1.
क़दम इन्सां का राहे-दह्र में थर्रा ही जाता है.
चले कितना ही कोई बच के, ठोकर खा ही जाता है.
नज़र हो ख्वाह कितनी ही हक़ाइक़-आशना, फिर भी,
हुजूम-कशमकश में आदमी घबरा ही जाता है.
खिलाफे-मसलेहत मैं भी समझता हूँ, मगर वाइज़
वो आते हैं तो चेहरे पर तगैयुर आ ही जाता है.
हवाएं ज़ोर कितना ही लगाएं आंधियां बनकर
मगर जो घिर के आता है, वो बादल छा ही जाता है.
शिकायत क्यों इसे कहते हो ये फितरत है इन्सां की
मुसीबत में खयाले-ऐशे-रफ्ता आ ही जाता है.
2.
जहन्नम सर्द है, जन्नत के दर खुलवाये जाते हैं.
सरे-महशर पुजारी हुस्न के बुलवाए जाते हैं.
गज़ब है ये अदा उनकी दमे-आराइशे-गेसू,
झुकी जाती हैं आँखें ख़ुद-बखुद शर्माए जाते हैं.
शबे-वादा ये कैसी तीरगी है,वक्त क्या होगा
तमन्नाओं के गुंचे हमनफस कुम्हलाये जाते हैं.
कोई हद ही नहीं इस इह्तरामे-आदमीयत की
बदी करता है दुश्मन और हम शर्माए जाते हैं.
बहोत जी खुश हुआ ऐ हमनशीं कल 'जोश' से मिलकर,
अभी अगली शराफत के नमूने पाये जाते हैं.
3.
पहचान गया, सैलाब है, इसके सीने में अरमानों का.
देखा जो सफीने को मेरे, जी छूट गया तूफानों का.
ये शोख फिजा, ये ताज़ा चमन,ये मस्त घटा, ये सर्द हवा,
काफिर है अगर इस वक्त भी कोई रुख न करे मैखानों का.
ये किसकी हयात-अफरोज नज़र ने छेड़ दिया है आलम को,
हर ख़ाक के अदना ज़र्रे में, हंगामा है लाखों जानों का.
हाँ जुल्मो-सितम से भी क़दरे, पड़ती हैं खराशें सीने में,
सबसे मुह्लिक है ज़ख्म मगर, ऐ हुस्न तेरे एहसानों का.
कमबख्त जवानी सीने में, नागन की तरह लहराती है,
हर मौजे-नफस इक तूफां है, कुनैन-शिकन अरमानों का.
ऐ 'जोश' जुनूं की शामो-सहर में वक्त की ये रफ़्तार नहीं,
दानाओं की तूलानी सदियाँ,और एक नफस दीवानों का.
४.
क्या हिंद का जिनदाँ काँप रहा और गूँज रही हैं तक्बीरें
उकताए हैं शायद कुछ कैदी और तोड़ रहे हैं ज़ंजीरें
दीवारों के नीचे आ आ कर,यूं जम'अ हुए हैं जिन्दानी
सीनों में तलातुम बिजली का, आंखो में झलकती शमशीरें
भूकों की नज़र में बिजली है, तोपों के दहाने ठंडे हैं
तकदीर के लब पर जुम्बिश है, दम तोड़ रही हैं तदबीरें
आंखों में क़ज़ा की सुर्खी है, बेनूर है चेहरा सुल्ताँ का
तखरीब ने परचम खोला है, सजदे में पड़ी हैं तामीरें
क्या उनको ख़बर थी सीनों से, जो खून चुराया करते थे
इक रोज़ इसी बेरंगी से, झल्केंगी हजारों तस्वीरें
संभलो के वो जिनदाँ गूँज उठा, झपटो के वो कैदी छूट गये
उटठो के वो बैठीं दीवारें, दौडो के वो टूटीं ज़ंजीरें
५.
किस को आती है मसिहाई किसे आवाज़ दूँ
बोल ऐ ख़ूंख़ार तनहाई किसे आवाज़ दूँ
चुप रहूँ तो हर नफ़स डसता है नागन की तरह
आह भरने में है रुसवाई किसे आवाज़ दूँ
उफ़्फ़ ख़ामोशी की ये आहें दिल को बरमाती हुई
उफ़्फ़ ये सन्नाटे की शेहनाई किसे आवाज़ दूँ
६.
वो जोश ख़ैरगी है तमाशा कहें जिसे
६.
अशवों को चैन नहीं आफ़त किये बग़ैर
तुम, और मान जाओ शरारत किये बग़ैर
तुम, और मान जाओ शरारत किये बग़ैर
अहल-ए-नज़र को यार दिखाना राह-ए-वफ़ा
ऐ काश! ज़िक्र-ए-दोज़ख-ओ-जन्नत किये बग़ैर
ऐ काश! ज़िक्र-ए-दोज़ख-ओ-जन्नत किये बग़ैर
अब देख उस का हाल कि आता न था करार
खुद तेरे दिल को, जिस पे इनायत किये बग़ैर
खुद तेरे दिल को, जिस पे इनायत किये बग़ैर
ऐ हमनशीं मुहाल है नासेह का टालना
यह, और यहाँ से जाएँ नसीहत किये बग़ैर
यह, और यहाँ से जाएँ नसीहत किये बग़ैर
तुम कितने तुन्द-खू हो कि पहलू से आज तक
एक बार भी उठे न क़यामत किये बग़ैर
एक बार भी उठे न क़यामत किये बग़ैर
७.
ये दिन बहार के अब के भी रास न आ सके
कि ग़ुंचे खिल तो सके खिल के मुस्कुरा न सके
कि ग़ुंचे खिल तो सके खिल के मुस्कुरा न सके
मेरी तबाही दिल पर तो रहम खा न सकी
जो रोशनी में रहे रोशनी को पा न सके
जो रोशनी में रहे रोशनी को पा न सके
न जाने आह! कि उन आँसूओं पे क्या गुज़री
जो दिल से आँख तक आये मिश्गाँ तक आ न सके
जो दिल से आँख तक आये मिश्गाँ तक आ न सके
रहें ख़ुलूस-ए-मुहब्बत के हादसात जहाँ
मुझे तो क्या मेरे नक़्श-ए-क़दम मिटा न सके
मुझे तो क्या मेरे नक़्श-ए-क़दम मिटा न सके
करेंगे मर के बक़ा-ए-दवाम क्या हासिल
जो ज़िंदा रह के मुक़ाम-ए-हयात पा न सके
जो ज़िंदा रह के मुक़ाम-ए-हयात पा न सके
नया ज़माना बनाने चले थे दीवाने
नई ज़मीं, नया आसमाँ बना न सके
नई ज़मीं, नया आसमाँ बना न सके
८.
क़सम है आपके हर रोज़ रूठ जाने की
के अब हवस है अजल को गले लगाने की
के अब हवस है अजल को गले लगाने की
वहाँ से है मेरी हिम्मत की इब्तिदा अल्लाह
जो इंतिहा है तेरे सब्र आज़माने की
जो इंतिहा है तेरे सब्र आज़माने की
फूँका हुआ है मेरे आशियाँ का हर तिनका
फ़लक को ख़ू है तो है बिजलियाँ गिराने की
फ़लक को ख़ू है तो है बिजलियाँ गिराने की
हज़ार बार हुई गो मआलेगुल से दोचार
कली से ख़ू न गई फिर भी मुस्कुराने की
कली से ख़ू न गई फिर भी मुस्कुराने की
मेरे ग़ुरूर के माथे पे आ चली है शिकन
बदल रही है तो बदले हवा ज़माने की
बदल रही है तो बदले हवा ज़माने की
चिराग़-ए-दैर-ओ-हरम कब के बुझ गए ऐ जोश
हनोज़ शम्मा है रोशन शराबख़ाने की
हनोज़ शम्मा है रोशन शराबख़ाने की
९.
ख़ुद अपनी ज़िन्दगी से वहशत-सी हो गई है
तारी कुछ ऐसी दिल पे इबरत-सी हो गई है
तारी कुछ ऐसी दिल पे इबरत-सी हो गई है
ज़ौक़े-तरब से दिल को होने लगी है वहशत
कुछ ऐसी ग़म की जानिब रग़बत-सी हो गई है
कुछ ऐसी ग़म की जानिब रग़बत-सी हो गई है
सीने पे मेरे जब से रक्खा है हाथ तूने
कुछ और दर्द-ए-दिल में शिद्दत-सी हो गई है
कुछ और दर्द-ए-दिल में शिद्दत-सी हो गई है
मुमकिन नहीं के मिलकर रसमन ही मुस्कुरा दो
तुमको तो जैसे हमसे नफ़रत-सी हो गई
तुमको तो जैसे हमसे नफ़रत-सी हो गई
अब तो है कुछ दिनों से यूँ दिल बुझा-बुझा सा
दोनों जहाँ से गोया फ़ुरसत-सी हो गई
दोनों जहाँ से गोया फ़ुरसत-सी हो गई
वो अब कहाँ हैं लेकिन ऐ हमनशीं यहाँ तो
मुड़-मुड़ के देखने की आदत-सी हो गई है
मुड़-मुड़ के देखने की आदत-सी हो गई है
ऐ ‘जोश’ रफ़्ता-रफ़्ता शायद हमारे दिल से
ज़ौक़-ए-फ़सुर्दगी को उल्फ़त-सी हो गई है
ज़ौक़-ए-फ़सुर्दगी को उल्फ़त-सी हो गई है
१०.
सोज़े-ग़म देके उसने ये इरशाद किया
जा तुझे कश्मकश-ए-दहर से आज़ाद किया
जा तुझे कश्मकश-ए-दहर से आज़ाद किया
वो करें भी तो किन अल्फ़ाज में तिरा शिकवा
जिनको तिरी निगाह-ए-लुत्फ़ ने बर्बाद किया
जिनको तिरी निगाह-ए-लुत्फ़ ने बर्बाद किया
दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया
जब चली सर्द हवा मैंने तुझे याद किया
जब चली सर्द हवा मैंने तुझे याद किया
इसका रोना नहीं क्यों तुमने किया दिल बरबाद
इसका ग़म है कि बहुत देर में बरबाद किया
इसका ग़म है कि बहुत देर में बरबाद किया
इतना मासूम हूँ फितरत से,कली जब चटकी
झुक के मैंने कहा, मुझसे कुछ इरशाद किया
झुक के मैंने कहा, मुझसे कुछ इरशाद किया
मेरी हर साँस है इस बात की शाहिद-ए-मौत
मैंने ने हर लुत्फ़ के मौक़े पे तुझे याद किया
मैंने ने हर लुत्फ़ के मौक़े पे तुझे याद किया
मुझको तो होश नहीं तुमको खबर हो शायद
लोग कहते हैं कि तुमने मुझे बर्बाद किया
लोग कहते हैं कि तुमने मुझे बर्बाद किया
वो तुझे याद करे जिसने भुलाया हो कभी
हमने तुझ को न भुलाया न कभी याद किया
हमने तुझ को न भुलाया न कभी याद किया
कुछ नहीं इस के सिवा 'जोश' हारीफ़ों का कलाम
वस्ल ने शाद किया, हिज्र ने नाशाद किया
वस्ल ने शाद किया, हिज्र ने नाशाद किया
११.
बेपरदा यूँ हुए हैं के परदा कहें जिसे
अल्लाह रे ख़ाकसारिए रिंदाँने बादाख्वार
रश्क-ए-ग़ुरूर-ओ-क़ैसर-ओ-कसरा कहें जिसे
रश्क-ए-ग़ुरूर-ओ-क़ैसर-ओ-कसरा कहें जिसे
बिजली गिरी वो दिल पे जिगर तक उतर गई
इस चर्ख़-ए-नाज़ से क़द-ए-बाला कहें जिसे
इस चर्ख़-ए-नाज़ से क़द-ए-बाला कहें जिसे
ज़ुल्फ़-ए-हयात नोएबशर में है आज तक
ज़ख़्म-ए-गुनाह-ए-आदम-ओ-हव्वा कहें जिसे
ज़ख़्म-ए-गुनाह-ए-आदम-ओ-हव्वा कहें जिसे
कितनी हक़ीक़तों से फ़ज़ूँतर है वो फ़रेब
दिल की ज़ुबाँ में वादा-ए-फ़रदा कहें जिसे
दिल की ज़ुबाँ में वादा-ए-फ़रदा कहें जिसे
मेरा लक़ब है जिसका लक़ब है शमीम-ए-ज़ुल्फ़
मेरी नज़र है चेहरा-ए-ज़ेबा कहें जिसे
मेरी नज़र है चेहरा-ए-ज़ेबा कहें जिसे
लो आ रहा है वो कोई मस्त-ए-ख़राम से
इस चाल से के लरज़िश-ए-सेहबा कहें जिसे
इस चाल से के लरज़िश-ए-सेहबा कहें जिसे
तेरे निशात-ए-ख़ाना-ए-अमरोज़ में नहीं
वो बुज़दिली के ख़तरा-ए-फ़रदा कहें जिसे
वो बुज़दिली के ख़तरा-ए-फ़रदा कहें जिसे
ख़ंजर है जोश हाथ में दामन लहू से तर
ये उसके तौर हैं के मसीहा कहें जिसे
ये उसके तौर हैं के मसीहा कहें जिसे