते में खुत्रू मोची से जूते थे सिलवाने
तभी अचानक आसमान पर काले बादल आए
भीगी हवा के झोंके अपने पीछे-पीछे लाये
सबसे पहले शुरू हुई कुछ टप-टप बूंदाबांदी
फिर आई घनघोर गरजती बारिश के संग आंधी

मंगलू धोबी बाहर लपका चाची भागी अन्दर
गैया उठकर खड़ी हो गई, झबरा भागा भीतर
राज मिस्त्री ने गारे पर ढक दी फ़ौरन टाट
और हौदी पर औंधी कर दी टूटी-फूटी खाट
हो गए चौडम-चौडा सारे धूप में सूखे कपड़े
इधर उधर उड़ते फिरते थे मंगलू कैसे पकड़े
चाची ने खिड़की दरवाज़े बंद कर दिए सारे
पलंग के नीचे जा लेटी, बिजली के डर के मारे
झबरू ऊंचे सुर में भौंका, गाय लगी रंभाने
हौदी बेचारी कीचड़ में हो गई दाने-दाने
अम्मा दीदी आयीं दौडी सिर पर रक्खे झोले
जल्दी-जल्दी राशन के फिर सभी लिफाफे खोले

सबने बारिश को कोसा और आँख भी खूब दिखायी
पर हम नाचे बारिश में और मौज भी खूब मनाई
मैदानों में भागे-दौडे, मारीं बहुत छलांगें
तब ही वापस घर लौटे जब थक गयीं दोनों टांगें