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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

वज़ीर आगा


जन्मः18 मई, 1922, सरगोधा, पाकिस्तान
मृत्युः जन्मः07 सितम्बर, 2010, लाहोर पाकिस्तान







1.
सितम हवा का अगर तेरे तन को रास नहीं
कहाँ से लाऊं वो झोंका जो मेरे पास नहीं


पिघल चुका हूँ तमाज़त में आफताब की मैं
मेरा वुजूद भी अब मेरे आस-पास नहीं


मेरे नसीब में कब थी बरहनगी अपनी
मिली वो मुझको तमन्ना कि बे-लिबास नहीं


किधर से उतरे कहाँ आके तुझ से मिल जाए
अभी नदी के चलन से तू रू-शनास नहीं


खुला पड़ा है समंदर किताब की सूरत
वही पढ़े इसे आकर जो ना-शनास नहीं


लहू के साथ गई तन-बदन की सब चहकार
चुभन सबा में नहीं है कली में बॉस नहीं


२.


दिन ढल चुका था और परिंदा सफ़र में था।

सारा लहू बदन का रवां मुश्ते-पर में था।

हद्दे-उफ़क़ पे शाम थी खैमे में मुंतज़िर,
आंसू का इक पहाड़ सा हाइल नज़र में था।

जाते कहाँ कि रात की बाहें थीं मुश्तइल,
छुपते कहाँ कि सारा जहाँ अपने घर में था।

लो वो भी नर्म रेत के टीले में ढल गया,
कल तक जो एक कोहे-गरां रहगुज़र में था।

पागल सी इक सदा किसी उजड़े मकां में थी,
खिड़की में इक चराग भरी दोपहर में था।

उसका बदन था खून की हिद्दत से शोलावश,

सूरज का इक गुलाब सा तश्ते-सहर में था।

3.
बारिश हुई तो धुल के सबुकसार हो गये
आंधी चली तो रेत की दीवार हो गये

रहवारे-शब के साथ चले तो पियादा-पा
वो लोग ख़ुद भी सूरते-रहवार हो गये

सोचा ये था कि हम भी बनाएंगे उसका नक़्श
देखा उसे तो नक़्श-ब-दीवार हो गये

क़दमों के सैले-तुन्द से अब रास्ता बनाओ
नक्शों के सब रिवाज तो बेकार हो गये

लाज़िम नहीं कि तुमसे ही पहुंचे हमें गज़न्द
ख़ुद हम भी अपने दर-पये-आज़ार हो गये

फूटी सहर तो छींटे उड़े दूर-दूर तक
चेहरे तमाम शहर के गुलनार हो गये