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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

मुनीर नियाज़ी

जन्म: 19 अप्रैल 1929-होशियारपुर(पंजाब ), निधन: 26 दिसम्बर 2006

१.

डर के किसी से छुप जाता है जैसे सौंप खज़ाने में
ज़र के ज़ोर से जिंदा हैं सब ख़ाक के इस वीराने में

जैसे रस्म अदा करते हों शहरों की आबादी में
सुब्ह को घर से दूर निकलकर शाम को वापस आने में

नीले रंग में डूबी आँखें खुली पडी थीं सब्ज़े पर
अक्स पड़ा था आसमान का शायद इस पैमाने में

दिल कुछ और भी सर्द हुआ है शामे-शह्र की रौनक में
कितनी जिया बेसूद गई शीशे के लफ्ज़ जलाने में

मैं तो 'मुनीर' आईने में ख़ुद को तक कर हैरान हुआ
ये चेहरा कुछ और तरह था पहले एक ज़माने में

२.

गम की बारिश ने भी तेरे नक्श को धोया नहीं
तूने मुझको खो दिया, मैंने तुझे खोया नहीं

नींद का हल्का गुलाबी सा खुमार आंखों में था
यूँ लगा जैसे वो शब् को देर तक सोया नहीं

हर तरफ़ दीवारों-दर और उनमें आंखों का हुजूम
कह सके जो दिल की हालत वो लबे-गोया नहीं

जुर्म आदम ने किया और नस्ले-आदम को सजा
काटता हूँ जिंदगी भर मैंने जो बोया नहीं

जानता हूँ एक ऐसे शख्स को मैं भी 'मुनीर'
गम से पत्थर हो गया लेकिन कभी रोया नहीं

३.

फूल थे बादल भी था, और वो हसीं सूरत भी थी
दिल में लेकिन और ही इक शक्ल की हसरत भी थी

जो हवा में घर बनाया काश कोई देखता
दस्त में रहते थे पर तामीर की हसरत भी थी

कह गया मैं सामने उसके जो दिल का मुद्दआ
कुछ तो मौसम भी अजब था, कुछ मेरी हिम्मत भी थी

अजनबी शहरों में रहते उम्र सारी कट गई
गो ज़रा से फासले पर घर की हर राहत भी थी

क्या क़यामत है 'मुनीर' अब याद भी आते नहीं
वो पुराने आशना जिनसे हमें उल्फत भी थी

4.

बेचैन बहुत फिरना घबराये हुए रहना|
इक आग सी ज़ज़्बो की बहकाये हुए रहना|

छलकाये हुए चलना ख़ुश्बू-ए-बेगानी की,
इक बाग़ सा था अपना महकाये हुए रहना

इस हुस्न का शेवा[1] है, जब इश्क़ नज़र आये,
पर्दे में चले जाना, शर्माये हुए रहना|

इक शाम सी कर रखना काजल के करिश्में से,
इक चांद सा आँखों में चमकाये हुए रहना|

आदत ही बना ली है तुम ने तो "मुनिर" अपनी,
जिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना|

5.

चमन में रंग-ए-बहार उतरा तो मैंने देखा|
नज़र से दिल का ग़ुबार उतरा तो मैंने देखा|

मैं नीम शब आज़मा के हसरत को देखता था,
चमन में वो हुस्न ज़ार उतरा तो मैंने देखा|

ख़ुमार मय थी वो चेहरा कुछ और लग रहा था,
डम-ए-सहर जब ख़ुमार उतरा तो मैंने देखा|

गली के बाहर तमाम मंज़िल बदल गये थे,
जो साया एक कू-ए-यार उतरा तो मैंने देखा|

इक और दरिया का सामना था 'मुनिर' मुझ को,
मैं एक दरिया के पार उतरा तो मैंने देखा|

6.

ख़लिश-ए-हिज्र-ए-दायमी न गई
तेरे रुख़ से ये बेरुख़ी न गई

पूछते हैं कि क्या हुआ दिल को
हुस्न वालों की सादगी न गई

सर से सौदा गया मुहब्बत का
दिल से पर इस की बेकली न गई

और सब की हिकायतें कह दीं
बात अपनी कभी कही न गई

हम भी घर से 'मुनिर' तब निकले
बात अपनों की जब सही न गई

7.

लाखों शक्लों के मेले में तनहा रहना मेरा काम
भेस बदल कर देखते रहना तेज़ हवाओं का कोहराम

एक तरफ़ आवाज़ का सूरज एक तरफ़ इक गूँगी शाम
एक तरफ़ जिस्मों की ख़ुश्बू एक तरफ़ इस का अन्जाम

बन गया क़ातिल मेरे लिये तो अपनी ही नज़रों का दाम
सब से बड़ा है नाम ख़ुदा का उस के बाद है मेरा नाम

8.

ज़िंदा रहें तो क्या है जो मर जाए हम तो क्या|
दुनिया में ख़ामोशी से गुज़र जाए हम तो क्या|

हस्ती ही अपनी क्या है ज़माने के सामने,
एक ख़्वाब हैं जहां में बिखर जाए हम तो क्या|

अब कौन मुंतज़िर है हमारे लिये वहाँ,
शाम आ गई है लौट के घर जाए हम तो क्या|

दिल की ख़लिश तो साथ रहेगी तमाम उम्र,
दरिया-ए-ग़म के पार उतर जाए हम तो क्या|

9.

ग़म का वो ज़ोर अब मेरे अँदर नहीं रहा
इस उम्र में मैं इतना समर्वर नहीं रहा

इस घर में जो कशिश थी गई उन दिनों के साथ
इस घर का साया अब मेरे सर पर नहीं रहा

वो हुस्न-ए-नौबहार अबद शौक़ जिस्म सुन
रहना था उस को साथ मेरे पर नहीं रहा

मुझ में ही कुछ कमी थी कि बेहतर मैं उन से था
मैं शहर में किसी के बराबर नहीं रहा

रहबर को उन के हाल की हो किस तरह ख़बर
लोगों के दरमियां वो आकर नहीं रहा

वापस न जा वहाँ कि तेरे शहर में 'मुनिर'
जो जिस जगह पे था वो वहाँ पर नहीं रहा

10.

उस सिम्त मुझ को यार ने जाने नहीं दिया
एक और शहर-ए-यार में आने नहीं दिया

कुछ और वक़्त चाहते थे कि सोचें तेरे लिये,
तूने वो वक़्त हम को ज़माने! नहीं दिया

मंज़िल है इस महक की कहाँ किस चमन में है,
इस का पता सफ़र में हवा ने नहीं दिया

रोका अना ने काविश-ए-बेसूद से मुझे,
उस बुत को अपना हाल सुनाने नहीं दिया

है जिस के बाद अहद-ए-ज़वाल-आश्ना "मुनीर",
इतना कमाल हम को ख़ुदा ने नहीं दिया

11.

तोड़ना टूटे हुये दिल का बुरा होता है|
जिस का कोई नहीं उस का तो ख़ुदा होता है|

माँग कर तुम से ख़ुशी लूँ मुझे मंज़ूर नहीं,
किस का माँगी हुई दौलत से भला होता है|

लोग नाहक किसी मजबूर को कहते हैं बुरा,
आदमी अच्छे हैं पर वक़्त बुरा होता है|

क्यों "मुनिर" अपनी तबाही का ये कैसा शिकवा,
जितना तक़दीर में लिखा है अदा होता है| 

12.

उस बेवफ़ा का शहर है और हम हैं दोस्तों|
अश्क-ए-रवाँ की नहर है और हम हैं दोस्तों|

शाम-ए-आलम ढली तो चली दर्द की हवा,
रातों का पिछला पहर है और हम हैं दोस्तों|

आँखों में उड़ रही है लुटी महफ़िलों की धूल,
इब्रत बर-ए-दहर है और हम हैं दोस्तों|

ये अजनबी सी मंज़िलें और रफ़्तगा की याद,
तन्हाइयों का ज़हर है और हम हैं दोस्तों|