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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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सोमवार, 8 अप्रैल 2013

शकील बदायूनी

(03 अगस्त 1916 - 20 अप्रैल 1970)
१.
गमे-आशिकी से कह दो, रहे-आम तक न पहोंचे
मुझे खौफ है ये तुहमत, मेरे नाम तक न पहोंचे.

मैं नज़र से पी रहा था, तो ये दिल ने बद-दुआ दी
तेरा हाथ जिंदगी भर, कभी जाम तक न पहोंचे.

नई सुब्ह पर नज़र है, मगर आह ये भी डर है,
ये सहर भी रफ़ता-रफ़ता, कहीं शाम तक न पहोंचे.

वो नवाए-मुज़महिल क्या, न हो जिसमें दिल की धड़कन
वो सदाए-अहले-दिल क्या, जो अवाम तक न पहोंचे.

उन्हें अपने दिल की खबरें, मेरे दिल से मिल रही हैं,
मैं जो उनसे रूठ जाऊं, तो पयाम तक न पहोंचे

ये अदाए-बेनियाज़ी, तुझे बे-वफ़ा मुबारक
मगर ऐसी बे-रुखी क्या, कि सलाम तक न पहोंचे.

जो नक़ाबे-रुख हटा दी, तो ये क़ैद भी आगा दी,
उठे हर निगाह लेकिन, कोई बाम तक न पहोंचे.

वही इक ख़मोश नगमा, है शकील जाने-हस्ती,
जो जुबान तक न आए, जो कलाम तक न पहोंचे.

२.
मेरी जिंदगी पे न मुस्कुरा, मुझे जिंदगी का अलम नहीं.
जिसे तेरे गम से हो वास्ता, वो खिज़ाँ बहार से कम नहीं

मुझे रास आयें खुदा करे, यही इश्तिबाह की सा'अतें
उन्हें एतबार-वफ़ा तो है, मुझे एतबार-सितम नहीं.

वही कारवां वही रास्ते, वही जिंदगी वही मरहले,
मगर अपने अपने मुकाम पर, कभी तुम नहीं कभी हम नहीं.

न वो शाने-जब्रे-शबाब है, न वो रंगे क़ह्रो-इताब है,
दिले-बेकरार पे इन दिनों, है सितम यही कि सितम नहीं.

न फ़ना मेरे न बका मेरी, मुझे ऐ शकील न ढूँडिए,
मैं किसी का हुस्नो-ख़याल हूँ, मेरा कुछ वुजूदो-अदम नहीं.

३.
 शायद आगाज़ हुआ फिर किसी अफ़साने का.
हुक्म आदम को है जन्नत से निकल जाने का.

उनसे कुछ कह तो रहा हूँ मगर अल्लाह न करे
वो भी मफहूम न समझें मेरे अफ़साने का.

देखना देखना ये हज़रते-वाइज़ ही न हों,
रास्ता पूछ रहा है कोई मयखाने का.

बे त'अल्लुक़ तेरे आगे से गुज़र जाता हूँ,
ये भी इक हुस्ने-तलब है तेरे दीवाने का.

हश्र तक गर्मिए-हंगामए-हस्ती है शकील
सिलसिला ख़त्म न होगा मेरे अफ़साने का.

४.

कोई आरज़ू नहीं है कोई मु़द्आ नहीं है
तेरा ग़म रहे सलामत मेरे दिल में क्या नहीं है

कहां जाम-ए-ग़म की तल्ख़ी कहां ज़िन्दगी का रोना
मुझे वो दवा मिली है जो निरी दवा नहीं है

तू बचाए लाख दामन मेरा फिर भी है ये दावा
तेरे दिल में मैं ही मैं हूँ कोई दूसरा नहीं है

तुम्हें कह दिया सितमगर ये कुसूर था ज़बां का
मुझे तुम मुआफ़ कर दो मेरा दिल बुरा नहीं है

मुझे दोस्त कहने वाले ज़रा दोस्ती निभा ले
ये मताल्बा है हक़ का कोई इल्तिज़ा नहीं है

ये उदास-उदास चेहरे ये हसीं-हसीं तबस्सुम
तेरी अंजुमन में शायद कोई आईना नहीं है

मेरी आँख ने तुझे भी बाख़ुदा ‘शकील‘ पाया
मैं समझ रहा था मुझसा कोई दूसरा नहीं है

५.

कैसे कह दूँ कि मुलाकात नहीं होती है
रोज़ मिलते हैं मगर बात नहीं होती है

आप लिल्लाह न देखा करें आईना कभी
दिल का आ जाना बड़ी बात नहीं होती है

छुप के रोता हूँ तेरी याद में दुनिया भर से
कब मेरी आँख से बरसात नहीं होती है
हाल-ए-दिल पूछने वाले तेरी दुनिया में कभी 
दिन तो होता है मगर रात नहीं होती है

जब भी मिलते हैं तो कहते हैं कैसे हो ‘शकील’
इस से आगे तो कोई बात नहीं होती है

६.
आंखों से दूर सुब्ह के तारे चले गए
नींद आ गई तो ग़म के नज़ारे चले गए

दिल था किसी की याद में मसरूफ़ और हम
शीशे में ज़िन्दगी को उतारे चले गए

अल्लाह रे बेखुदी कि हम उनके रू-ब-रू
बे-अख़्तियार उनको पुकारे चले गए

मुश्किल था कुछ तो इश्क़ की बाज़ी का जीतना
कुछ जीतने के ख़ौफ़ से हारे चले गए

नाकामी-ए-हयात का करते भी क्या गिला
दो दिन गुज़ारना थे,गुज़ारे चले गए
जल्वे कहां जो ज़ौके़-तमाशा नहीं
‘शकील’ नज़रें चली गईं तो नज़ारे चले गए

७.

ऐ! मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया

यूँ तो हर शाम उम्मीदों में गुज़र जाती थी
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया

कभी तक़्दीर का मातम कभी दुनिया का गिला
मंज़िल-ए-इश्क़ में हर गाम पे रोना आया

जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का 'शकील'
मुझ को अपने दिल-ए-नाकाम पे रोना आया

८.

उन से उम्मीद-ए-रूनुमाई है
क्या निगाहों की मौत आई है

दिल ने ग़म से शिकस्त खाई है
उम्र-ए-रफ़्ता तेरी दुहाई है

दिल की बर्बादियों पे नाज़ाँ हूँ
फ़तह पाकर शिकस्त खाई है

मेरे माअबद् नहीं है दैर-ओ-हरम
एहतियातन जबीं झुकाई है

वो हवा दे रहे हैं दामन की
हाय! किस वक़्त नींद आई है
खुल गया उन की आरज़ू में ये राज़
ज़ीस्त अपनी नहीं पराई है

दूर हो ग़ुन्चे मेरी नज़र से
तू ने मेरी हँसी चुराई है

गुल फ़सुर्दा चमन उदास 'शकील'
यूँ भी अक्सर बहार आई है

९.

आँख से आँख मिलाता है कोई
दिल को खीँचे लिए जाता है कोई

वा-ए-हैरत कि भरी महफ़िल में
मुझ को तन्हा नज़र आता है कोई
चाहिए ख़ुद पे यक़ीन-ए-कामिल 
हौसला किस का बढ़ाता है कोई

सब करिश्मात-ए-तसव्वुर है ‘शकील’
वरना आता है न जाता है कोई

१०.
जीने वाले क़ज़ा से डरते हैं 
ज़हर पीकर दवा से डरते हैं

ज़ाहिदों को किसी का ख़ौफ़ नहीं
सिर्फ़ काली घटा से डरते हैं
आह जो कुछ कहे हमें मंज़ूर 
नेक बंदे ख़ुदा से डरते हैं

दुश्मनों के सितम का ख़ौफ़ नहीं
दोस्तों की वफ़ा से डरते हैं
अज़्म-ओ-हिम्मत के बावजूद ‘शकील’
इश्क़ की इब्तदा से डरते हैं
११.

मेरे हम-नफ़स,मेरे हम-नवा, मुझे दोस्त बनके दग़ा न दे
मैं हूँ दर्द-ए-इश्क़ से जाँवलब, मुझे ज़िन्दगी की दुआ न दे

मेरे दाग़-ए-दिल से है रोशनी, उसी रोशनी से है ज़िन्दगी
मुझे डर है ऐ मेरे चारागर, ये चराग़ तू ही बुझा न दे

मुझे छोड़ दे मेरे हाल पर, तेरा क्या भरोसा है चारागर
ये तेरी नवाज़िश-ए-मुख़्तसर, मेरा दर्द और बढ़ा न दे
मेरा अज़्म इतना बलंद है कि पराये शोलों का डर नहीं
मुझे ख़ौफ़ आतिश-ए-गुल से है, ये कहीं चमन को जला न दे
वो उठे हैं लेके होम-ओ-सुबू, अरे ओ 'शकील' कहाँ है तू 
तेरा जाम लेने को बज़्म में कोई और हाथ बढ़ा न दे