अखलाक मुहम्मद खान ‘शहरयार’-जन्म: 16 जून 1936. निधन: 13 फ़रवरी 2012. उपनाम, शहरयार. जन्म स्थान, आँवला, बरेली, उत्तरप्रदेश, भारत. कुछ प्रमुख कृतियाँ, ख़्वाब का दर बंद है (1987), शाम होने वाली है (2005),
१.
जिंदगी जैसी तमन्ना थी, नहीं, कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है
बिछड़े लोगों से मुलकात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है, यकीं कुछ कम है
अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है
आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात है पहली सी नहीं, कुछ कम है
२.
अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो
मैं अपने साए से कल रात डर गया यारो
हर एक नक़्श तमन्ना का हो गया धुंधला
हर एक ज़ख्म मेरे दिल का भर गया यारो
भटक रही थी जो कश्ती वो गर्के-आब हुई
चढ़ा हुआ था जो दरया उतर गया यारो
वो कौन था, वो कहाँ का था, क्या हुआ था उसे
सुना है आज कोई शख्स मर गया यारो
३.
हम पढ़ रहे थे ख्वाब के पुर्जों को जोड़ के
आंधी ने ये तिलिस्म भी रख डाला तोड़ के
इक बूँद ज़हर के लिए फैला रहे हो हाथ
देखो कभी ख़ुद अपने बदन को निचोड़ के
कुछ भी नहीं जो ख्वाब की सूरत दिखायी दे
कोई नहीं जो हम को जगाये झिंझोड़ के
इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक़्त अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के
४.
जुस्तुजू जिसकी थी उसको तो न पाया हम ने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने
तुझ को रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमां न हुए
इश्क़ की रस्म को इस तर्ह निभाया हम ने
कब मिली थी कहाँ बिछड़ी थी हमें याद नहीं
जिंदगी तुझ को तो बस ख्वाब में देखा हम ने
ऐ अदा और सुनाये भी तो क्या हाल अपना
उम्र का लंबा सफर तय किया तनहा हम ने
५ .
किया इरादा बारहा तुझे भुलाने का
मिला न उज़्र ही कोई मगर ठिकाने का
ये कैसी अजनबी दस्तक थी कैसी आहट थी
तेरे सिवा था किसे हक़ मुझे जगाने का
ये आँख है कि नहीं देखा कुछ सिवा तेरे
ये दिल अजब है कि ग़म है इसे ज़माने का
वो देख लो वो समन्दर ख़ुश्क होने लगा
जिसे था दावा मेरी प्यास को बुझाने का
ज़मीं पे किस लिये ज़न्जीर हो गये साये
मुझे पता है मगर मैं नहीं बताने का
६ .
सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है
दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यूँ है
तन्हाई की ये कौन सी मन्ज़िल है रफ़ीक़ो
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है
हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की
वो ज़ूद-ए-पशेमान पशेमान सा क्यूँ है
क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है
७.
इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं
इन आँखों से वाबस्ता अफ़साने हज़ारों हैं
इक तुम ही नहीं तन्हा उलफ़त में मेरी रुसवा
इस शहर में तुम जैसे दीवाने हज़ारों हैं
इक सिर्फ़ हम ही मय को आँखों से पिलाते हैं
कहने को तो दुनिया में मैख़ाने हज़ारों हैं
८.
तेरी जुदाई में क्या-क्या दिखाई देता है
कहीं पे तू कहीं तुझ-सा दिखाई देता है
ज़माना हो गया ऐसे किसी सफ़र में हूँ
कि अब न मोड़ न रस्ता दिखाई देता है
उलझ रही है बहुत मुझसे मेरे पाँव की गर्द
क़दम-क़दम पे तमाशा दिखाई देता है
अजीब वक़्त सुनो आ पड़ा है सूरज पर
तुलू होता न ढलता दिखाई देता है
ये मेरी आँखें नहीं दूसरों की आँखें हैं
अंधेरा है प’ उजाला दिखाई देता है
०९.
ख़ून में लत-पत हो गये साये भी अश्जार के
कितने गहरे वार थे ख़ुश्बू की तल्वार के
इक लम्बी चुप के सिवा बस्ती में क्या रह गया
कब से हम पर बन्द हैं दरवाज़े इज़हार के
आओ उट्ठो कुछ करें सहरा की जानिब चलें
बैठे बैठे थक गये साये में दिलदार के
रास्ते सूने हो गये दीवाने घर को गये
ज़ालिम लम्बी रात की तारीकी से हार के
बिल्कुल बन्जर हो गई धरती दिल के दश्त की
रुख़सत कब के हो गये मौसम सारे प्यार के
१०.
किस-किस तरह से मुझको न रुसवा किया गया
ग़ैरों का नाम मेरे लहू से लिखा गया
निकला था मैं सदा-ए-जरस की तलाश में
भूले से इस सुकूत के सेहरा में आ गया
क्यों आज उस का ज़िक्र मुझे ख़ुश न कर सका
क्यों आज उस का नाम मेरा दिल दुखा गया
इस हादसे को सुन के करेगा यक़ीं कोई
सूरज को एक झोंका हवा का बुझा गया
११.
ऐसे हिज्र के मौसम अब कब आते हैं
तेरे अलावा याद हमें सब आते हैं
जज़्ब करे क्यों रेत हमारे अश्कों को
तेरा दामन तर करने अब आते हैं
अब वो सफ़र की ताब नहीं बाक़ी वरना
हम को बुलावे दश्त से जब तब आते हैं
जागती आँखों से भी देखो दुनिया को
ख़्वाबों का क्या है वो हर शब आते हैं
काग़ज़ की कश्ती में दरिया पार किया
देखो हम को क्या क्या करतब आते हैं
१२.
अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो
मैं अपने साये से कल रात डर गया यारो
हर एक नक़्श तमन्ना का हो गया धुंधला
हर एक ज़ख़्म मेरे दिल का भर गया यारो
भटक रही थी जो कश्ती वो ग़र्क़-ए-आब हुई
चढ़ा हुआ था जो दरिया उतर गया यारो
वो कौन था वो कहाँ का था क्या हुआ था उसे
सुना है आज कोई शख़्स मर गया यारो
१३.
हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के
आँधी ने ये तिलिस्म भी रख डला तोड़ के
आग़ाज़ क्यों किया था सफ़र उन ख़्वाबों का
पछता रहे हो सब्ज़ ज़मीनों को छोड़ के
इक बूँद ज़हर के लिये फैला रहे हो हाथ
देखो कभी ख़ुद अपने बदन को निचोड़ के
कुछ भी नहीं जो ख़्वाब की तरह दिखाई दे
कोई नहीं जो हम को जगाये झिन्झोड़ के
इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक़्त अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के
१४.
हद-ए-निगाह तक ये ज़मीं है सियाह फिर
निकली है जुगनुओं की भटकती सिपाह फिर
होंठों पे आ रहा है कोई नाम बार बार
सन्नाटों की तिलिस्म को तोड़ेगी आह फिर
पिछले सफ़र की गर्द को दामन से झाड़ दो
आवाज़ दे रही है कोई सूनी राह फिर
बेरन्ग आस्माँ को देखेगी कब तलक
मन्ज़र नया तलाश करेगी निगाह फिर
ढीली हुई गिरफ़्त जुनूँ की के जल उठा
ताक़-ए-हवस में कोई चराग़-ए-गुनाह फिर
१५ .
इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम
नदी को सौंप दिया प्यास ने सराब का काम
हम एक चेहरे को हर ज़ाविए से देख सकें
किसी तरह से मुकम्मल हो नक्शे-आब का काम
हमारी आँखे कि पहले तो खूब जागती हैं
फिर उसके बाद वो करतीं है सिर्फ़ ख़्वाब का काम
वो रात-कश्ती किनारे लगी कि डूब गई
सितारे निकले तो थे करने माहताब का काम
फ़रेब ख़ुद को दिए जा रहे हैं और ख़ुश हैं
उसे ख़बर है कि दुश्वार है हिजाब का काम
१६.
सूरज का सफ़र ख़त्म हुआ रात न आयी
हिस्से में मेरे ख़्वाबों की सौग़ात न आयी
मौसम ही पे हम करते रहे तब्सरा ता देर
दिल जिस से दुखे ऐसी कोई बात न आयी
यूं डोरे को हम वक्त की पकड़े तो हुए थे
एक बार मगर छूटी तो फिर हाथ न आयी
हमराह कोई और न आया तो क्या गिला
परछाई भी जब मेरी मेरे साथ न आयी
हर सिम्त नज़र आती हैं बेफ़स्ल ज़मीनें
इस साल भी शहर में बरसात न आयी
१७.
महफिल में बहुत लोग थे मै तन्हा गया था
हाँ, तुझ को वहाँ देख कर कुछ डर सा लगा था
ये हादसा किस वक्त कहाँ कैसे हुआ था
प्यासों के तअक्कुब सुना दरिया गया था
आँखे हैं कि बस रौजने दीवार हुई हैं
इस तरह तुझे पहले कभी देखा गया था
ऐ खल्के-खुदा तुझ को यकीं आए-न-आए
कल धूप तहफ्फुज के लिए साया गया था
वो कौन सी साअत थी पता हो तो बताओ
ये वक्त शबो-रोज में जब बाँटा गया था१९.
कहीं ज़रा सा अँधेरा भी कल की रात न था
गवाह कोई मगर रौशनी के साथ न था
सब अपने तौर से जीने के मुद्दई थे यहाँ
पता किसी को मगर रम्ज़े-काएनात न था
कहाँ से कितनी उड़े और कहाँ पे कितनी जमे
बदन की रेत को अंदाज़-ए-हयात न था
मेरा वजूद मुनव्वर है आज भी उस से
वो तेरे क़ुब का लम्हा जिसे सबात न था
मुझे तो फिर भी मुक़द्दर पे रश्क आता है
मेरी तबाही में हरचंद तेरा हाँथ न था
१८
हुआ ये क्या कि ख़मोशी भी गुनगुनाने लगी
गई रुतों की हर इक बात याद आने लगी
ज़मीने-दिल पे कई नूर के मीनारे थे
ख़याल आया किसी का तो धुंध छाने लगी
ख़बर ये जबसे पढ़ी है, ख़ुशी का हाल न पूछ
सियाह-रात! तुझे रौशनी सताने लगी
दिलों में लोगों के हमदर्दियाँ हैं मेरे लिए
मैं आज ख़ुश हूँ कि मेहनत मेरी ठिकाने लगी
बुरा कहो कि भला समझो ये हक़ीक़त है
जो बात पहले रुलाती थी अब हँसाने लगी
१९.
तमाम शहर में जिस अजनबी का चर्चा है
सभी की राय है, वह शख़्स मेरे जैसा है
बुलावे आते हैं कितने दिनों से सहरा के
मैं कल ये लोगों से पूछूंगा किस को जाना है
कभी ख़याल ये आता है खेल ख़त्म हुआ
कभी गुमान गुज़रता है एक वक़्फ़ा है।
सुना है तर्के-जुनूँ तक पहुँच गए हैं लोग
ये काम अच्छा नहीं पर मआल अच्छा है
ये चल-चलावे के लम्हे हैं, अब तो सच बोलो
जहाँ ने तुम को कि तुम ने जहाँ को बदला है
पलट के पीछे नहीं देखता हूँ ख़ौफ़ से मैं
कि संग होते हुए दोस्तों को देखा है
२०.
शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है
रिश्ता ही मेरी प्यास का पानी से नहीं है
कल यूँ था कि ये क़ैदे-ज़्मानी से थे बेज़ार
फ़ुर्सत जिन्हें अब सैरे-मकानी से नहीं है
चाहा तो यकीं आए न सच्चाई पे इसकी
ख़ाइफ़ कोई गुल अहदे-खिज़ानी से नहीं है
दोहराता नहीं मैं भी गए लोगों की बातें
इस दौर को निस्बत भी कहानी से नहीं है
कहते हैं मेरे हक़ में सुख़नफ़ह्म बस इतना
शे'रों में जो ख़ूबी है मआनी से नहीं है