" हिन्दी काव्य संकलन में आपका स्वागत है "


"इसे समृद्ध करने में अपना सहयोग दें"

सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
हिन्दी काव्य संकलन में उपल्ब्ध सभी रचनायें उन सभी रचनाकारों/ कवियों के नाम से ही प्रकाशित की गयी है। मेरा यह प्रयास सभी रचनाकारों को अधिक प्रसिद्धि प्रदान करना है न की अपनी। इन महान साहित्यकारों की कृतियाँ अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाना ही इस ब्लॉग का मुख्य उद्देश्य है। यदि किसी रचनाकार अथवा वैध स्वामित्व वाले व्यक्ति को "हिन्दी काव्य संकलन" के किसी रचना से कोई आपत्ति हो या कोई सलाह हो तो वह हमें मेल कर सकते हैं। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जायेगी। यदि आप अपने किसी भी रचना को इस पृष्ठ पर प्रकाशित कराना चाहते हों तो आपका स्वागत है। आप अपनी रचनाओं को मेरे दिए हुए पते पर अपने संक्षिप्त परिचय के साथ भेज सकते है या लिंक्स दे सकते हैं। इस ब्लॉग के निरंतर समृद्ध करने और त्रुटिरहित बनाने में सहयोग की अपेक्षा है। आशा है मेरा यह प्रयास पाठकों के लिए लाभकारी होगा.(rajendra651@gmail.com)

फ़ॉलोअर

मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

जोश मलीहाबादी



1.

क़दम इन्सां का राहे-दह्र में थर्रा ही जाता है.
चले कितना ही कोई बच के, ठोकर खा ही जाता है.

नज़र हो ख्वाह कितनी ही हक़ाइक़-आशना, फिर भी,
हुजूम-कशमकश में आदमी घबरा ही जाता है.

खिलाफे-मसलेहत मैं भी समझता हूँ, मगर वाइज़
वो आते हैं तो चेहरे पर तगैयुर आ ही जाता है.

हवाएं ज़ोर कितना ही लगाएं आंधियां बनकर
मगर जो घिर के आता है, वो बादल छा ही जाता है.

शिकायत क्यों इसे कहते हो ये फितरत है इन्सां की
मुसीबत में खयाले-ऐशे-रफ्ता आ ही जाता है.

2.

जहन्नम सर्द है, जन्नत के दर खुलवाये जाते हैं.
सरे-महशर पुजारी हुस्न के बुलवाए जाते हैं.

गज़ब है ये अदा उनकी दमे-आराइशे-गेसू,
झुकी जाती हैं आँखें ख़ुद-बखुद शर्माए जाते हैं.

शबे-वादा ये कैसी तीरगी है,वक्त क्या होगा
तमन्नाओं के गुंचे हमनफस कुम्हलाये जाते हैं.

कोई हद ही नहीं इस इह्तरामे-आदमीयत की
बदी करता है दुश्मन और हम शर्माए जाते हैं.

बहोत जी खुश हुआ ऐ हमनशीं कल 'जोश' से मिलकर,
अभी अगली शराफत के नमूने पाये जाते हैं.

3.

पहचान गया, सैलाब है, इसके सीने में अरमानों का.
देखा जो सफीने को मेरे, जी छूट गया तूफानों का.

ये शोख फिजा, ये ताज़ा चमन,ये मस्त घटा, ये सर्द हवा,
काफिर है अगर इस वक्त भी कोई रुख न करे मैखानों का.

ये किसकी हयात-अफरोज नज़र ने छेड़ दिया है आलम को,
हर ख़ाक के अदना ज़र्रे में, हंगामा है लाखों जानों का.

हाँ जुल्मो-सितम से भी क़दरे, पड़ती हैं खराशें सीने में,
सबसे मुह्लिक है ज़ख्म मगर, ऐ हुस्न तेरे एहसानों का.

कमबख्त जवानी सीने में, नागन की तरह लहराती है,
हर मौजे-नफस इक तूफां है, कुनैन-शिकन अरमानों का.

ऐ 'जोश' जुनूं की शामो-सहर में वक्त की ये रफ़्तार नहीं,
दानाओं की तूलानी सदियाँ,और एक नफस दीवानों का.

४.
क्या हिंद का जिनदाँ काँप रहा और गूँज रही हैं तक्बीरें
उकताए हैं शायद कुछ कैदी और तोड़ रहे हैं ज़ंजीरें

दीवारों के नीचे आ आ कर,यूं जम'अ हुए हैं जिन्दानी
सीनों में तलातुम बिजली का, आंखो में झलकती शमशीरें

भूकों की नज़र में बिजली है, तोपों के दहाने ठंडे हैं
तकदीर के लब पर जुम्बिश है, दम तोड़ रही हैं तदबीरें

आंखों में क़ज़ा की सुर्खी है, बेनूर है चेहरा सुल्ताँ का
तखरीब ने परचम खोला है, सजदे में पड़ी हैं तामीरें

क्या उनको ख़बर थी सीनों से, जो खून चुराया करते थे
इक रोज़ इसी बेरंगी से, झल्केंगी हजारों तस्वीरें

संभलो के वो जिनदाँ गूँज उठा, झपटो के वो कैदी छूट गये
उटठो के वो बैठीं दीवारें, दौडो के वो टूटीं ज़ंजीरें

५.