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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

अहमद हमदानी


१.

न आरजू न तमन्ना, कहाँ चले आये
थकन से चूर ये तनहा कहाँ चले आये

रुकी-रुकी सी हवाए घुटा-घुटा माहौल
ये रात-रात अँधेरा कहाँ चले आये

घरोंदा एक बनाया था हमने ख्वाबो का
गिरा के खुद वो घरोंदा कहाँ चले आये

यहाँ तो दिल को भी दुख न आ सके शायद
यहाँ का दर्द भी झूठा, कहाँ चले आये

ये एक चिराग सा जलता है आज भी दिल में
अरे हवा का ये झोंका, कहाँ चले आये
२.

अब ये होगा शायद अपनी आग में ख़ुद जल जायेंगे
तुम से दूर बहुत रहकर भी क्या खोया क्या पायेंगे

दुख भी सच्चे सुख भी सच्चे फिर भी तेरी चाहत में
हमने कितने धोके खाये कितने धोके खायेंगे

अक़्ल पे हम को नाज़ बहुत था लेकिन कब ये सोचा था
इश्क के हाथों ये भी होगा लोग हमें समझायेंगे

कल के दुख भी कौनसे बाक़ी आज के दुख भी कै दिन के
जैसे दिन पहले काटे थे ये दिन भी कट जायेंगे

हम से आबला-पा जब तन्हा घबरायेंगे सहरा में
रास्ते सब तेरे ही घर की जानिब को मुड़ जायेंगे

आंख़ों से औझल होना क्या दिल से औझल होना है
मुझसे छूट कर भी अहले ग़म क्या तुझसे छुट जायेंगे